लोक-सेवा ही लोकेश्वर सेवा
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लोक-सेवा ही लोकेश्वर सेवा

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Apr 27, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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स्वामी विवेकानन्द का सेवा दर्शन (1)

दिंनाक: 27 Apr 2013 12:08:08

यगनायक स्वामी विवेकानन्द का दर्शन भावी भारत के निर्माण की आधार-शिला है। स्वामी जी का व्यक्तित्व बहुआयामी था। स्वामी जी ने समय-समय पर जो विचार व्यक्त किये – वे समाज की मूलभूत समस्याओं से संबंधित हैं। स्वामी जी ने परिव्राजक-रूप में भारत-भ्रमण किया, तो उनके ध्यान में आया कि भारत का पुनर्जागरण अत्यावश्यक है। उनको यात्रा के दौरान आभास हुआ कि हिन्दू-समाज को गरीबी, अंधविश्वास, अशिक्षा, अज्ञानता, ईर्ष्या और कलह के दीमक ने खोखला कर दिया है।

स्वामी जी ने विदेश-यात्रा से लौटने के पश्चात् कोलंबो से अल्मोड़ा तक व्याख्यानों में वेदांत-दर्शन की बात न करके केवल देश-भक्ति और समाज-सुधार पर विचार व्यक्त किये और वे एक आक्रामक और क्रान्तिकारी समाज-सुधारक के रूप में दिखायी दिये।

स्वामी जी ने समाज की दीन-हीन अवस्था को देखकर समाज-सेवा के सूत्र को मौलिक स्वरूप दिया। वे उन समाज-सुधारकों की कटु आलोचना करते थे, जो केवल बाल-विवाह, सती-प्रथा आदि को लेकर दो वर्णों के सुधार की बात करते थे। स्वामी जी का कहना था कि ऊपरी सतह पर तैरने की अपेक्षा समाज-नद के अन्दर डुबकी लगाने की आवश्यकता है। तथाकथित समाज-सुधारक विष-रूपी वृक्ष की जड़ को काटने की बजाय, तने को जलाने की कोशिश में लगे हैं। समाज का सुधार नीचे के तबके से होना चाहिये। सारे देश में समाज-सुधारकों की भीड़ लगी है, परन्तु सब आडम्बर है। स्वामी जी को समाज तोड़कर सुधार करने की पद्धति स्वीकार्य नहीं थी। इसलिए वे कहते थे कि 'मुझे चाहिये आमूलचूल सुधार, मेरा मतभेद सुधारों की पद्धति में है। उनकी पद्धति तोड़-फोड़ की है, मेरी पद्धति निर्माण की है। मेरा विश्वास सुधारों पर नहीं, स्वाभाविक उन्नति पर है।' उस समय कुछ सुधारवादी यह मानते थे कि 'जो कुछ भी हिन्दू-धर्म से संबंधित होगा, वह सब घृणास्पद और त्याज्य है', ऐसा सोचकार वे स्वयं को हिन्दू धर्म से पृथक समझते थे। स्वामी जी ने ऐसे सुधारकों को लताड़ा और कहा कि यह शब्द कहते उनको शर्म नहीं आती कि 'मैं हिन्दू नहीं हूं'। स्वामी जी अपने समाज की परिधि में रहकर ही बुराइयों को इंगित करके उनके सुधार की बात करते थे। उनका हृदय समाज के प्रति इतना संवेदनशील था कि मठ में आने के बाद 'नागपुर हितवाद' के संपादक उनसे मिलने आये। सम्पादक के साथ पंजाब के निवासी एक सज्जन भी पधारे थे जो धर्म, अध्यात्म, मुक्ति आदि गूढ़-विषयों पर स्वामी जी  के विचारों से लाभान्वित  होने की ऊंची-ऊंची आशाएं मन में संजोये हुए थे। किन्तु जब स्वामी जी ने अपने सेवा-दर्शन के अनुरूप उनसे पंजाब प्रदेश में व्याप्त रोगों, दु:खों, आर्थिक  अभावों, पारिवारिक पीड़ाओं, संकटों तक ही  अपनी चर्चा को सीमित रखा, तो उन महाशय को भारी निराशा हुई। वह अपनी हताशा व्यक्त करते हुए  कहने लगे, 'मैं तो धर्म के बारे में आपके उच्च विचार सुनने की उम्मीद से आया था, किन्तु दुर्भाग्य कि सारी चर्चा सामान्य  बातों तक ही सिमट कर रह गयी और मेरा सारा दिन व्यर्थ ही चला गया।' स्वामी जी ने कहा, 'मित्र, मेरी जन्मभूमि का एक कुत्ता भी जब तक भूखा रहेगा, उसे खाना देना मेरा धर्म है, अन्य सब अधर्म है। स्वामी जी की सेवा-दर्शन और व्यावहारिक वेदान्त की भाव-धारा थी- 'जीव सेवा ईश सेवा'। स्पष्ट है कि स्वामी जी का सेवा-दर्शन इतना सतही और सामान्य नहीं है, जितना उसे उन पंजाबी बन्धु ने समझ लिया। स्वामी जी का सेवा-दर्शन लोकधर्मी होते हुए भी अपने मूल स्वरूप में आध्यत्मिक आभा से भास्वर है। स्वामी जी दीन-दु:खियों की सेवा में ही दीनबन्धु की सेवा मानते थे, वे लोक-सेवा में ही लोकेश्वर की सेवा का प्रत्यक्ष अनुभव करते थे। वे परोक्ष परमात्मा के लोक में ही प्रत्यक्ष दर्शन करके कृतार्थ हो जाते थे। दलितों, दु:खियों, दरिद्रों की पीड़ा का परिहार ही उनके लिए सबसे बड़ी पूजा और                  उपासना थी।

स्वामी जी की सेवा और सुधार की परिकल्पना समाज के अन्तिम व्यक्ति तक व्याप्त थी। इस विचार-दर्शन को लेकर ही उन्होंने 'रामकृष्ण-मिशन' की स्थपना की थी। वे कहते थे कि श्री रामकृष्ण देव की शिक्षा और उनके तत्व ज्ञान का अर्थ है- दबे – कुचलों को दरिद्रनारायण मानना। दरिद्र की पूजा शिव की पूजा है। स्वामी जी द्वारा प्रस्तुत चिन्तन कुछ गुरु-बन्धुओं को रास नहीं आया। स्वामी जी का गुरु-भाइयों से सुदीर्घ सम्वाद हुआ। उनके आशय को समझकर अन्ततोगत्वा गुरु-बन्धु कर्मठता और निष्काम कर्मयोग से सेवा कार्य में जुट गये। स्वामी अखण्डानन्द जी ने राजस्थान में शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना करते हुए मुर्शिदाबाद जिले के सारगाछी में आश्रम तथा अनाथालय स्थापित किया। स्वामी जी अखण्डानन्द जी को 'कर्म-वीर' कहते थे। वे मुक्त हृदय से घोषित करते थे- 'देखो! मेरा भाई वीरोचित भाव से निष्काम कर्मयोग में रत है।' स्वामी त्रिगुणातीतानंद ने दिनाजपुर में अकाल-पीड़ितों के लिए शिविर चलाया। उस समय की एक घटना उल्लेखनीय है। स्वामी विरजानन्द कहने लगे-'स्वामी जी! मुक्ति-लाभ होने दीजिए।' स्वामी गरजे- 'बेटा, खुद की मुक्ति के लिए यदि तुमने कोशिश की, तो तुम नरक में जाओगे। यह स्वार्थी आकांक्षा नष्ट कर दो और जन-सामान्य की मुक्ति के लिए खुद को झोंक दो। इससे बड़ा आध्यात्मिक अनुशासन नहीं है।' स्वामी जी कहते थे, 'गुरु, शिक्षक, नेता विवेकानन्द चला गया, बचा है तो वह एक बालक है एक सेवक'।

शेष अगले अंग में (सीतारामव्यास)

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