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कोयले का मुद्दा गरम है और सरकार का मुंह राख की तरह सफेद। आप लाख कहते रहें कि सीबीआई स्वायत्त है, मगर यह घोड़ा किस कोड़े से चलता है अब सबके सामने है। सामान्य सी बात–मुलाकात यह नहीं है। यह सरकार की कार्यशैली पर सवाल उठाने वाली, स्वतंत्र भारत के इतिहास के सबसे बड़े घोटालों में से एक की जांच रिपोर्ट तक दबे कदमों से पहुंचने और परिणामों को प्रभावित करने की कोशिश का खुलासा है। जब देश का सबसे बड़ा पुलिस अधिकारी, शीर्ष जांच एजेंसी का मुखिया कह देता है कि वह सरकार से 'बंधा है' तो स्वायत्तता के ढोंग को ढकने के लिए सरकारी बयानों के चिथड़े छोटे ही पड़ते हैं। वैसे, जांच करने वालों को भ्रष्टाचारियों द्वारा अर्दब में लेने की कहानियां सत्ता के गलियारों में दिलचस्पी से सुनी जाती रही हैं। सीबीआई के पूर्व निदेशक यू.एस.मिश्र ने भी पिछले वर्ष एक चैनल से कहा था कि कद्दावर नेताओं के खिलाफ जांच आसान नहीं होती और कुछ लोग दबाव बनाते हैं। कुछ लोगों को तब यह बात खटकी थी। दबाव कैसे बनता है और बात कितनी सच थी अब पूरा देश यह देख रहा है।
सीबीआई जांच का स्तर चाहे जो हो, कार्रवाई के समय का चयन तो संदिग्ध रहा ही है। मुलायम जरा सख्त हुए नहीं कि बेहिसाब संपत्ति मामले में सीबीआई की तेजी से तेवर ढीले। बहनजी ने पल्ला झटकने की कोशिश की तो ताज गलियारे का भूत। हाल–फिलहाल तमिल उत्पीड़न के मुद्दे पर द्रविड़ मुन्नेत्र कलगम ने आंख दिखाई तो अगले दिन करुणानिधि पुत्र स्टालिन सीबीआई राडार पर। क्या इस सरकार ने जांच एजेंसी को विरोधियों के लिए हौवा और अपने भ्रष्टाचार को ढकने का औजार बनाने की ठान ली है? क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का चरित्र इतना गिर गया कि खरी बात, पारदर्शी व्यवस्था और उजले–काले का फर्क करने वाला तंत्र अब सहन नहीं होता?
2जी घोटाले की जांच के दौरान माननीय प्रधानमंत्री ने कहा था, 'सीजर की पत्नी को संदेह से परे होना ही चाहिए…' न्यायालय में पेश किए जाने से पूर्व रिपोर्ट में फेरबदल संदेह नहीं सवाल उठाने वाली घटना है। रिपोर्ट में काटा–पीटी, हेर–फेर जो भी हुआ, हलफनामे में बदलाव की बात ही गोल कर दी गई! मंत्री जी किस नियम के तहत यह सब कर रहे थे? व्यवस्था के पहरुए ही किले में सेंध लगा रहे हैं, ऐसा संदेह अंतत: लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए ही घातक है।
असल में जांच एजेंसी की स्वायत्तता और जबावदेही दो जुड़ी हुई बातें हैं और यहां दोनों ही गड्ड-मड्ड हैं। यह भ्रम जब भी रचा गया, इसे दूर करना अब जरूरी है। सीबीआई की लगाम सरकार थामे, नहीं चलेगा। साथ ही यह भी नहीं चलेगा कि सीबीआई आजादी की आड़ में किसी के प्रति जवाबदेह ना रहे। जांच एजेंसी को विरोधियों की बांह मरोड़ने वाले भूत की भूमिका से बाहर निकालकर संसद के प्रति जवाबदेह बनाना होगा। साथ ही चौकीदार को चोर की कृपा-छाया से भी बाहर निकालना होगा। इस चौकीदार का दर्द दोहरा है। संभवत: सीबीआई की बेबसी और छटपटाहट इसके निदेशक रंजीत सिन्हा के एक वाक्य में सिमट आई है, 'यदि अदालत आदेश दे तो हम जांच के दस्तावेज प्रधानमंत्री सहित किसी को भी नहीं दिखाएंगे।' इन शब्दों में सिर्फ न्यायालय के सामने दी गई सफाई है या सरकारी पंजे से मुक्त कराने की गुहार, इसका निर्णय पाठकों पर।
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