भ्रष्ट पादरी, पीड़ित नर्सें

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स्वतंत्र भारत में ईसाईकरण के घिनौने प्रयास

दिंनाक: 15 Apr 2013 11:52:19

 

नवम्बर, 1999 में भारत की राजधानी दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में पोप जान पाल द्वितीय ने भारत में ईसाईकरण का अपना एजेण्डा घोषित किया, 'हम ईसा की पहली सहस्राब्दी में यूरोपीय महाद्वीप को चर्च की गोद में लाये, दूसरी सहस्राब्दी में उत्तर और दक्षिण महाद्वीपों व अफ्रीका में चर्च का वर्चस्व स्थापित किया, अब तीसरी सहस्राब्दी में भारत सहित एशिया महाद्वीप की बारी है।' इसके लिए उन्होंने 'भारत में मतांतरण पर पूरी ताकत लगाने' का आह्वान किया। पोप का उक्त आह्वान भारतीय हिन्दुओं के लिए कोई नया नहीं था। स्वतंत्रता से पूर्व भारतीय समाज इस चुनौती को झेल चुका था।

ऐसे बढ़े ईसाई

वास्कोडिगामा पहला यूरोपीय था जो 1498 में चोरी से भारत में घुस आया था। 1505 ई. से उसने गोवा में छल-कपट से भारत में ईसाईकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ की। पुर्तगाली गोवा को 'पूरब का रोम' बनाना चाहते थे। अत: सैकड़ों हिन्दू मन्दिरों को नष्ट कर अपने गिरिजाघरों की स्थापना की। हजारों भारतीयों को जबरदस्ती ईसाई बनाया। रिचर्ड बर्टन ने लिखा कि, 'सोने का गोवा शीघ्र ही भूतों का शहर बन गया।' गोवा में ईसाई बनाने की प्रक्रिया योजना ढाई सौ वर्षों (1560-1812 ई.) तक चलती रही।

अगला दौर 1760 से प्रारम्भ हुआ, जब ईस्ट इंडिया कम्पनी का बंगाल पर कब्जा हो गया। ब्रिटिश पादरी पहले नाम बदलकर, बाद में पादरियों की सेना के रूप में भारत पहुंचे। जबरन व मनमाने ढंग से मतान्तरण कराया। 1813 ई. में कोलकाता में पहला बिशप टी.एफ. मिडिलटन भारत पहुंचा। इन मिशनरियों को सरकारी संरक्षण मिला। 1857 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के अध्यक्ष आ.टी. मैंगल्ज ने कहा- 'परमात्मा ने हिन्दुस्थान का विशाल साम्राज्य इंग्लैण्ड को इसलिए सौंपा ताकि हिन्दुस्थान में एक सिरे से दूसरे सिरे तक ईसा मसीह की विजयी झण्डा फहराने लगे।' परन्तु भारतीयों ने धर्म की रक्षा के लिए महासंग्राम किया। अत: न तो अंग्रेज भारत का पूरी तरह मतान्तरण कर ईसाई देश बना सके और न ही भारत को अपना स्थायी निवास।

पूरी तरह ब्रिटिश शासन स्थापित होने के बावजूद मतान्तरण की गति कम रही, पर निरन्तर चलती रही। अंग्रेजों ने दूरस्थ क्षेत्र में बस वनवासियों-जनजातियों का तेजी से मतान्तरण कराया। इसी बीच भारत के अनेक समाज सुधारकों, जैसे स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द, लाल हरदयाल, राम सिंह कूका आदि ने स्वधर्म का गौरव बढ़ाया तथा ईसाईयों द्वारा मतान्तरण को बहुत हद तक रोका।

बीसवीं सदी में लोकमान्य तिलक, डा. अम्बेडकर तथा महात्मा गांधी ने भी विदेशी पादरियों के भारत आगमन तथा मतान्तरण का कड़ा प्रतिरोध किया। गांधीजी छल-कपट, लालच देकर अथवा जबरदस्ती मतान्तरण के कट्टर विरोधी थे। 1931 ई. में वे एक बार रोम के पोप से भी मिलने गए थे। परन्तु भारतीय पादरियों ने पहले ही पोप को सूचित कर दिया था, अत: पोप उनसे नहीं मिले। गांधी जी ने एक बार लिखा, '5000 विदेशी फादर (पादरी) प्रतिवर्ष 20 करोड़ रुपया भारत के हिन्दुओं के मतान्तरण पर खर्च करते हैं। अब विश्वभर के 30,000 कैथोलिक आगामी नवम्बर, (1937) में मुम्बई में इकट्ठे होंगे। जिनका लक्ष्य अधिक से अधिक भारतीयों पर विजय पाना हैं'। (देखें- हरिजन, 6 मार्च 1937) गांधी जी ने इसाईयत को 'बीफ एण्ड बीयर बाटल्स क्रिश्चयनिटी' कहा। नेहरूइंदिरा का सहयोग

भारत की स्वतंत्रता के बाद 20वीं शताब्दी का उत्तरार्र्द्ध ईसाई गतिविधियों के लिए असली स्वतंत्रता का काल रहा। इसमें न केवल ईसाई जनसंख्या में आश्चर्यजनक व तेजी से बढ़ोत्तरी हुई बल्कि विदेशी धन तथा पादरियों को अनेक संगठन भी उभर आए। भारतीय संविधान से अर्न्तगत धर्म की स्वतंत्रता का दुरुपयोग, पंडित नेहरू तथा इन्दिरा गांधी की हिन्दुत्व के प्रति अलगाव तथा प्रतिरोध की नीतियों, 'सेकुलर' शब्द की मनमानी व्याख्या ने मिशनरियों को बल दिया। तेजी से बढ़ाने के लिए प्रेरिक किया।

विश्व से ईसाई मिशनरियों तथा संगठनों द्वारा छल-कपट, प्रलोभन तथा जबरदस्ती मतान्तरण की सचाई को सरकार द्वारा 14 अप्रैल, 1955 को गठित डा. भवानी शंकर नियोगी आयोग ने भी साफ किया। इस आयोग में सात सदस्य थे, जिनमें एक ईसाई सदस्य भी था। 1956 ई. में इस आयोग ने 1500 पृष्ठों की विस्तृत रपट प्रस्तुत की थी। आयोग ने म.प्र. के 26 जिलों के 700 गांवों के लोगों से साक्षात्कार किया। आयोग ने मतान्तरण के अनेक भ्रष्ट तथा अवैध तरीकों का भण्डाभोड़ किया। मतान्तरण की सबसे प्रेरक शक्ति विदेश धन बतलाया, जिसका छोटा सा अंश ही भारतीय स्रोतों से प्राप्त होता है। आयोग ने अनेक सुझाव दिए। आयोग ने कहा कि ईसाइयों ने न केवल अलगाव बढ़ाया बल्कि स्वतंत्र राज्य की मांग भी इसके पीछे दिखलाई पढ़ती है।

पोप की भारत यात्राएं

उल्लेखनीय है कि पोप ने महात्मा गांधी से मिलने से इनकार कर दिया था। उन्हीं पोप के अनुयायियों ने 1963 में कन्याकुमारी में स्थित स्वामी विवेकानन्द स्मारक की पट्टियों को भी उखाड़ फेंका था, उन्हीं पोप का भव्य स्वागत में नवम्बर, 1964 में मुम्बई में 38वें यूक्राईटिक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन भारत की सेकुलर सरकार द्वारा किया गया। यद्यपि वे वेटिकन सिटी के राष्ट्राध्यक्ष के रूप में नहीं बल्कि ईसाई पोप के रूप में  भारत आए थे। उनके साथ 25,000 विदेशी पादरी भी विभिन्न देशों से भारत आए। मुम्बई के पत्र 'विल्ट्ज' ने इस सरकारी स्वागत का विस्तृत वर्णन किया है। (देखें 12 दिसम्बर, 1964 का पत्र।) यह वही पोप थे जिन्होंने पं. नेहरू की पुस्तक गिल्म्सेज आफ वर्ल्ड हिस्ट्री' को केरल को पाठयक्रम से हटवाया था। पोप ने अपने भाषण में मुख्यत एक ही बात कही, 'विश्व से केवल एक ही धर्म सच्चा है, और वह है ईसाईयत।' 'क्रिश्चियन अवैक' नामक पत्रिका ने लिखा, 'जब ईसाइयत तथा देश की वफादारी में टकराव हो तो निश्चय ही सच्चे ईसाई को ईसा की आज्ञा माननी चाहिए। (देखें 15 फरवरी, 1965 का विल्ट्ज।)

यही पोप दूसरी बार नवम्बर, 1999 में भारत आए। इसी बीच भारत में ईसाईयों की गतिविधियां काफी तेजी से बढ़ीं। उदाहरण के लिए, इंडियन इवेंजिलिकल टीम (दिल्ली) ने 2000 तक भारत में 2000 नए चर्च बनाने का लक्ष्य रखा। उसने अगले 300 वर्षों में भारत के एक ईसाई राष्ट्र बनाने का भी उद्देश्य रखा। उन्होंने भारत के प्रत्येक ग्राम, शहर और कस्बे को ईसाईयत के अनुयायियों से भरने को कहा। उस काल की विविध ईसाई संस्थानों द्वारा करोड़ों रुपए के व्यय का विवरण मिलता है। तत्कालीन ईसाई जनसंख्या का अनुमान केवल सरकारी आकड़ों से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर नहीं लगाया जा सकता। क्योंकि भारत में को 'क्रिप्टो क्रिश्चियन' की जनसंख्या बहुत है। उन्हें 'सीक्रेट बिलीवर्स' भी कहते हैं। ये छद्मवेशी हिन्दू हैं परन्तु कार्य ईसाइयत के लिए करते हैं। इनको ईसाई जनसंख्या में नहीं जोड़ा गया है। अत: पोप के भारत आते ही 21वीं शताब्दी से भारत का एक ईसाई बनाने का लक्ष्य पहले ही घोषित कर दिया।

समय की मांग

इसलिए यह नितांत आवश्यक है कि पंथनिरपेक्ष भारत में अनेक ईसाइयों की धर्म विरोधी, समाज विरोधी तथा राष्ट्रविरोधी क्रियाकलापों की किसी न्यायिक आयोग द्वारा गंभीर जांच हो। या तो नियोगी आयोग के सुझावों को लागू किया जाए- जैसे राष्ट्रीय ईसाइयों के अलावा विदेशी पादरियों को देश से  निकाला जाए, लोभ लालच, धोखे अथवा जबरदस्ती से मतान्तरण पर कड़ा प्रतिबंध लगे। विदेशी धन को ईसाइयत के प्रचार पर व्यय से रोका जाए। ईसाइयों के स्कूलों-अस्पतालों की जांच हो तथा उनको देश की राजनीति से अलग रखा जाए। दुराचारी पादरियों के लिए भी कठोर नियम बनाए जाएं। साथ ही यह भी आवश्यक है कि भारत में क्रिप्टो क्रिश्चियन या 'सीक्रेट बिलीवर्स' का पता चलाया जाए ताकि 'हिन्दू नाम' से काम करने वाले विदेशी पादरियों तथा पोप भक्तों, नौकरशाहों तथा राजनीतिज्ञों का पता चल सके। राष्ट्रीय एकता, अखण्डता तथा सुदृढ़ता के लिए यह अति आवश्यक है। डा.सतीश चन्द्र मित्तल

 

भारत में बिखरे अनेक ईसाई पादरियों का पाखण्ड उनके द्वारा चलाए जा रहे कान्वेंट स्कूलों तथा अस्पतालों से भी सामने आता है। देश-विदेश में इनका रहस्योद्घाटन होता रहा है। जैसमी नामक एक 'सिस्टर' ने अपनी आत्मकथात्मक पुस्तक 'अमन: द आटोब्रायोग्राफी आफ ए नन' (पेंगुइन, 2009) में इसके प्रत्यक्ष अनुभव दिए गए हैं। इसमें पादरी द्वारा प्रत्येक लड़की या लड़के का चुम्बन लेकर साक्षात्कार करना, नर्सों में से भेदभाव करना, होने वाली नर्स से पादरी द्वारा जबरदस्ती करना, नर्सो पर चंदा लाने के लिए दबाव डालना आदि का विस्तृत वर्णन है। शारीरिक प्रेम का पाठ पढ़ाना तथा उसे ग्रन्थों द्वारा उचित ठहरना पादरियों का छिपा एजेण्डा रहता है। जैसमी का मत है कि चर्च में भी सभी चीजें गुप्त हैं, न कोई पारदर्शिता है, न हिसाब -किताब है, सही अर्थ में नर्सें पादरी की गुलाम होती हैं।

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