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नाटो के नेतृत्व में 'इंटरनेशनल सिक्यूरिटी असिस्टेंस फोर्स' के हटने के बाद के परिदृश्य में अफगानिस्तान के आस-पास के देश तालिबान की संभावित भूमिका के बारे में अपने-अपने आकलन के बारे में एक दूसरे से बात करने लगे हैं। उनकी प्रतिक्रियाओं का इस क्षेत्र पर कितना असर पड़ेगा, यह तो इस बात पर निर्भर करेगा कि खाली हुए स्थान को पाकिस्तान किस प्रकार भरने की कोशिश करता है। चीन की हाल की कूटनीति से संकेत मिलते हैं कि तालिबान की वापसी से वह परेशान लगता है और वह ऐसी भूमिका अदा करने के पक्ष में है जिससे अफगान मामलों के केंद्र में अत्यंत कट्टरपंथी तत्वों को उभरने से रोका जा सके। उसे उईगर विद्रोह से त्रस्त अपने अशांत झिनजियांग प्रांत में विद्रोह के और भड़कने का डर है। अब, जबकि चीन को ब्लूचिस्तान में ग्वादार बंदरगाह पर नियंत्रण मिल चुका है, उसे पाकिस्तान के भीतरी प्रदेश में एक हद तक स्थिरता की जरूरत है, ताकि वह अपने वाणिज्यिक, ऊर्जा सम्बंधी और राजनीतिक एजेंडे का भरपूर इस्तेमाल कर सके, जिसके लिए वह इतने दिनों से बड़ी मेहनत कर रहा था।
अफगानिस्तान के मामले में भारत के साथ बातचीत करने के संकेत देने के पीछे चीन का निश्चित ही कोई ठोस कारण रहा होगा। अफगान लोगों के साथ पुराने सड़क सम्पर्क वाले देश के रूप में भारत की छवि अफगान लोगों में बड़ी ही मैत्रीपूर्ण है। उस पर तालिबान और अल कायदा के प्रभाव का कोई असर नहीं पड़ता। अफगानिस्तान में सोवियत संघ की मौजूदगी पर अलग दृष्टिकोण के बावजूद, उसे कभी भी दोनों देशों के बीच सदियों पुराने सम्बंधों को भुलाते नहीं देखा गया। पाकिस्तान जरूर इस मामले में अड़गे डालता रहा है और अभी भी वह तालिबान की मदद से अफगानिस्तान में अपनी सामरिक पैठ बनाने के सपने देख रहा है। अफगानिस्तान में अपने कब्जे के दौरान अपने अनुभव से सोवियत संघ के उत्तराधिकारी, रूसी फेडेरेशन के रुख में भी नरमी आई है और शायद उसे काबुल में विजयी तालिबान की वापसी में चेचेन्या में फिर अशांति फैलने की संभावनाओं का अच्छी तरह आभास है। वह भी अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई को सैन्य उपकरणों के बारे में लगातार सहायता के आश्वासन दे रहा है।
पर अफगान चिंता में सभी बातों में सबसे महत्वपूर्ण बात उभर रही है चीन-भारत सद्भाव। यह एक महत्वपूर्ण पैमाना होगा, जिससे अंदाजा लगाया जा सकेगा कि अफगानिस्तान के भीतर और भारत के खिलाफ जिहादियों को हथियार के रूप में पाकिस्तान को किस हद तक छूट दे सकता है चीन। चीन ने शंघाई कोआपरेशन आर्गेनाइजेशन की स्थापना में बड़ा जोश दिखाया है, जो आतंकवाद के विरोध का एक सक्रिय मंच है। अफगानिस्तान के बारे में भारत की चिंताओं को दूर किया जा सका, तो इससे बड़ा ही सुखद संकेत जाएगा कि चीन इस क्षेत्र में भविष्य में शांति बनाए रखने में अपने साथी पाकिस्तान पर भी लगाम कसने को तैयार होगा।
चीन को मालूम है कि पाकिस्तान से यह उम्मीद करना कि वह अटारी-वाघा सीमा के रास्ते भारत को अफगानिस्तान तक निर्बाध मार्ग देने पर राजी हो जाएगा, लगभग बेमानी है। अगर चीन, सही मायनों में, इस क्षेत्र में शांति कायम करने का इच्छुक है तो उसे दिखाना होगा कि प्रस्तावित वार्ता को सार्थक बनाने में वह किस हद तक जा सकता है।
जहां तक भारत का सवाल है, अगर चीन भारतीय माल और सेवाओं को काबुल तक पहंुचाने के लिए किसी वैकल्पिक मार्ग की संभावना खोजने के लिए राजी हो जाता है, तो चीन के नेक इरादों के बारे में आश्वस्त हुआ जा सकता है। पाकिस्तान से अलग अक्सई चिन के रास्ते वाखान गलियारे से अफगानिस्तान तक सम्पर्क मार्ग बनाने से सिद्ध हो सकेगा कि चीन, पाकिस्तान के इस क्षेत्र में आतंकवाद में लिप्त होने के बावजूद (चीन के अपने झिनझियांग इलाके में भी) उसे पूरी तरह मदद की अपनी नीति से हट सकता है। बीजिंग को साबित करना होगा कि इस्लामाबाद को यह संदेश दिया जाना जरूरी है कि बस, बहुत हो चुका। अन्यथा, भारत के साथ प्रस्तावित वार्ता, भारत-चीन सीमा वार्ता की तरह नाकाम साबित होगी।(अडनी)
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