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हमारी दृष्टि में भारत की वर्तमान दु:स्थिति के लिए कोई दल विशेष या नेतृत्व पूर्णतया जिम्मेदार न होकर दल और वोट की वह राजनीतिक प्रणाली जिम्मेदार है, जो ब्रिटिश संसदीय प्रणाली का अंधानुकरण है। इस प्रणाली ने राष्ट्रीयता की भावना को दुर्बल बनाया है। जाति, क्षेत्र और सम्प्रदाय की संकीर्ण निष्ठाओं को सुदृढ़ किया है। सामाजिक विखंडन को बढ़ाया है, और चरित्र-भ्रष्ट, अवसरवादी तथा सत्तालोलुप नेतृत्व को ऊपर फेंका है। पर जब तक हम पतनकारी व्यवस्था का कोई स्वस्थ विकल्प ढूंढने की स्थिति में नहीं आते, तब तक राष्ट्रहित में राजसत्ता का उपयोग इसी संवैधानिक व्यवस्था के भीतर करना होगा, इस दृष्टि से आगामी लोकसभा चुनावों का अपना एक महत्व है।
पद एक, दावेदार अनेक
यदि वर्तमान गठबंधन सरकार जोड़- तोड़ के द्वारा अपना कार्यकाल पूरा कर पायी तो लोकसभा चुनाव 2014 में होंगे। किन्तु पिछले एक-डेढ़ साल से मीडिया में एक ही सवाल छाया हुआ है कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा? प्रधानमंत्री पद के आकांक्षी अनेक नाम उछाले जा रहे हैं। कोई तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता का नाम लेता है तो कोई बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का। कोई भाजपा की 17 साल से सहयोगी पार्टी जनता दल (यू) के नीतीश कुमार का नाम लेता है तो कोई केन्द्र में सत्तारूढ़ यूपीए के घटक एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार का। उत्तर प्रदेश के सपा नेता मुलायम सिंह यादव और बसपा नेता मायावती ने तो खुलेआम अपने को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया है। पर सब जानते हैं कि सबसे बड़े दल होने के कारण केन्द्र में सत्ता के दो मुख्य दावेदार भारतीय जनता पार्टी व सोनिया कांग्रेस हैं। इसलिए मीडिया का ध्यान मुख्यतया इन्हीं दो दलों पर केन्द्रित है और कुछ महीने से उसने अपना पूरा प्रचार मोदी बनाम राहुल पर केन्द्रित कर दिया है।
कभी-कभी मीडिया के मोदी-राहुल राग को सुनकर लगता है कि शायद भारत ने ब्रिटिश संसदीय प्रणाली पर आधारित अपने संविधान को त्याग कर अमरीका की राष्ट्रपति चुनाव प्रणाली को अपना लिया है। अमरीकी चुनाव प्रणाली में सभी प्रमुख दल अपनी आंतरिक चयन प्रक्रिया से राष्ट्रपति पद के लिए अपने-अपने प्रत्याशी का नाम काफी पहले तय कर लेते हैं, और फिर पूरा चुनाव प्रचार इन नामों पर ही केन्द्रित रहता है। भारत में भी श्रीमती इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति प्रणाली को अपनाने का अभियान चलाया था। उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी (स्व.) वसंत साठे ने इस विषय पर एक पुस्तक भी प्रकाशित की थी। पर भारत ने इस राष्ट्रपतीय चुनाव प्रणाली को स्वीकार नहीं किया और 1935 के ब्रिटिश एक्ट पर आधारित और 1950 के संविधान में अंगीकृत मंत्रिमंडलीय प्रणाली पर ही टिके रहना उचित समझा।
वंशवादी दल और प्रधानमंत्री
भारतीय संविधान के अनुसार प्रधानमंत्री के चयन की प्रक्रिया क्या है? क्या इस प्रक्रिया में प्रधानमंत्री का चयन चुनावों के पूर्व होना संभव या उचित है? संविधान के अनुसार लोकसभा के चुनाव परिणामों के आधार पर प्रत्येक पार्टी का संसदीय दल अपना अपना नेतृत्व चुनेगा। यदि कोई एक दल पूर्ण बहुमत में आ जाता है तो उसके संसदीय दल का नेता प्रधानमंत्री पद का दावा राष्ट्रपति के सामने पेश करेगा। यदि किसी दल को बहुमत नहीं मिलता है तो जो दो बड़े दल हैं वे छोटे दलों के साथ गठबंधन द्वारा अपने पीछे बहुमत जुटाने का प्रयास करेंगे। उनमें से जो गठबंधन पूर्ण बहुमत प्राप्त कर लेता है, उसका नेता राष्ट्रपति के समक्ष अपना दावा पेश करेगा, और वही प्रधानमंत्री पद पर आसीन होगा। क्या इस संविधानिक रचना में चुनावों के पूर्व किसी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित करना संविधान-सम्मत है? नहीं, पर भारत में यह हो रहा है।
वस्तुत: किसी वंशवादी दल में तो यह संभव है, जैसा कि नेहरू जी के समय से कांग्रेस में यह होता रहा है। पहले सत्रह साल नेहरू जी स्वयं प्रधानमंत्री रहे, फिर सोलह साल उनकी पुत्री इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री रहीं, उनके बाद उनके पुत्र राजीव गांधी पांच साल प्रधानमंत्री रहे, और 2004 से अब तक 9 साल राजीव की पत्नी सोनिया 'सुपर प्रधानमंत्री' की भूमिका निभा रही हैं। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के भीतर प्रधानमंत्री पद के लिए योग्य नाम नहीं थे। इनमें से केवल लालबहादुर शास्त्री और पी.वी.नरसिंहाराव ही कांग्रेस में रहते हुए प्रधानमंत्री बन सके। अन्यथा मोरार जी देसाई, चौ.चरण सिंह, जगजीवन राम, वीपी सिंह, चन्द्रशेखर, देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल जैसे क्षमतावान लोगों को प्रधानमंत्री पद की अपनी आकांक्षा को पूरा करने के लिए कांग्रेस से बाहर जाना पड़ा।
इस समय भी भावी प्रधानमंत्री पद के लिए 42 वर्षीय युवराज राहुल का नाम सुनिश्चित और सर्वविदित है। जनवरी, 2013 में जयपुर के चिंतन शिविर में उन्हें भावी प्रधानमंत्री के रूप में ही प्रस्तुत किया गया, किंतु संगठन, चुनाव अभियान एवं प्रशासन में उपलब्धि के नाम पर उनके पास गिनाने को कुछ नहीं है। उनकी अक्षमता एवं असफलता पर चतुर्दिक प्रहारों से घबराकर सोनिया के कुछ रणनीतिकारों ने सोनिया-मनमोहन सिंह जैसे दो सत्ताकेन्द्रों का शिगूफा फिर मीडिया में फेंका। पर उनके मुख्य रणनीतिकार दिग्विजय सिंह ने स्पष्ट कर दिया कि दो सत्ताकेन्द्रों का फार्मूला असफल हो चुका है, हमारा एक ही सत्ताकेन्द्र होगा, और वह होगा राहुल।
सोनिया पार्टी का 'राहुल गान'
सोनिया पार्टी ने राहुल को पवित्र गाय की श्रेणी में बिठा दिया है। वह उनकी तनिक-सी भी आलोचना से तिलमिला उठती है, और तुरंत उनके गौरवगान के लिए दौड़ पड़ती है। वंशवादी चाटुकार मानसिकता का यह ज्वलंत उदाहरण है। राहुल की योग्यता की धाक जमाने के लिए उन्हें उद्योगपतियों के मंच पर वक्तृत्व का अवसर दिया गया, पर उनके पास प्रत्यक्ष अनुभव के नाम पर कुछ नहीं था। वे लच्छेदार अंग्रेजी में भविष्य के मधुर सपने दिखाने की कोशिश करते रहे। उन्हें सुझाया गया था कि भारत की जनता गर्वोक्ति से अधिक त्याग को महत्व देती है। इसलिए उन्होंने घोषणा की कि प्रधानमंत्री पद में मेरी कोई रुचि नहीं है, मैं पार्टी संगठन को मजबूत करना चाहता हूं। इसके साथ ही उन्होंने घोषणा की कि मेरा विवाह करने का कोई विचार नहीं है। शायद वे बताना चाहते हैं मेरे विवाह न करने से वंशवाद मुझ पर ही रुक जाएगा। किन्तु मीडिया के गलियारों में अफवाह है कि भले ही उनका औपचारिक विवाह न हुआ हो किन्तु किसी विदेशी महिला से उनकी घनिष्ठता है। और फिर राहुल भले ही विवाह न करें किन्तु वंश की गाड़ी तो उनकी बहन प्रियंका के परिवार से आगे बढ़ सकती है। शायद इसीलिए उन्हें अपनी मां सोनिया की रायबरेली सीट और भाई राहुल की अमेठी सीट को संभाले रखने का विशेष दायित्व दिया गया है।
10, जनपथ के दूसरे रणनीतिकार जनार्दन द्विवेदी, जिन्हें दिग्विजय सिंह का प्रतिस्पर्धी माना जाता है, ने उनकी काट करते हुए कहा कि दो सत्ताकेन्द्रों का प्रयोग असफल नहीं हुआ है, वह अभी भी लागू है। किन्तु हिन्दुस्तान टाइम्स (10 अप्रैल) ने कांग्रेस पार्टी के 'एजेंडा 2014' शीर्षक से एक गोपनीय दस्तावेज उजागर किया है, जिसके 30 पृष्ठों में से तीन पूरे पन्ने राहुल के स्तुतिगान को दिये गये हैं। इस दस्तावेज में राहुल को 2014 का नेता बताया गया है। सोनिया पार्टी की मुख्य चिंता 2014 के चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने की है, और तब तक राहुल की अयोग्यता पर पर्दा ढकने और मनमोहन सिंह को शिखंडी के रूप में इस्तेमाल करने की है। नरेन्द्र मोदी का यह प्रश्न सटीक है कि यदि किसी कांग्रेसी जन से पूछा जाए कि आपका नेता कौन है, तो क्या कोई भी मनमोहन सिंह का नाम लेगा?
लोकतंत्र बनाम वंशवाद
कांग्रेस की 'राहुल बचाओ रणनीति' का एक महत्वपूर्ण मोर्चा है भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए आपसी प्रतिस्पर्धा और उठा-पटक का आभास पैदा करना। इस काम में वे मीडिया के एक अंग का भरपूर उपयोग कर रहे है। इसमें संदेह नहीं कि भाजपा के पास प्रधानमंत्री पद के लिए अनेक योग्य, सक्षम एवं अनुभवी नाम हैं। सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, राजनाथ सिंह, नरेन्द्र मोदी, शिवराज सिंह, डा.रमन सिंह आदि अनेक नाम हैं जो प्रधानमंत्री पद के साथ न्याय करने में समर्थ हैं। यही किसी भी लोकतांत्रिक दल की स्वाभाविक स्थिति होनी चाहिए। वस्तुत: भाजपा और सोनिया पार्टी की टक्कर को लोकतंत्र और वंशवाद की टक्कर के रूप में देखा जाना चाहिए। किन्तु यह दु:ख की बात है कि हमारा मीडिया अनजाने में वंशवाद का हथियार बन रहा है। वह वंशवाद की नीरसता में स्वयं को खोने की बजाय एक लोकतांत्रिक दल में मत भिन्नता को सनसनीखेज गुटबंदी के रूप में चित्रित करने में लगा रहता है। आखिर क्यों दिग्विजय सिंह कभी सुषमा स्वराज और कभी श्री आडवाणी का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए उछालते हैं? क्यों वे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को नरेन्द मोदी के प्रतिद्वंद्वी के रूप में पेश करके उनको रिझाने की कोशिश करते हैं? क्या राजग के अध्यक्ष शरद यादव का यह कथन पर्याप्त नहीं है कि लोकसभा चुनावों के बाद भाजपा संसदीय दल अपना नेता चुनेगा, फिर राजग प्रधानमंत्री पद के लिए नाम चुनेगी। पर, आज (12 अप्रैल) से प्रचार प्रारंभ हो गया है कि जद(यू) भाजपा पर दबाव बना रही है कि वह प्रधानमंत्री पद के लिए अपना नाम अभी से घोषित करे। विश्वास नहीं होता कि शरद यादव और नीतीश जैसे लोकतंत्रवादी नेता ऐसी अलोकतांत्रिक प्रक्रिया अपना सकते हैं।
मीडिया का दुष्प्रचार
वस्तुत: सोनिया कांग्रेस नरेन्द्र मोदी के नाम पर पूरे प्रचार को केन्द्रित करने में लगी है। मोदी गुजरात में विकास के दस वर्ष लम्बे ठोस अनुभव को यदि प्रमाणों के साथ प्रस्तुत करने के कारण 'विकास पुरुष' की छवि अर्जित करते जा रहे हैं तो सोनिया पार्टी केवल 2002 के गोधरा कांड की प्रतिक्रिया में हुए दंगों को ही उछालती रहती है। इस प्रकार वे चुनावी राजनीति का साम्प्रदायीकरण कर रहे हैं। 2002 तक उनका चुनाव प्रचार 1992 के विवादास्पद बाबरी ढांचे के ध्वंस पर केन्द्रित था तो 2002 के बाद उन्होंने गुजरात के दंगों को अपने प्रचार की टेक बना लिया है मानों भारत में दंगों का इतिहास 2002 से ही प्रारंभ होता है और कांग्रेसी राज्यों में कभी दंगे हुए ही न हो। किन्तु मुस्लिम समाज के मन में नरेन्द्र मोदी की मुस्लिम विरोधी राक्षसी छवि बनाकर वे वोटों की फसल भले ही काट लें किन्तु उनके इस प्रचार के कारण नरेन्द्र मोदी भारत के राष्ट्रीय मन में राष्ट्रीय एकता के प्रतीक बन गये हैं। भाजपा ने बार-बार घोषणा की है कि प्रधानमंत्री पद का निर्णय उचित समय पर संसदीय बोर्ड करेगा, स्वयं नरेन्द्र मोदी ने भी कई मंचों पर कहा है कि वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं हैं, किन्तु मीडिया कांग्रेस की रणनीति का हथियार बनकर 'प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने' के दुष्प्रचार को हवा दे रहा है।
सबसे हास्यास्पद तो यह है कि भारतीय राजनीति के शिखर पुरुष लालकृष्ण आडवाणी को नरेन्द्र मोदी के प्रतिद्वंद्वी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। भारत के सार्वजनिक जीवन में आडवाणी जी की 70 वर्ष लम्बी यात्रा निष्काम राष्ट्रभक्ति, आदर्शवादिता और सिद्धांतनिष्ठा की जीवंत कहानी है। आज जिस मुकाम पर वे खड़े हैं वहां किसी भी पद, प्रधानमंत्री पद के भी वे आकांक्षी नहीं हैं। वे सब पदों से ऊपर हैं और भारत के सार्वजनिक जीवन में शुचिता और त्याग के दीपस्तंभ हैं। उन्हें इस प्रतिस्पर्धा में खींचकर उनके कद को बौना करने के सब प्रयास बेमानी हैं। अब वे दलीय बंधनों से ऊपर उठकर पूरे सार्वजनिक जीवन को प्रकाशित कर रहे हैं। इसलिए उन्हें इस पद-प्रतिष्ठा के अखाड़े में खींचने का प्रयास मीडिया न करे।देवेन्द्र स्वरूप (11 अप्रैल, 2013)
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