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उनका काम है हल्ला उठाना। और शायद, जहां से माल बने उनके पक्ष में माहौल बनाना। कांग्रेस से, कम्युनिस्टों से उनकी संस्था को पैसा मिला था। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सदस्यता उनकी झोली में है। राष्ट्रवाद से उन्हें शिकायत है, जिसके खिलाफ वे बिगुल फूंकते हैं, मगर आजकल सांस फूली हुई है। कहते हैं झूठ के पांव नहीं होते इसलिए सारा खेल धड़ाम होना ही था, हो गया। तीस्ता सीतलवाड़, उनके सिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस और मतों के ध्रुवीकरण के लिए जहरीले चुनावी विज्ञापन अभियान चलाने वाले 'कम्युनल कॉम्बैट' की कलई उनके करीबी रईस खान ने खोल दी है। और तो और सीतलवाड़ का सच जानने वाले गुलबर्गा सोसाइटी के लोगों ने ही उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। हिमायतदारी की दुकान बंद। छद्म सेकुलरवादियों का सच सामने लाने वाले ये खुलासे कुछ चेहरों पर तमाचे की तरह पड़े हैं। क्या विडंबना है! देश की बजाय वर्ग विशेष की बात करना, सत्ताधारियों के राजनैतिक विरोधियों के विरुद्ध विष वमन करना मुनाफे का सौदा बन गया है। वैसे, संसद से अलग, मंत्रियों से दूर, दायित्वों से परे, प्रधानमंत्री तक को 'अक्ल' देने वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद जैसे मुखौटे किसने और क्यों रच डाले हैं? परदे के पीछे घड़ियाल जो भी हों, आंसू भरी आंखों का सच 'अपनों' ने ही बयां कर दिया है।
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