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माया मुलायम से तो मुलायम केन्द्र से नाराज, ममता, करुणानिधि भी छिटके
साथियों को मनाने में यूपीए के संकटमोचकों को लगाना पड़ रहा है एड़ी–चोटी का जोर
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन में अब न कुछ संयुक्त रहा, न प्रगतिशील और गांठ का बंधन भी कब का खुलकर बिखर चुका है। पर सत्ता की जोड़-तोड़ में किसी भी हद तक जाने को तैयार रहती आई कांग्रेस अब भी देश को इस भुलावे में रखने की जुगत भिड़ाने में जुटी है कि 2014 तक उसकी सरकार की डगमगाती नैया तिरती रहेगी। लेकिन राजनीति के पंडित भरभरा चुके संप्रग के कुनबे के खस्ताहाल देखकर यह कहने लगे हैं कि मध्यावधि चुनाव हो जाएं तो आश्चर्य नहीं।
ममता का गुस्सा
संप्रग के घटक दलों में आपसी सिर-फुटौव्वल इस हद जा पहंुची है कि, कल तक कांग्रेसी 'युवराज' के कसीदे पढ़ने वाले 'सेकुलर' दलों के नेता आज उसी कांग्रेस की खुलेआम पोल खोल रहे हैं, उस पर सीबीआई के नाम पर धमकाने के आरोप लगा रहे हैं। वैसे कलह की असल शुरुआत तो प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सितम्बर, 2012 में उस वक्त कर दी थी जब मनमोहन सरकार ने सुधारों की अपनी नीतियों पर उनकी चेतावनियों के बावजूद कदम वापस खींचने से इनकार कर दिया था। ममता ने तभी केन्द्र सरकार में से अपने तृणमूल कांग्रेस के मंत्रियों के एकमुश्त इस्तीफे देने की घोषणा करके संप्रग सरकार की चूलें ढीली कर दी थीं। हालांकि वित्त मंत्री चिदम्बरम ने यह बात फैलाकर मामला रफादफा करने की कोशिश की थी कि ममता को समझा लिया गया है, लेकिन ममता भी अड़ गई थीं कि कोई बात नहीं हुई। सरकार ने तब मुलायम की सपा और मायावती की बसपा को 'मैनेज' करके न डीजल के दाम घटाए, न कम दाम के रसोई गैस सिलेंडरों की संख्या बढ़ाई और न ही खुदरा क्षेत्र में एफडीआई पर फैसला पलटा। ममता छिटक गईं। दूरियां इस कदर बढ़ती गईं कि बंगाल कर्ज में डूबता रहा, वहां के लिए तय पैसे पर केन्द्र कुण्डली मारे बैठा रहा।
ममता के चढ़े पारे का हल्का सा अनुमान अभी 9 अप्रैल 2013 को योजना आयोग के उपाध्यक्ष के साथ हुई उनकी बैठक के नजारे से लग जाता है, जिसमें ममता गुस्से से तमतमाती हुईं योजना भवन से निकली थीं। आयोग में आते वक्त भी उनके और उनके मंत्री अमित मित्रा से माकपाई छात्र नेताओं ने धक्का-मुक्की की थी। माहौल इतना गर्मा गया था कि शाम को ममता ने प्रधानमंत्री से मिलने जाने से भी मना कर दिया।
मुलायम की तिलमिलाहट
19 सांसदों वाली तृणमूल के किनारा कर लेने के बाद सोनिया पार्टी ने मुलायम की सपा के 22 सांसदों को साथ लिया। मुसलमान वोटों की इच्छुक सपा ने 'साम्प्रदायिक ताकतों को दूर' रखने के नाम पर और मुलायम के खिलाफ अदालतों और जांच के दायरे में आए मामलों पर राहत की कथित सौदेबाजी के बाद सपा ने मौके का फायदा उठाते हुए हाथ को अपना साथ दिया। लेकिन यह नजदीकी गाहे- बगाहे धुंधलाती रही और पिछले दिनों केन्द्रीय मंत्री बेनी प्रसाद के मुलायम को चिढ़ाने वाले बयान के बाद तो सारे बांध टूट गए। मुलायम की बेनी को सरकार से हटाने की मांग की अनदेखी करते हुए कांग्रेस ने अपने मंत्री को अभयदान दे दिया। आखिर मुलायम अपमान का घूंट कब तक पीते? उन्होंने बेनी के साथ साथ कांग्रेस के कच्चे चिट्ठे खोलने शुरू कर दिए। 29 मार्च 2013 को लखनऊ में मुलायम बोले कि बुरे वक्त में उन्होंने संप्रग सरकार का साथ दिया, लेकिन उसके बावजूद कांग्रेस ने सीबीआई को उनके पीछे लगा दिया है। उन्होंने मीडिया को बताया, 'कांग्रेस धमकियां देकर समर्थन लेती रही है। मैंने बुरे वक्त में संप्रग को सहारा दिया, पर कांग्रेस ने सीबीआई को मेरे पीछे लगा दिया।' उन्होंने खीझते हुए कहा कि 'मैंने कभी किसी को धोखा नहीं दिया, जबकि मुझको कई बार धोखा दिया गया।'
कौन नहीं जानता कि तीसरा मोर्चा बनाने की मुहिम में मुलायम अगुआई कर रहे हैं। रही बात धोखे की तो, उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव से ठीक पहले डा. अब्दुल कलाम के नाम पर ममता बनर्जी को पूरा समर्थन देने का वादा किया था, पर प्रेस कांफ्रेंस से ऐन पहले पाला बदल लिया था। कम्युनिस्टों के साथ गलबहियां डालने को मुलायम हमेशा आतुर ही रहे हैं। मुलायम ने कांग्रेस की और कलई खोलते हुए दिल्ली और लखनऊ में बयानों की झड़ी लगाई हुई है। इसमें उनके पुत्र और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी पीछे नहीं हैं। भले ही 30 मार्च 2013 को लखनऊ में अखिलेश को रिझाने के लिए वित्त मंत्री चिदम्बरम ने उनकी तारीफों के पुल बांध दिए, लेकिन अखिलेश सपाई ही तो हैं। सो अभी हाल में एक टेलीविजन चैनल को इंटरव्यू देते हुए उन्होंने कहा, 'कांग्रेस हमें सीबीआई का डर दिखा कर अपने साथ खड़ा नहीं कर सकती। हमने साम्प्रदायिक ताकतों को दूर रखने के लिए संप्रग को समर्थन दिया है और शुरू से ही हमारी यही सोच रही है।' इसी के साथ अखिलेश ने अपनी राजनीतिक कमअक्ली का सबूत देते हुए यह भी कह दिया कि केन्द्र में एक अल्पमत सरकार एक प्रदेश के ऐसे दो क्षत्रपों के सहारे खड़ी है जो एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते हैं। हालांकि अखिलेश ने इसे कांग्रेस की 'राजनीतिक खूबी' के तौर पर कहा था, पर संप्रग के दो घटक दलों में छत्तीस के आंकड़े की पोल भी लगे हाथ खोल गए।
मायावती की बौखलाहट
21 सांसदों वाली बसपा और सपा में किस हद तक वैर है, यह जगजाहिर है। कितने ही मौकों पर बसपा नेता मायावती ने सपा की तरफ से अपनी हत्या का खतरा बताया है। मायावती खुलेआम सपा को 'गुण्डों' की सरकार बताती हैं। लेकिन 'साम्प्रदायिक ताकतों को दूर रखने' के नाम पर संप्रग सरकार की बैसाखी बनती रही हैं और आज भी बनी हुई हैं। उन्हें भी सीबीआई का हौव्वा सताता होगा। ताज कोरिडॉर और उनके भाई की अकूत दौलत के चर्चे अब भी राजनीतिक गलियारों में खूब गूंज रहे हैं। कहना नहीं होगा कि मायावती अगर संप्रग के साथ हैं तो सिर्फ और सिर्फ अदालतों और जांच एजेंसियों के चक्कर लगाने से बचने के लिए। लेकिन सपा के सामने दहाड़ने का कोई मौका मायावती भी नहीं चूकतीं।
14 अप्रैल को अम्बेडकर जयंती पर लखनऊ में सपा सरकार द्वारा बसपा के लगाए बोर्ड हटाए जाने पर त्योरियां चढ़ाते हुए 15 अप्रैल को ही सभा में गरजते हुए मायावती ने कहा, 'उ.प्र. में सपा सरकार राजनीतिक बदले की भावना से काम कर रही है। उनके सत्ता में लौटने पर सपा के 'गुण्डों' को सबक सिखाया जाएगा।'
आपस में ऐसे भीषण शत्रुता रखने वाले दल अगर किसी गठबंधन को सहारा देते हैं तो भी कुर्सी पर काबिज होने की उनकी आस कभी धंुधली नहीं पड़ती। अभी 17 अप्रैल को ही मायावती ने बयान दागा है कि भ्रष्टाचार, मुद्रास्फीति और बेरोजगारी के कारण देश में 'राजनीतिक अस्थिरता' है इसलिए लोकसभा चुनाव वक्त से पहले हो सकते हैं। मायावती सहजता से भूल जाती हैं कि जिस कुनबे की वह सदस्य हैं उसकी खुलेआम छीछालेदर करके वह कांग्रेस को नाराज करती हैं और कांग्रेस वह पार्टी है जो सरकार में सबसे बड़ी है और सरकार के हाथ में सीबीआई है और सीबीआई का शिकंजा कसता है तो जुबान संभल जाती है।
सीबीआई का हौव्वा
कांग्रेस द्वारा सीबीआई के 'निष्पक्ष' इस्तेमाल को कौन नहीं जानता। जब जब उसे समीकरण बैठाने होते हैं वह बिसात पर सीबीआई को एक कदम आगे बढ़ा देती है। 18 सांसदों वाली द्रमुक ने मार्च 2013 में संप्रग सरकार से पल्ला क्या झाड़ा, अगले ही दिन करुणानिधि पुत्र स्टालिन पर जांच एजेंसी ने शिकंजा कस दिया। करों की हेराफेरी के नाम पर स्टालिन के 19 ठिकानों पर छापे मारे गए। मकसद सिर्फ खौफ दिखाना था। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ भी कांग्रेस का खट्टा-मीठा अनुभव रहा है। महाराष्ट्र में भले मजबूरी की सरकार चल रही हो, पर दिल्ली में शरद पवार अपनी ही रौ में बयानबाजी करते हैं। कई बार उनकी वजह से संप्रग की किरकिरी हुई है।
इन पांच बड़े दलों को छोड़कर बाकी जितने भी दल इस संप्रग नाम के कुनबे से जुड़े हैं, संसद में उनके सांसदों की संख्या 2-4-6 से ज्यादा नहीं है। ऐसे में सवाल उठता है कि राहुल के सहारे नैया पार लगाने की उम्मीद में बैठी कांग्रेस के मैनेजर अब कौन सी विदेशी 'मैनेजमैंट' कंपनी जुटाएंगे जो कुनबे की दरार की मरम्मत कर दे?
नेतृत्व पर संशय
2014 के चुनाव के लिए कांग्रेस किसका नाम प्रधानमंत्री पद के लिए आगे करेगी, इसमें संशय है। कभी कोई कांग्रेसी राहुल गांधी का नाम आगे करता है तो कभी कहा जाता है कि मनमोहन सिंह ही 2014 में नेतृत्व करेंगे। पिछले दिनों केंद्रीय दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल ने एक साक्षात्कार में दावा किया कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल हैं, पर मनमोहन सिंह को भी नकार नहीं सकते हैं। कांग्रेस इस हालत में नहीं है कि वह मनमोहन सिंह को नजरअंदाज करे। फिर भी प्रधानमंत्री कौन होगा इसका फैसला चुनाव के बाद होगा। सिब्बल एक वफादार कांग्रेसी के नाते यह कहना भी नहीं भूले कि पार्टी को नेतृत्व देने में गांधी परिवार की अहम भूमिका रहती है। आलोक गोस्वामी
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