सम्पादकीय:नर्क का नाम पाकिस्तान
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सम्पादकीय:नर्क का नाम पाकिस्तान

by
Apr 15, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 15 Apr 2013 11:47:53

जब भी सुनते हैं उस ओर से बुरी खबर ही आती है। दुनिया में पाकिस्तान का होना मानवता पर आशंका के काले बादलों का घिरा रहना है। सैन्य सनक, उद्दंडता और इस्लामी असहिष्णुता की बिजली कभी भी, कहीं भी, किसी पर भी गिर सकती है। इस मुल्क की नींव भले ही अच्छाई और पवित्रता के नाम पर रखी गई लेकिन बीज हमेशा नफरत का ही बोया गया।

पाकिस्तान से हाल में आया हिन्दू तीर्थयात्रियों का जत्था पाकिस्तान के अत्याचारी प्रशासन और अल्पसंख्यकों को निगलते भयावह समाज जीवन की त्रासद कहानियां लेकर आया है। धार्मिक असहिष्णुता के ऐसे उदाहरण कि सुनें तो कलेजा कांप उठे। ऐसा समाज, ऐसा राष्ट्र इस सदी में वास्तव में हो सकता है!! समाज में मजहबी कट्टरता का जहर ऐसा फैला है कि आज अल्पसंख्यक कैसे भी हो यह देश छोड़ देने को छटपटा रहे हैं। आंसुओं में डूबी एक मां कलेजे पर पत्थर रख अपने तीन दिन के दुधमुंहे को छोड़ आती है! पैसे कम हैं, पूरा परिवार नहीं जा सकता, सो, बिलखते मां–बाप अपने छोटे–छोटे बच्चों को ही भारत जा रहे काफिले के साथ रवाना कर देते हैं। हम ना सही तुम तो बचोगे। एक बूढ़ी अम्मा, जीवन के आखिरी पड़ाव पर नम आंखें लिए अपने कुनबे, अपनी मातृभूमि छोड़ देती है।… पाकिस्तान में मानवाधिकारांे का हाल बताती रक्तरंजित पोथी के ये कुछ पन्ने हैं।

असल में पाकिस्तान वैश्विक समस्या बन चुका राष्ट्र है। बात चाहे अल्पसंख्यकों के मानवाधिकार की हो या आतंक पर नकेल की। बात हद से बाहर जा चुकी है। हिन्दू शरणार्थी भारत से आस बांधे हैं तो ईसाई और शिया अल्पसंख्यकों की दारुण स्थिति यूरोप और ईरान को बेचैन किए है। चुनावी प्रक्रिया हो या न्याय की लड़ाई, लोकतंत्र के छद्मावरण में यहां ऐसी स्थितियां रची गई हैं कि गैर मुसलमानों के लिए यह जमीन नर्क होकर रह गई है।

पाकिस्तानी संविधान की धारा 62 और 63 अल्पसंख्यकों के निर्वाचन अधिकारों पर ग्रहण की तरह हैं। इन धाराओं की छलनी से निकला सच्चा मुसलमान ही मजलिस–ए–शूरा यानी संसद की तरफ कदम बढ़ा सकता है। अल्पसंख्यकों को जहां भारत में खास 'राजनीतिक दुलार और दर्जा' मिला वहीं पाकिस्तान में निर्ममता से इनके अधिकारों और आवाज को कुचल दिया गया। यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि 1994 तक हिन्दुओं को पाकिस्तान में मतदान का अधिकार तक नहीं था। अपमान, असमानता और अधिकारों से वंचित किए जाने का यही सिलसिला आपराधिक कानूनों के संबंध में भी है। पाकिस्तानी दंड संहिता के 'क्यास' (आंख के बदले आंख) तथा 'दियात' (खून के बदले खून) कानूनों के अनुसार अगर कोई मुस्लिम किसी अल्पसंख्यक की हत्या कर दे तो हत्यारा कुछ पैसा देकर समझौता कर छूट सकता है, लेकिन अगर किसी अल्पसंख्यक ने हत्या की तो उसे सजा–ए–मौत मिलना तय है। हद नामक कानून के मुताबिक किसी अल्पसंख्यक की गवाही भी सिर्फ तभी मान्य है जब पीड़ित भी उसी वर्ग का हो।

विभाजन के वक्त दावा था कि बराबर का हक मिलेगा। मगर आजादी के 66 साल बाद भी पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के हिस्से बर्बादी और बदनसीबी ही आई है। कितने मंदिर तोड़े गए इसका हिसाब भारत को नहीं मिलेगा। ईशनिंदा के झूठ ने कितने 'मसीह' मार डाले इसका जवाब यूरोप को नहीं मिलेगा। कराची में कोई शिया डाक्टर क्यों नहीं दिखता, इसका जवाब ईरान को नहीं मिलेगा। 'सिविल सोसाइटी' और समझदारों की दुनिया को उस ओर से कोई जवाब नहीं मिलेगा क्योंकि पाकिस्तान पर मजहबी पागलपन सवार है।

दिल्ली के बिजवासन स्थित एक घर के आंगन में हिचकियों को रोकती, सिसकियां भरती महिलाओं की आंखों में दुनिया से पूछने को दुनियाभर के सवाल आंसुओं की शक्ल में उमड़ रहे हैं। एक महिला कहती है, 'सुना है मनमोहन सिंह जी अल्पसंख्यकों के बड़े हिमायती हैं, वो हमारी बात सुनेंगे?'

वैसे, प्रधानमंत्री जी, आप भी तो पाकिस्तान से ही आए थे। इन दुखियारों की बात सुनने की फुर्सत निकाल लेते तो दिलों को ठंडक मिलती। शैतान को भी पता चल जाता कि शरणागत की रक्षा करने वाला धर्म कहीं जिंदा है। …मगर छोड़िए, हम भी क्या हैं कि आपसे कुछ करने की उम्मीद लगा रहे हैं।

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