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पिछले दिनों ईरान के इमाम खुमैनी एवं राष्ट्रपति अहमदीनिजाद ने एक वक्तव्य जारी कर कहा है कि 'ईरान में मुस्लिम जनसंख्या तेजी से घट रही है। इसलिए ईरानियों को चाहिये कि वे कम से कम 9 से दस बच्चे पैदा करें। इतना ही नहीं आवश्यकता पड़ने पर उन्हें बहुविवाह करने पड़े तो वे इसके लिए भी तैयार रहें। जीवन स्तर बनाए रखने के नाम पर कम बच्चे पैदा करने का जो रिवाज चल पड़ा है उसे तुरंत समाप्त करें। इस बात की चिंता छोड़ दें कि उनके लालन-पालन का क्या होगा? आने वाली संतानों की चिंता मां-बाप को नहीं करनी, बल्कि उस ईश्वर को करनी है जिसकी आज्ञा ने उन्होंने धरती पर जन्म लिया है।' ईरान में शाह के राज में इस बात का प्रचार होता था कि अपना जीवन स्तर बनाए रखने के लिए छोटा परिवार अत्यंत आवश्यक है। अब ईरानी नेताओं का कहना है कि यह सिद्धांत भ्रामक और इस्लाम विरोधी है। ईश्वर चाहता है कि इस्लाम सारी दुनिया में फैले। जितनी मुस्लिम जनसंख्या बढ़ेगी मुसलमानों का दबदबा बढ़ेगा। हमें दुनिया को 21वीं सदी के मध्य तक मुसलमानों की और इस्लाम की सदी बनाना है। उपरोक्त विचार अकेले ईरान का नहीं है, बल्कि विश्व स्तर का मुस्लिम संगठन 'उम्मा' इसी विचार को प्रचारित और प्रसारित करता है। जनसंख्या के बल पर अन्य मत-पंथों की ताकत घटेगी और मुसलमानों की शक्ति बढ़ेगी। मुसलमानों के राजनीतिक और आतंकवादी संगठन भी ऐसी ही बातें करते हैं। इस्लाम ने न केवल चार विवाह, बल्कि तलाक की सुविधा और महिलाओं के साथ अधिकतम संसर्ग और सम्पर्क बना कर अपनी जनसंख्या बढ़ाने की वकालत की है। मुस्लिम उम्मा का यह चिंतन है कि मुसलमानों की संख्या इस्लामी देशों में घट रही है जो अपने आप में खतरे का निशान है। यदि ईश्वरीय संदेश, जो कुरान का संदेश है, की अवहेलना की गई तो इस्लाम के साथ-साथ मुस्लिम साम्राज्य भी खतरे में पड़ जाएगा। अतएव वर्तमान में परिवार नियोजन की जो संकल्पना है वह हदीस और कुरान विरोधी है।
भयभीत क्यों?
लेकिन अचानक ऐसा क्या हो गया कि मुस्लिम नेता अपने ही देश में हम मजहबियों की घटती जनसंख्या के प्रति भयभीत हो गए? एक अमरीकी रपट को उद्धरित करते हुए कहा गया है कि दुनिया भर में अब मुसलमान बच्चे पैदा करने की दौड़ में पीछे रह गए हैं। किसी समय में मुस्लिम महिला औसतन 9 बच्चे पैदा करती थी, अब उसका औसत तीन पर आ गया है। 'प्यू फोरम' की रपट में कहा गया है कि दुनिया की जनसंख्या में मुसलमानों का प्रतिशत 23 है यानी एक अरब और 60 करोड़। लेकिन प्रगतिशील देशों में मुस्लिमों का प्रतिशत मात्र तीन है। इसका अर्थ हुआ कि मुस्लिम आबादी पिछड़े देशों में अधिक है। चार मुस्लिम देश अम्मान, मालदीव, कुवैत और ईरान में पिछले 20 वर्ष में बच्चों की जन्म दर में प्रति महिला 4.5 की गिरावट आई है। अम्मान इसमें सबसे ऊपर है, जहां यह गिरावट 5.3 की है। सर्वोच्च दस देशों में दो देश अल्जीरिया और लीबिया हैं। रपट यह भी बताती है कि पिछले 20 वर्षों में बच्चे पैदा करने में सबसे अधिक गिरावट अरब देशों में आई है। अल्जीरिया, लीबिया, कुवैत और अम्मान इनमें सबसे अग्रणी हैं।
ईरान में जब शाह की सरकार थी तो हर ईरानी घर में औसतन सात बच्चे होते थे लेकिन अब जब कि वहां खुमैनी शैली की कट्टर सरकार है तो बच्चों की जन्म दर प्रति महिला केवल 1.8 है। फिलिस्तीन में यासर अराफात ने 12 बच्चों को जन्म दिये जाने का आग्रह किया था। जिनमें दो परिवार के उत्तराधिकारी हों और दस इस्रायल के विरुद्ध संघर्ष करें। आज भी फिलिस्तीन में एक अरबी महिला औसतन चार बच्चों को जन्म देती है लेकिन यहूदी परिवार में सात से 8 बच्चे जन्म लेते हैं।
दिलचस्प बात यह है कि सम्पूर्ण दुनिया कह रही है कि मुसलमानों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन मुस्लिम दार्शनिक और विद्वानों का मत है कि मुस्लिम आबादी कम हो रही है। इनका मत है कि यदि विशाल क्षेत्रफल वाले हिस्से पर मुसलमानों का अपना अधिकार ही नहीं होगा और साथ ही उसके अधिकतम भाग पर बाहर का व्यक्ति आकर काम करेगा तो फिर उसकी अपनी मालिकियत कितने समय तक शेष रहेगी? इसका आकलन करना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। परिवार नियोजन का अर्थ यह तो नहीं होना चाहिए कि उनके यहां काम करने वाले दो हाथ कोई बाहर से आकर उनकी सहायता करें। अपने क्षेत्र पर अधिकार जमाने के लिए मुस्लिमों को अपनी घटती संख्या पर विचार करना चाहिए। क्योंकि जब उनकी धरती किसी और के अधिकार में चली जाएगी तो उनका अपना अस्तित्व कहां रहेगा? इस्लामी विद्वान मानते हैं कि उनकी जमीन पर उनका ही कब्जा होना चाहिए। यदि कम जनसंख्या के कारण वे उसका उपयोग नहीं कर सकते हैं तो फिर एक न एक दिन उनकी जमीन उनके अधिकार से बाहर हो जाएगी। इसलिए जनसंख्या का आधार अपनी धरती के अनुपात में तो होना ही चाहिए। इसलिए अभी यह समय नहीं है कि वे परिवार नियोजन अपना कर अपनी संख्या कम कर लें और दूसरों को काम के बहाने अपनी धरती सुपुर्द कर दें। उनके मतानुसार दुनिया में सबसे बुनियादी और आवश्यक आधार उसकी अपनी धरती है। इसलिए इस्लामी जगत को अपने भूभाग की सेवा के लिए अपने ही धरती पुत्रों के दो हाथों की आवश्यकता है।
जनसंख्या बल को अपना अनिवार्य बल बनाने के लिए उसकी पहचान की आवश्यकता होती है। यह पहचान केवल उसका मजहब है। इसलिए स्वयं के मजहब की बढ़ती जनसंख्या को रोका जाना किसी भी स्थिति में मुसलमानों के लिये ठीक नहीं है। उक्त काम ईसाई और इस्लाम के अनुयायी लगातार कर रहे हैं। धरती पर कब्जा जमाने के लिए वे युद्ध भी करते हैं और अपने मजहब को माध्यम बना कर अन्य जाति और समुदाय का समय-समय पर मतान्तरण भी करते हैं।
इस्लामी प्रसारवादी
मध्य एशिया के तीनों मजहब यहूदियत, ईसाइयत और इस्लाम अपने जन्म के पहले दिन से इस दिशा में अग्रसर हैं। उनमें मजहब के नाम पर लड़ाइयां भी होती रही हैं। जबकि ठीक इसके विपरीत पूर्वी दुनिया के दो बड़े धर्म हिन्दू और बौद्धों का प्रचार प्रसार केवल उनका दर्शन रहा है। राजनीति को प्रभावित करने के लिए वे धर्म का उपयोग नहीं करते हैं। चूंकि एशिया का पूर्वी और दक्षिणी भाग सबसे अधिक उपजाऊ और घनी बस्ती वाला भाग है इसलिए इस्लामी प्रसारवादियों की नजरें इस पर हमेशा से गड़ी हुई हैं। ब्रिटिश सत्ता जब भारत में स्थापित हो गई तब चर्च ने इस क्षेत्र पर अपने कदम की छाप डालने की एक दूरगामी योजना बनाई और देखते ही देखते ईसाई मिशनरियों का यहां जाल बिछ गया। इससे पहले मध्य पूर्व के मुस्लिम बादशाहों ने जब दक्षिणी एशिया पर विजय प्रापत करने का सिलसिला चलाया तो मुस्लिम कट्टरवादियों ने भी इस्लाम के प्रचार-प्रसार का काम शुरू कर दिया। आज जिस तरह का मुस्लिम कट्टरवाद आतंकवाद के रूप में अपनी जड़ें जमाने का प्रयास कर रहा है यह सब उसी बीज से पल्लवित होने वाला वृक्ष है। हिन्दू और बौद्ध भारतीय संस्कृति के प्रवाह में हैं इसलिए दोनों में ही सहिष्णुता और उदारवादी गुण हैं। लेकिन इस्लाम और ईसाइयत ने इसे अपनी मजहबी राजनीति का अंग बनाया। पाकिस्तान उसी की सोची-समझी नीति का नतीजा है।
कुरूप चेहरा
बंगलादेश स्वतंत्र हो जाने के बाद वहां भी जमाते इस्लामी ने अपना कुरूप चेहरा दिखाना प्रारंभ किया। आज म्यांमार और रोहिंग्याई मुसलमानों के बीच जो संघर्ष चल रहा है उसका दूरगामी परिणाम यही होगा कि इस क्षेत्र में मुस्लिम जनसंख्या में वृद्धि हो और अपनी जनसंख्या के बल पर वहां एक नया इस्लामी देश कायम हो जाए। भारत के उत्तर में 'मुगलिस्तान' की पट्टी बना कर वे पूर्व से पश्चिम को जोड़ना चाहते हैं। मुस्लिम बहुल क्षेत्र बना कर वे अपने इस्लामी देशों की घटती जनसंख्या की कमी को इस क्षेत्र में नव मुस्लिम राष्ट्र के रूप में परिणत कर देना चाहते हैं। विश्व इस्लामी संगठन के प्रणेता यह बात भली प्रकार से समझ गए हैं कि इस क्षेत्र में मतान्तरण की लहर उस कमी को पूरा कर देगी जिसके तहत इस्लामी देशों की जनसंख्या घटी है। ईसाइयत के बाद बड़ी तादाद मुसलमानों की है। मुसलमान मतान्तरण एवं अधिक बच्चों को जन्म देने के सिद्धांत को प्रतिपादित करके अपनी संख्या बल बढ़ा देना चाहते हैं। मुस्लिम देशों में यदि जनसंख्या किन्हीं कारणों से मुसलमानों की नहीं बढ़ रही है तो इसका अर्थ यह नहीं कि किन्हीं अन्य माध्यमों से वे इसकी पूर्ति नहीं कर सके। इसलिए परिवार नियोजन को न केवल ठुकरा कर बल्कि नए प्रदेश जीत कर वे जनसंख्या शास्त्र के माध्यम से मुस्लिम साम्राज्य का विस्तार करते रहें। यहूदियों से उनका टकराव इस मामले में उनके लिये घाटे का सौदा है। यहूदियों ने अपने पंथ को भले ही भूतकाल में साम्राज्य का माध्यम बनाया हो लेकिन अब तो उनकी संख्या इतनी कम है कि फिलहाल तो एक हजार बरस तक वह यह खेल नहीं खेल सकते। आज चूंकि इस्रायल को ईसाई राष्ट्रों का समर्थन चाहिए इसलिए वे उनसे टकराने का साहस नहीं कर सकते हैं। लेकिन मुस्लिम फिलिस्तीन के बहाने इस्रायल को सीमित रखने की नीति अपनाए हुए हैं। लेकिन उनकी वृहत इस्रायल की मांग उन पुराने दिनों की याद ताजा करवा देती है जब क्रूसेड के भयंकर युद्ध हुए थे। दुनिया को हरे रंग से रंग देने की ललक रखने वाले अब अपने देशों में मुस्लिमों की कम होती जनसंख्या की भरपाई उन देशों से करना चाहते हैं जिन्हें वे सांस्कृतिक आधार पर जीत सकें। वहां मतान्तरण का चक्र चला सकें और समय आने पर वहां की स्थानीय जनता को अपने आतंकवादी संगठनों के हमलों से पराजित कर इस्लामी ध्वज को फहरा सकें। मुजफ्फर हुसैन
देश जनसंख्या मुसलमानों का प्रतिशत
इंडोनेशिया 20 करोड़ 48 लाख 88.1
पाकिस्तान 17 करोड़ 80 लाख 96.4
भारत 17 करोड़ 72 लाख 14.6
बंगलादेश 14 करोड़ 53 लाख 90.4
नाइजीरिया 7 करोड़ 57 लाख 47.9
ईरान 7 करोड़ 48 लाख 99.6
तुकर्ी 7 करोड़ 46 लाख 98.6
मिस्र 7 करोड़ 37 लाख 90.0
अलजीरिया 3 करोड़ 47 लाख 98.2
मोरक्को 3 करोड़ 23 लाख 99.6
इराक 3 करोड़ 11 लाख 98.6
सूडान 3 करोड़ 10 लाख 97.0
अफगानिस्तान 2 करोड़ 90 लाख 98.98
ईथोपिया 2 करोड़ 87 लाख 98.3
उज्बेकिस्तान 2 करोड़ 68 लाख 96.5
सऊदी अरब 2 करोड़ 54 लाख 97.1
यमन 2 करोड़ 40 लाख 97.1
चीन 2 करोड़ 33 लाख 1.8
सीरिया 2 करोड़ 8 लाख 92.8
मलेशिया 1 करोड़ 71 लाख 61.4
रूस 1 करोड़ 61 लाख 11.4
जम्मू जेल में 'पाकिस्तान जिन्दाबाद' के नारे
इन दिनों जम्मू की सबसे बड़ी जेल कोटबलवाल में 'पाकिस्तान जिन्दाबाद' के नारे लग रहे हैं। इस जेल में राज्य के उग्रवादी और पाकिस्तानी कैदी बंद हैं। इनकी संख्या 70 बताई जा रही है। इस जेल में अन्य कैदी करीब 400 हैं। पिछले दिनों पाकिस्तानी कैदी सनाउल्लाह पर हुए हमले (जिसकी 9 मई को मृत्यु हो गई) के बाद उग्रवादियों और पाकिस्तानी कैदियों को एक साथ कर दिया गया था। अब यही लोग कभी भी 'पाकिस्तान जिन्दाबाद' के नारे लगाने लगते हैं। जवाब में दूसरे कैदी 'भारत माता की जय' के नारे लगाते हैं। इस कारण जेल के अन्दर तनाव का माहौल बन जाता है। इस माहौल से निपटने के लिए जेल प्रशासन के पास पर्याप्त सुरक्षाकर्मी नहीं हैं। ऊपर से इन सुरक्षाकर्मियों को सेकुलर सरकार की सख्त हिदायत है कि कैदियों के साथ कड़ाई नहीं बरतनी है। जेल नियमों के अनुसार इन कैदियों की निगरानी के लिए कम से कम 145 कर्मियों की जरूरत है, जबकि इस समय केवल 50 कर्मी हैं। वर्षों से जेल-कर्मियों की नियुक्ति नहीं हुई। लोगों का मानना है कि जेल के अन्दर तनाव पैदा करने में राज्य के कुछ अलगाववादी नेताओं का हाथ है। ये लोग ऐसा माहौल बना कर उग्रवादियों को श्रीनगर जेल ले जाना चाहते हैं। उल्लेखनीय है कि ये लोग बहुत समय से कह रहे हैं कि जम्मू जेल में उग्रवादियों की जान को खतरा है। विशेष प्रतिनिधि
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