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स्वामी विवेकानन्द के सेवा-दर्शन से अनुप्राणित एक नहीं, अनेक संन्यासियों की अद्भूत कहानियां हैं। बंगाल के विख्यात उपन्यासकार 'शंकर' लिखते हैं, 'विवेकानन्द के दो शिष्य कल्याणानन्द और निश्चयानन्द ने असम्भव को सम्भव करके दिखाया। गुरु की आज्ञा की कभी अवमानना नहीं की। चीन-जापान युद्ध के समय घायलों की सेवा के लिए 'मेडिकल मिशन' के सदस्य होकर भारतीय डाक्टर कोटनीस चीन गए थे और वापस नहीं लौटे। उनकी जीवन-गाथा जिस पुस्तक में दर्ज की गयी उसका नाम था'- 'लौटा नहीं सिर्फ एक जन'। कनखल की अविश्वसनीय कहानी ने हमें याद दिला दिया कि स्वामी जी के आदर्शों से प्रेरित होकर उनकी इच्छा के प्रति सम्मान ज्ञापित करते हुए एक नहीं कई जन वापस नहीं लौटे। वे गुरु के निर्देश पर बीमार साधुओं के इलाज के लिये फकीर की स्थिति में गए थे। इस अतुलनीय गुरु-भक्त ने 36 वर्ष तक भिक्षान्न ग्रहण करते हुए पीड़ित लोगों की सेवा में जीवन लगा दिया। फिर कभी बेलूर मठ (कलकत्ता) नहीं गये। उपन्यासकार शंकर का कहना शत-प्रतिशत सही है- 'एक नहीं अनेक संन्यासी सेवा कार्य में तल्लीन रहे, पर कलकत्ता नहीं गये। ऐसे थे स्वामी जी के कर्मवीर सेवाधर्मी, समर्पित संन्यासी!'
स्वामी जी की शिष्या मार्गरेट नोबुल ने भारत में आने की इच्छा प्रकट की। स्वामी जी ने 29 जुलाई 1887 को अल्मोड़ा से पत्र लिखा' भारत की सेवा करने से आपका भविष्य उज्ज्वल होगा…यहां जीवन बिताना कष्टकारक है…यूरोप का एक भी सुख-साधन यहां नहीं मिलेगा। मार्गरेट नोबुल पत्र में लिखित चुनौती को स्वीकार करते हुए भारत आयी। उसने हिन्दुत्व को आत्मसात् करके अपने को गुरु के चरणो में निवेदित कर दिया और वे भगिनी निवेदिता हो गयीं। 1898 के प्लेग से ग्रस्त कलकत्ता की मलिन बस्तियों में बीमार बच्चों के मल-मूत्र की सफाई करके अप्रतिम सेवा का आदर्श प्रस्तुत किया। स्वामी जी ने यहां तक मन बना लिया था कि रोगग्रस्त बन्धुओं की सेवा में धन का अभाव हुआ तो बेलूर मठ को बेच दूंगा। यह मेरा धर्म है, मेरे ठाकुर श्री रामकृष्णदेव का तत्वत् आदेश है।
विश्व-विजयी स्वामी विवेकानन्द ने भारत आने पर अलवर में एक धनिक व्यक्ति के यहां भोजन को छोड़कर बुढ़ी मां के घर जाकर रोटी के टिक्कड़ खाना उचित समझा। खेतड़ी की शोभा-यात्रा में पूर्व परिचित चर्मकार भाई को अपने रथ से उतरकर गले लगाया।
इस प्रकार स्वामी जी का सेवा-दर्शन केवल सेवा तक ही सीमित नहीं था, बल्कि समाज के वंचित वर्ग को संस्कार और स्वावलम्बन के पथ पर लाकर खड़ा कर देना भी था। कुछ लोग सेवा से पुण्य कमाने की अपेक्षा रखते हैं। स्वामी जी भावावेष में आकर कहते थें तुम कौन हो सेवा करने वाले! यह नारायण-सेवा कराने के लिए तुम्हारे पास आया है, तुम केवल निमित्त मात्र हो। अपने को सौभाग्यशाली समझो कि तुमको उनकी सेवा करने का सुअवसर मिला है। जीवन की पूर्णता इस बात में मानों कि प्रभु का दिया हुआ उसकी सेवा-हेतु समर्पित है। दान और परोपकार करने पर तनिक सी भी अहंकार गन्ध आना उनकों पसन्द नहीं था। वे मानते थे कि मेरा जन्म राजा रन्तिदेव की तरह केवल दु:खो से संतप्त प्राणियों की व्यथा हरण करने के लिए हुआ है।
स्वामी जी का व्यावहारिक वेदान्त शुष्क नहीं था, बल्कि एक शीतल झरने के समान था, जो प्यासे की प्यास भी बुझाता है और संगीत से आत्मिक आनन्द की अनुभूति कराता है। स्वामी जी सेवक धर्म की आदर्श व्याख्या करते हुए कहते हैं-'सेवक वह है, जो प्रतिफल नहीं चाहता और समाज की सेवा में पूर्णता और आनन्द मानता है। जीव-सेवा में जीवन की सार्थकता है।' स्वामी जी ने अपने जीवन काल में अनेक ऐसे युवक संन्यासी खड़े किये जो अपने को मिटाकर गुरु की भाव-धारा को जीवित रखने मे पूरी आस्था रखते थे। स्वामी जी के शिष्य निश्चयानन्द महाराज ने चालीस वर्ष कनखल के सेवाश्रम को समर्पित किये, परन्तु आज भी उनकी याद दिलाने वाला कोई चित्र सेवाश्रम की दीवार पर नहीं है। ऐसे त्यागी, तपस्वी पुरुष ही समाज के जीवन्त प्राण होते हैं।
स्वामी जी की वेदान्त दृष्टी के अनुसार गरीबी, भुखमरी, बीमारी, भय अशिक्षा, अंधविश्वास के दुर्गुणों से मुक्ति के बिना स्वयं की मुक्ति नहीं हो सकती। स्वामी जी का सेवा-दर्शन राष्ट्र-निर्माण की प्रथम आधार-शिला है। वर्तमान में हमारा देश इन समस्याओं से जूझ रहा है। उनका जीवन-दर्शन वर्तमान भारत के लिए तो आवश्यक है ही, साथ ही भावी भारत का भी मार्ग प्रशस्त करेगा। वास्तविक रूप से पंडित दीनदयाल जी का अंत्योदय और स्वामी जी की सेवा-निष्ठा दोनों को मिलाकर अपने देश की आम जनता को सुखी, संतुष्ट और समुन्नत बनाया जा सकता है। प्रत्येक युवक स्वामी जी के ध्येय वाक्य 'सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय' को लेकर कर्मनिष्ठा से प्रयासरत रहेगा, तो भारत सुखी, समृद्ध और महान् बनेगा। नियति और निश्चय के संयोग से देश की दशा और दिशा में निश्चित परिवर्तन आयेगा। स्वामी जी की सार्द्धशती के पावन अवसर पर भारत माता को आवश्यकता है ऐसे सुपुत्रों, की जो सेवा-भावी, त्यागी और पौरुष सम्पन्न हों। ऐसे ही नर-श्रेष्ठ इतिहास की दिशा को नया मोड़ देंगे।
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