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सड़कों पर फिर खूनी खेल चला। बोस्टन से बेंगलूरू तक बारूद की गंध है। दिलों को चीर देने वाली चीखें उठीं। मगर कुछ लोग हैं जो चहक रहे हैं। ट्विटर पर, फेसबुक पर शैतान खुश हैं। दुनिया में दो जगहों पर आतंकी हमला हुआ मगर इस दौरान एक पक्ष ऐसा भी दिखा जो मानवता के जख्मों पर मुस्करा रहा था।
कर्नाटक में सोलह लोगों को लहूलुहान करने वाला विस्फोट सत्ताधारी दल से जुड़े किसी 'अहमद' को राजनीतिक लाभ दिलाने वाला 'शिगूफा' लगता है। अमरीका में दोहरे धमाकों की खबर पोस्ट करते ही किसी 'ओवैसी' को बावले लोग मुबारकबाद देने लगते हैं।
धमाके किसी सीमा पर नहीं हुए, किसी युद्ध में नहीं हुए। आतंकी हमलों के पक्ष में हंसने वाले, बधाइयां देने वाले, चुहलबाजियां करने वाले यह कौन लोग हैं। बोस्टन में तालिबानी हाथ हो या जमात… बेंगलूरू विस्फोट मदनी नेटवर्क की कारिस्तानी हो या इंडियन मुजाहिदीन की…जो भी हो, बंधुओं के बहते रक्त पर, मानवता की हत्या पर हंसने–खिलखिलाने की सीख, संवेदनहीनता का सबक कौन पढ़ा रहा है और कौन लोग हैं जो दिलों को बेधती–बांटती इन बातों को आगे बढ़ा रहे हैं? इनकी डोरियां किन हाथों में हैं?
क्या किसी जानलेवा विस्फोट पर सिर्फ इसलिए बधाई दी जाएगी कि निशाना अमरीका है? क्या किसी धमाके को सिर्फ इसलिए हल्के में लिया जाएगा कि निशाना विपक्षी दल है? इतनी विकृति, सत्ता का ऐसा मद, इतना वैमनस्य! कुछ लोग कह रहे हैं, छोड़ो, बेवकूफ हैं, अपनी दुकान जमाने को, नजरों में चढ़ने को उतावले हैं, ऐसे मौकों पर उछलते ही हैं। मगर नहीं, चुप नहीं रहा जा सकता। बेवकूफ कहकर माफ भी नहीं किया जा सकता क्योंकि यह लोग, इनकी बातें भारतीय नहीं लगतीं।
आतंकी थरर्ाहट में चुनावी आहट देखने वाले, मैराथन में पसरे मातम पर तालियां पीटने वालों का यह व्यवहार क्षम्य नहीं है। पीड़ितों के लिए सहज ही द्रवित होने वाला हृदय, अत्याचार के विरुद्ध खौलने वाला रक्त यही तो दुनिया में हमारी पहचान है। ऐसे बयानों के बीच लगता है जैसे हमारे ही बीच, इसी भारतीय रक्त में कोई पराया सा परपीड़क विषाणु आ बैठा है। सदियों से संजोई पावन परम्परा, विश्वबंधुत्व का भाव, सबको यह विषाणु चट करना चाहता है।
वैद्यक के अनुसार, व्याधि का उपचार ठीक से और समय से होना चाहिए अन्यथा शरीर बीमारियों का घर बन जाता है। सो, राष्ट्ररूपी शरीर को स्वस्थ रखने के लिए इस विष का शमन, रक्तदोष का निवारण आवश्यक है। घुट्टी कड़वी लगे मगर पीनी ही होगी। तंत्र में बदलाव लाना जरूरी हो चला है। पूरा तंत्र बदलना पड़ेगा ऐसा सोचना गलत है। तत्व को बदलेंगे तो सब ठीक होगा। तंत्रिकाओं में घुसते विष की काट राष्ट्रवादी तत्व में है। भारत रूपी वटवृक्ष पर कोई जहरीली बेल नहीं चढ़ेगी, कुर्सी के करीब रहकर भारतीयता भुला बैठे लोग आगे नहीं बढ़ेंगे। इस व्याधि का हल पूरा देश मिलकर निकालेगा। ऐसा मेरा विश्वास है।
एक छंदबद्ध प्रण, ऐसी स्थिति में राह दिखाती दो पंक्तियां आज बेहद प्रासंगिक हो उठी हैं–
जो फैल रही है आंगन में विषबेल कुचलकर मानेंगे,
जो सत्तामद में भरा हुआ वह कुंभ फोड़कर मानेंगे।
यह प्रण सवा अरब भारतीय मिलकर एक साथ लें तो राष्ट्रद्रोही विषाणु का विनाश सुनिश्चित है।
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