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सिख नरसंहार के 29 साल और सजा मिली केवल 33 को
31 अक्टूबर 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद पूरे देश में सिखों को निशाना बनाया गया। खासकर दिल्ली में कांग्रेसी नेताओं की अगुवाई में नरसंहार का अभियान चला और तीन दिन के अंदर हजारों सिखों को मौत के घाट उतार दिया गया। सरकारी आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में 2733 सिखों को बड़ी बर्बरता के साथ मारा गया। किन्तु आश्चर्य यह है कि 29 साल बाद भी असली गुनाहगारों को सजा नहीं मिली है। अब तक 11 मामलों में सिर्फ 49 लोगों को सजा हुई है, जिनमें से कई सबूत के अभाव में ऊपरी अदालत से बरी हो चुके हैं। इस समय केवल 33 लोग सजा काट रहे हैं।
पिछले दिनों कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सज्जन कुमार भी इस मामले में बरी हो चुके हैं। न्यायालय ने उन्हें भी सबूत के अभाव में छोड़ा है। अदालत के इस फैसले के बाद पीड़ितों का गुस्सा आसमान पर पहुंच गया है। दिल्ली से पंजाब तक सिख समुदाय सड़कों पर उतर आया है। इन लोगों ने जगह- जगह सड़क जाम कर सज्जन कुमार के बरी होने का विरोध किया।
पीड़ितों का कहना है कि कांग्रेस अपने पर लगे दाग को धोने और अपने लोगों को बचाने के लिए सरकारी तंत्र का इस्तेमाल कर सबूतों के साथ छेड़छाड़ कर रही है। इसलिए सज्जन कुमार जैसे लोग बरी हो रहे हैं और 29 साल बाद भी पीड़ितों को न्याय नहीं मिल रहा है। जो कांग्रेस गुजरात दंगों पर बार-बार आंसू टपकाती है उसने अब तक 1984 के पीड़ितों को पूरा मुआवजा तक नहीं दिया है। तिलक नगर के पास तिलक विहार की 'विडो कालोनी' में रहने वाली अत्तर कौर कहती हैं, 'उस वक्त हम लोग त्रिलोकपुरी में रहते थे। दंगाइयों ने मेरे पति सरदार कृपाल सिंह, तीन भतीजे और नन्दोई को मेरे सामने ही जिन्दा जिन्दा जला दिया था। पड़ोसियों ने मेरे बच्चों को छिपा लिया था इसलिए वे बच गए। सरकार ने कहा था कि हर मृतक के परिजन को 10 लाख रुपये दिए जायेंगे, किन्तु अभी तक पूरी रकम नहीं मिली है। दंगों के कुछ दिन बाद 3,50000 और पांच साल पहले भी इतनी ही रकम मिली है। यानी अभी भी तीन लाख रुपये नहीं मिले हैं। मुझे चपरासी की नौकरी दी गयी थी ,अब वह भी नहीं रही। 'रिटायर' हो गयी हूं। छोटे-छोटे बच्चों को घर पर छोड़ कर नौकरी करने जाती थी। रोजी-रोटी की फिक्र में बच्चों को देख नहीं पाई, बच्चों को तालीम भी नहीं दिला पाई। अब तीनों बेटे फैक्टरी में काम कर रहे हैं। बहुत मुश्किल से गुजारा होता है। हमारी इस हालत के लिए राजीव गांधी जिम्मेदार हैं। उनके एक बयान के बाद ही दिल्ली में सिखों का कत्लेआम किया गया। हमारे बच्चों को नौकरी मिलनी चाहिए और दंगाइयों को सजा।'
1984 को याद कर हरविंदर सिंह कांप उठते हैं। वह कहते हैं, 'उस समय हम तीनों भाई छोटे-छोटे थे , बहन भी छोटी थी और हम लोग नंदनगरी में रहते थे। 1 नवम्बर को जब माहौल खराब होने लगा तो हमारे पड़ोसी ने हम चारों भाई-बहन को अपने पास रख लिया पर उन्होंने मेरे पिता जी को नहीं रखा। उन लोगों ने हम लोगों के बाल उतार दिए और रजाई के अंदर तह लगाकर बिस्तर के नीचे चुपचाप रहने को कहा। पूरे एक दिन हम लोग इसी तरह रहे। 2 नवम्बर को लोगों ने हमारे घर को घेर लिया और उसमें आग लगा दी। मेरे पिता जी जान बचाने के लिए छत से नीचे कूदे, दंगाइयों ने उन पर मिट्टी का तेल डाल दिया और आग लगा दी। एक तरफ मेरा घर जल रहा था और दूसरी तरफ मेरे पिता जी जल रहे थे। कुछ देर में वहां सिर्फ राख बची थी। मैं उस समय 11 साल का था। मेरे कानों तक उनके चीखने की आवाज आ रही थी। कुछ देर बाद सेना आई तब हम लोगों को पड़ोसी के घर से निकाला गया। मां के साथ हम लोग एक गुरुद्वारे में रुके। फिर वहां से हरिनगर मामा के घर आये। उन्होंने ही हम लोगों को संभाला। मेरे पिता जी सरदार तिरपाल सिंह दिल्ली परिवहन निगम में ड्राइवर थे। बाद में उनकी नौकरी मां को मिली, किन्तु 5 साल बाद वह भी हम भाई-बहनों को छोड़कर इस दुनिया से विदा हो गयीं। बड़े होने के नाते घर की पूरी जिम्मेवारी मुझ पर आ गई। सरकार हमें कुछ मदद नहीं देती है।'
कुलदीप कौर की दास्तान तो और भी भयावह है। वह कहती हैं, 'उस समय मेरा परिवार नांगलोई में रहता था। मेरे पति के गले में टायर डालकर आग लगा दी गयी थी, वे मेरी आंखों के सामने ही तड़प-तड़प कर मर गए। मुझे भी बुरी तरह मारा गया। मैं भागती हुई नांगलोई थाने गयी। वहां पुलिस ने भी मुझे पीटा और भगा दिया। पुलिस ने भी हमारी मदद नहीं की। पुलिस भी दंगाइयों के साथ थी। सिखों का कत्लेआम सरकार ने करवाया है। दंगाई मेरे पड़ोस के थे। सबको मैं जानती हूं। मेरी गवाही से सात लोगों को उम्र कैद की सजा हुई है। उन लोगों ने मुझे गवाही देने से रोकने के लिए करोड़ों रुपये का लालच दिया। अटैची में पैसा भर-भर कर लाते थे। किन्तु मैं पैसे के लालच में नहीं आई। जो दंगाई हैं उन्हें सजा मिलनी ही चाहिए। उनके पास इतने पैसे कहां से आते थे, यह भी जांच का मामला है।'
इन्दर कौर उस वक्त त्रिलोकपुरी में रहती थीं। दंगाइयों ने इनके पति को मार दिया था। अपने छह बच्चों की देखभाल इन्होंने बहुत मुश्किल से की। सरकार ने एक छोटी सी नौकरी दी थी। अब 'रिटायर' हो गयी हैं। 2000 रु. मासिक पेंशन मिलती है। बहुत कठिनाई से गुजारा होता है। घर में कोई कमाने वाला नहीं है। दोनों बेटे इस दुनिया में नहीं रहे, बेटियां अपने-अपने घर जा चुकी हैं। कुछ दिन पहले किसी गाड़ी वाले ने मार दिया है। दायें हाथ पर पट्टी चढ़ी हुई है। दवाई लोगों की मदद से लेती हैं। घर भी जर्जर हो गया है। कोई भी 1984 की बात करता है तो अपने को रोक नहीं पाती हैं। उनकी आंखें डबडबा जाती हैं। गुस्से में कहती हैं, 'मेरा परिवार ही खत्म हो गया। मेरे सरदार जी होते तो मुझे दूसरे के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ती। कांग्रेस की वजह से आज मैं दूसरे से भीख मांग रही हूं।'
तिलक विहार में 750 विधवाओं को बसाया गया है। मनजीत कौर कहती हैं, 'यहां की सभी विधवाओं की एक ही व्यथा है। हमारे बच्चों को शिक्षा नहीं मिल पाई। अब ये बड़े हो गए हैं। कोई फैक्टरी में काम करता है, कोई ऑटो चलाता है, कोई मजदूरी करता है।'
सामाजिक कार्यकर्ता सरदार स्वेटा कहते हैं, 'दंगा पीड़ित लोगों के बच्चों के लिए विभिन्न सरकारी नौकरियों में 'कोटा' तय हो, तभी इनका जीवन-स्तर ठीक हो सकता है, नहीं तो ये लोग यूं ही रह जाएंगे।
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