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विचित्रताओं से भरा समाज तो है ही। एक विचित्रता और विरोधाभास दिखता है कि शादी-ब्याह के अवसर पर जहां रिश्तेदारों का भव्य स्वागत होता है, वहीं उनको भोजन कराते समय खूब गालियां सुनाई जाती हैं। विशेषकर जो समधी (लड़के के पिता) होते हैं। विवाह के दूसरे दिन उनका प्रेम और आदरपूर्वक जेवनार (भोजन कराना) होता है। छप्पन व्यंजन बनाए जाते हैं। कन्या पक्ष के लोग सारा अपनापन और स्वागत का हुनर प्रदर्शित कर देते हैं। बड़े प्रेम से आसन पर बिठाते हैं। समधी के साथ उनके घर के पुरुष और रिश्तेदार भी बैठाए जाते हैं। थाली में भोजन का एक-एक पदार्थ परोसा जाने लगता है। उधर महिलाओं की मंडली गा उठती है-
ये समधी सुनिए
मधुर स्वर गालियां
बहिनी तुम्हारी
बजार बीच नाचे
हमारे भैया बचाते हैं तालियां।
थाली में मधुर स्वाद के भोजन, जिह्वा पर उसका स्वाद और कानों में अपनी मां, बहनों और पत्नी के लिए गालियां। भोजन का स्वाद तो बेस्वाद हो ही जाएगा। पर यह क्या, वे गालियां तो मनभावन लगती हैं समधी परिवार और बरातियों को। कभी-कभी तो गालियां नहीं सुनाई जाने पर समधी नाराज हो जाते हैं। भोजन का स्वाद बिगड़ जाता है। महिलाएं गाती हैं-
समधी गाली न देइछी व्यवहार करईछी
हमर चाचा कुंमार अहां के बहिनी मंगइछी।
महिलाएं इतनी बड़ी गालियां देती भी हैं और तुर्रा यह कि गाली नहीं दे रहीं, सिर्फ व्यवहार कर रही हैं। अपने परिवार में हर पुरुष (विवाहित-अविवाहित) को अविवाहित बताकर उनकी शादी के लिए समधी की रिश्तेदार महिलाएं मांगती हैं। समधी और बाराती के पुरुष मजे ले-लेकर गाली सुनते हैं और भोजन का स्वाद लेते हैं।
रिश्तों के बीच रस्मअदायगी का विधान है। यूं तो मां-बहन की गाली सुनकर कोई भी पुरुष भड़क जाता है। मरने-मारने को तैयार हो जाता है। पर ऐसे शुभ अवसरों पर पुरुषों को गालियां मीठी और मनभावन लगती हैं। भोजन के समय समधी और बरातियों को देने वाली गालियों के कई विषय और भाव होते हैं। जैसे एक गीत की पंक्तियां हैं-
थोड़ा–थोड़ा खाना रे महंगी का जमाना
चावल भी महंगा, दाल भी महंगी,
महंगी है तरकारी रे महंगी का जमाना।
कैसा विरोधाभास है? एक ओर तो भोजन परोसने वाले नौजवान मनुहार कर-करके एक-एक व्यंजन उनकी थली में डालते हैं, दूसरी ओर महिलाएं कहती हैं कि थोड़ा-थोड़ा खाना, क्योंकि सब चीज महंगी है।
ऐसी गालियां गाने वाली महिलाएं भी विशेष होती थीं। यूं तो अपने घर या समाज के पुरुषों से पर्दा करती हैं, लेकिन उनके सामने ही घूंघट के अंदर से गालियों की बौछार करती हैं, जिनमें सब भींगते हैं। रसमय हो जाता है परिवेश।
मेरी दादी बहुत बड़ी गीतगाइन थीं। वे सभी संस्कारों के अवसर पर गाए जाने वाले गीत बड़े मनोयोग से गाती थीं। उन गीतों के भावों में डूबकर कभी हंसती, कभी विसूरती थीं। कभी शब्दों के अर्थ और भावों में डूबकर गंभीर हो जाती थीं।
बारात का दरवाजे पर लगने के समय भी गीतों से स्वागत होता था। दादी के समय के गीत की पंक्ति थीं-
कटिअउक हे बाबा कांची करचिया
मूंनिअउक हे बाबा गलिया खिड़किया
बेटी अपने बाबा से कह रही है कि बांस कटवाइए। टूटे-फूटे घर को ठीक करवाइए। बारात लेकर दुल्हा आएगा तो सबसे पहले हवेली ही तो देखेगा। दूसरे गीत की पंक्तियां हैं-
हम त मांगे अंग्रेजी बाजा,
खुर्दक काहे लाया जी
जूते मारो इस समधी को,
छपरा गांव हंसाया जी
इन दिनों जहां कहीं भी गीत गाए जाते हैं, उनमें से एक है-
दुल्हा आया धूम से, खूब रंग लाया है
'वाइफ' की उम्मीद में 'सिस्टर' को नचाया है।
अब सुनिए और देखिए। इन संस्कार गीतों में भी अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कैसे धड़ल्ले से हो रहा है। एक दूसरा गीत-
वागो–वागो में तमाशा
क्यूं न लाया रे बन्ना
अपने बाबूजी को साथ
क्यों न लाया रे बन्ना
अम्मा रानी को नचाता
क्यों न लाया रे बन्ना (दुल्हा)
सभी रिश्तेदारों के नाम लेकर गाया जाने वाला इस गीत में दुल्हे को भी गाली सुनाई जाती है। मंडप पर ब्याहने आने पर दुल्हे को हर रस्म के समय गालियां सुनाई जाने का रिवाज रहा है। पहले दुल्हे की उम्र छोटी होती थी। मां-चाचियां उन्हें सिखा कर भेजती थीं कि कोई भी रस्म करने के लिए झट से तैयार मत हो जाना। हर बार रूठना। तुम्हें कुछ न कुछ (घड़ी, साइकिल, अंगूठी, चेन) नेग में मिलेगा, फिर रस्म करना। कोई-कोई दुल्हा तो इतना अधिक हठपूर्वक रूठ जाता था कि मनाने के लिए सारे बड़े-बुजुर्ग इकट्ठे हो जाते थे। कोई-कोई नहीं रूठता था। गीतगाइन महिलाएं दोनों स्थितियों में दुल्हे से छेड़छाड़ करती थीं। न रूठने वाले के लिए गीत था-
रूठू न पाहुन हमार हे, वर रूठू–रूठू
अच्छा अम्मा, लागी रूठन लागू
अच्छा पापा देवो इनाम हे,
वर रूठु–रूठु
अच्छा साइकिल लागी रूठन लागू
अच्छा गदहा देबो इनाम हे,
वर रूठु–रूठु।'
न रूठने वाले दुल्हे को भी रूठने के लिए कहा जाता तो है, पर ईनाम क्या मिलेगा। अच्छी मां मांगेगा, तो अच्छा पापा मिलेगा, अच्छी साइकिल मांगेगा तो अच्छा गदहा मिलेगा। कैसी ठिठोली है। सारा परिवेश विहंस उठता है। कोई-कोई दुल्हा बुरा भी मान जाता था। अपने गुस्सैल बेटों को माएं सिखाकर भेजती थीं-'मंडप पर हंसी मजाक होता ही है। तुम बुरा मत मानना।'
कहीं-कहीं जेवर-कपड़ा लेकर भैंसूर (जेठ) आते हैं। मंडप पर बैठकर पंडित जी मंत्र पढ़ेंगे, भैंसूर कपड़ा-गहने चढ़ाएंगे और महिलाएं गाली गाएंगी। इस रस्म को 'कन्या निरीक्षण' कहते हैं। दुल्हे के द्वारा लावा होम के समय भी गालियां सुनाई जाती हैं-
लाबा छिड़िआऊ दुल्हा
बिछि–बिछि खाऊ वर के मइया,
कनिया के पापा एक संग सुताऊ
सिंदूर त लाए दुल्हा डिब्बा में मुंद के
खोल–खोल रे बैताल दुल्हा,
न त गाली देवउ चुन के।
सिन्दूर तो लाए हो, पर इस सिन्दूरदानी को खोलो। नहीं खुला तो तुम्हें चुन-चुन कर गाली दी जाएगी। गाली देने की धमकी भी। सिन्दूरदान के बाद सुहागरात मनाने जिस कमरे में वर-वधू को ले जाया जाता है, उसे बिहार में 'कोहवर' घर कहा जाता है। इस घर में भी दुल्हा-दुल्हन को बैठा कर गीत गाए जाते हैं। दोनों के बीच परिचयात्मक गीत होते हैं। ससुराल में महिलाएं उनके साथ हंसी-ठिठोली करती हैं। एक गीत में बधू अपना परिचय यूं देती है-
बाबा जे हमरो पंडित,
दादी है पंडिताइन
विवाह तो कन्या और वर का होता है, पर इस अवसर पर महिला-पुरुषों का भरपूर मनोरंजन होता है। शुभ का अवसर होता है। यह भी अचंभे की बात है कि महिलाएं स्वयं महिलाओं को ही गालियां देती हैं। कोई बुरा भी नहीं मानता। क्योंकि भाव जो निर्मल होते हैं। देश के हर भाग में थोड़ी-बहुत भिन्नता लिए रिश्तों के बीच गालियां और छेड़छाड़ और ठिठोली होते रहे हैं। इससे रिश्ते बिगड़ते नहीं, रिश्तों में मधुरता ही आती है। मृदुला सिन्हा
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