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संसद का बजट सत्र के दौरान घपलों-घोटालों के खुलासों और जांच को पलीता लगाने की शर्मनाक खबरें ही काफी थीं। सत्र के दौरान ही चीन भारत पर चढ़ आया और प्रधानमंत्री का एक और शर्मनाक बयान आया 'हम इस मामले को तूल नहीं देना चाहते।' पाकिस्तान की जेल मे बंद सरबजीत की हत्या पर भी घड़ियाली आंसू कम पड़ गए। उधर सर्वोच्च न्यायालय की फटकार से कांग्रेस को मुंह छिपाने को मजबूर हो रही थी। इसलिए सत्रावसान के तय दिन 10 मई से दो दिन पहले ही देश के सर्वोच्च सदन का अनिश्चित काल के लिए अवसान किया गया। लेकिन इस समापन के अवसर पर भी बसपा के सांसद शफीकुर्रहमान बर्क ने राष्ट्रगीत का अपमान कर एक और शर्मनाक कृत्य किया। और उसी वोट बैंक को रिझाने, वापस पाने में जुटी कांग्रेस वंदेमातरम् के अपमान और बर्क के राष्ट्रविरोधी कृत्य पर चुप है।
8 मई को संसद के बजट सत्र के समापन की घोषणा होने पर जैसे ही राष्ट्रगीत वंदेमातरम् की धुन बजने लगी तो सभी सांसद सावधान की मुद्रा में स्थिर खड़े हो गए। पर बहुजन समाज पार्टी के संभल से चुने गए सांसद शफीकुर्रहमान बर्क सभागार से बाहर की ओर चल दिए। एक सांसद से ऐसे बर्ताव की लोकसभा अध्यक्ष को भी कल्पना नहीं थी। उन्होंने तुरंत इसेे संज्ञान में लिया और तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। बाद में बर्क ने कहा कि 'वंदेमातरम् का गान इस्लाम विरोधी है और वे एक सच्चे मुसलमान हैं।' चार बार से सांसद और बीसियों बार संसद सत्रों के समापन अवसर पर परम्परा का निवर्हन कर चुके बर्क को वंदेमातरम् में अचानक इस्लाम विरोधी क्या दिख गया कि वे सच्चे मुसलमान दिखने के लिए राष्ट्रगीत का अपमान करने का दु:साहस कर बैठे। उत्तर साफ है-चुनाव। वर्तमान संसद के अधिकांश सदस्यों को लग रहा है कि यह सरकार शायद ही अधिक दिन तक चले। हो सकता है कि अगला सत्र ही न हो पाए। इसलिए सरकार की कोशिश थी कि सत्र के अंतिम दिन खाद्य सुरक्षा बिल पारित करा ले, ताकि उस पर सवार होकर चुनावी नैया पार करा सके, जैसे 2009 से पहले मनरेगा का लाभ मिला था। पर बसपा या बर्क के पास कोई मुद्दा नहीं था। संसद में कुछ किया नहीं, क्षेत्र में कुछ कराया नहीं। इसलिए संभल जैसी मुस्लिमबहुल सीट पर किस मुंह से वोट मांगेंगे। मुस्लिमों के वोट कैसे रिझाएंगे? इसलिए वंदेमातरम् के विरोध का वही घिसा-पिटा राग फिर गा दिया।
इससे पहले वंदेमातरम के शताब्दी वर्ष पर देश भर में एक जबरदस्त उत्साह का वातावरण बना था, तब भी कुछ तालिबान-छाप सेकुलरों ने इसे 'इस्लाम विरोधी' करार दिया था। स्वतंत्रता आंदोलन के जिस गीत ने पूरे राष्ट्र में नवचेतना का संचार किया, जिसे गाते-गाते भगत सिंह और अश्फाक उल्ला खां फांसी का फंदा चूमकर उस पर लटक गए, जो गीत देश की आजादी का मंत्र बन गया था-वह इस्लाम या किसी पंथ का विरोधी कैसे हो गया, इस पर देशभर में तीखी बहस चल पड़ी। कारण तब भी राजनीतिक ही था। तब देश के मानव संसाधन विकास मंत्री थे अर्जुन सिंह। उन्होंने घोषित किया कि राष्ट्रगीत वंदेमातरम् की शताब्दी के उपलक्ष्य में 7 सितम्बर, 2006 को देश के सभी शिक्षा संस्थानों में वंदेमातरम् का सामूहिक गान होगा। कुछ सेकुलरवादियों ने मुद्दा लपका तो अर्जुन सिंह को वोट बैंक याद आया और नया आदेश जारी कर दिया कि राष्ट्रगीत गाने की बाध्यता नहीं है, जिसकी इच्छा न हो वह न गाए। देशभर में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। राष्ट्र के अपमान के विरुद्ध सिर्फ कुछ राष्ट्रवादी संगठन ही नहीं, हजारों हजार देशभक्त नागरिक सड़कों पर उतर आए और जगह-जगह सामूहिक वंदेमातरम् गान के आयोजन हुए थे। पर लगता नहीं कि बर्क जैसे लोगों ने उससे कुछ सीखा हो। दरअसल ये लोग सीखना ही नहीं चाहते, क्योंकि असली वजह इस्लाम या पक्का मुसलमान होना नहीं है। असली वजह सच्चे मुसलमान आरिफ मुहम्मद खान बताते हैं-कुछ लोग प्रचार पाने के लिए बहुत कुछ करते हैं। ऐसे लोगों को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। प्रस्तुति : जितेन्द्र तिवारी
'जिस समय वंदेमातरम् का गान हो रहा था, उस समय एक सम्मानित सदस्य लोकसभा से बाहर जा रहे थे। मैं इसे बेहद गंभीरता से लेती हूं। मैं जानना चाहती हूं कि यह क्यों हुआ? ऐसा दोबारा कभी नहीं होना चाहिए।'
–श्रीमती मीरा कुमार, लोकसभाध्यक्ष
'यह तालिबानी सोच का परिचायक है। जिसे संसद की इस परंपरा में विश्वास न हो, उसे सांसद तो क्या भारतीय नागरिक होने का भी हक नहीं है।'
–मुख्तार अब्बास नकवी, रा.उपाध्यक्ष, भाजपा
'बर्क का कृत्य शर्मनाक है। मौलाना आजाद ने भी वंदेमातरम् को प्रेरणादायक और शिष्ट बताया था।'
–फिरोज बख्त अहमद, शिक्षाविद्
'वन्देमातरम् का विरोध इने-गिने लोग ही कर रहे हैं। अधिकतर मुस्लिम, उनके बच्चे, जो पब्लिक स्कूलों में जा रहे हैं, वन्देमातरम् गाते हैं, उन्होंने कभी इस पर एतराज नहीं किया। ये शिकायत उन नेताओं की हो सकती है जो कहीं न कहीं जिहादी मानसिकता पाले हैं और जो मुसलमानों के प्रवक्ता तो बनते हैं, पर उन्हें मुसलमानों का ही समर्थन हासिल नहीं है।'
–शाहनवाज हुसैन, पूर्व केन्द्रीय मंत्री
'वन्देमातरम् पर इस समय कोई विवाद होना ही नहीं चाहिए था। अगर कोई विवाद था तो वह 1937 में ही सुलझ गया था। इसके बाद भी यदि कोई दल या कुछ लोग उसका विरोध करते हैं तो वे संविधान विरोधी कार्य कर रहे हैं। क्योंकि संविधान सभा ने एक प्रस्ताव पारित कर जन गण मन के समान ही वन्दे मातरम् को राष्ट्र गीत स्वीकार किया है। दरअसल आजादी के आंदोलन के दौरान वन्देमातरम् का विरोध इसलिए नहीं किया गया कि इसमें कहीं मजहब विरोधी बातें थीं, बल्कि इसलिए किया गया ताकि मुसलमान राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा न बनें। इसीलिए मोहम्मद अली जिन्ना ने 1937 में कांग्रेस के साथ बातचीत में जो तीन शर्ते रखीं, उनमें पहली थी कि कांग्रेस मुस्लिम सम्पर्क का काम बन्द करे। वन्दे मातरम् न गाने की शर्त दूसरी थी। जिन लोगों ने यह कहा कि न केवल हमारा मजहब अलग है बल्कि हमारी संस्कृति और परम्पराएं अलग हैं, इसी द्विराष्ट्रवाद के सिद्धान्त के आधार पर अलग देश बनाया, वे आज बहुत पीछे हैं, उनके टुक़डे भी हो गए। जिन्ना की अलगाववादी विरासत को संभाले हुए कुछ लोग उसी सोच को खाद-पानी देने के लिए आज भी वन्देमातरम् का विरोध कर रहे हैं।'
–आरिफ मोहम्मद खान, पूर्व केन्द्रीय मंत्री
'मैं हमेशा यह गीत गाती हूं, गर्व से गाती हूं। हर आदमी को गाना चाहिए। मुझे ऐसा बिल्कुल नहीं लगता कि इसे गाने में मजहब कहीं आड़े आता है।'
–शबनम खान, सामाजिक कार्यकर्ता
'पूरा का पूरा वन्देमातरम् पढ़ लें, एक-एक शब्द पर ध्यान दें, कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि हम अपने खुदा के सिवा किसी और माबूद (ईश्वर) के सामने सिजदा कर रहे हैं। मैं वन्देमातरम् गाती हूं, न केवल व्यक्तिगत रूप से बल्कि सभाओं और सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी गाती हूं। मैं एक हिन्दुस्थानी हूं और प्रत्येक हिन्दुस्थानी का फर्ज है कि वह अपने राष्ट्रीय गीत को जरूर गाए।'
–शबनम शेख, अधिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालय
'वन्दे मातरम् के सन्दर्भ में जो विवाद खड़ा किया जा रहा है, वह हमारी अशिक्षा या सही शिक्षा के अभाव का परिणाम है। मैं बचपन से वन्देमातरम् गाती आ रही हूं और इसे गाते वक्त आज भी मेरा रोम-रोम रोमांचित हो जाता है। मुझे भारतीय होने के नाते वन्देमातरम् पर गर्व है।'
-शहनाज अफजाल, अध्यापिका
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