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स्वामी विवेकानंद सार्द्ध शती वर्ष के कारण देशभर में अनेक समारोह, संगोष्ठियां, चर्चा-सत्र आयोजित हो रहे हैं। उसी क्रम में अनेक प्रकाशन संस्थानों ने भी स्वामी विवेकानंद विचार साहित्य पर अनेक पुस्तकों का प्रकाशन किया है। अनेक समाचार पत्र भी स्वामी विवेकानंद पर विशेष सामग्री प्रकाशित कर रहे हैं। ऐसे में महाराष्ट्र के प्रतिष्ठित साप्ताहिक पत्र ‘Ê´É´ÉäEò’ ने अपनी विशिष्टता के अनुरूप एक विशेषांक प्रकाशित किया है- कृतिरूप विवेकानंद। साप्ताहिक विवेक द्वारा पूर्व में प्रकाशित ‘¸ÉÒMÉÖ¯ûVÉÒ Ê´É¶Éä¹ÉÉÆEò’ की भांति यह विशेषांक भी न केवल प्रस्तुति की दृष्टि से विशिष्ट है बल्कि इसमें संकलित सामग्री भी बिल्कुल अलग प्रकार की है। इस संग्रह में स्वामी विवेकानंद जी के बारे में कुछ ऐसे रहस्योद्घाटन भी हुए हैं, जिन्हें पढ़कर आश्चर्य भी होता है और उत्सुकता भी जगती है।
अब तक प्रकाशित व संकलित अधिकांश पुस्तकों में हम वेदांत के प्रवक्ता स्वामी विवेकानंद के हिन्दू धर्म, भारत, अशिक्षा, भारतीय महिला, गरीबों के उत्थान और समाज सुधार आदि के बारे में ही पढ़ते रहे हैं। पर ‘EÞòÊiÉ°ü{É Ê´É´ÉäEòÉxÉÆnù’ में ‘ºÉÆMÉÒiÉYÉ Ê´É´ÉäEòÉxÉÆnù’ का विस्तार से वर्णन है। वसंत पोतदार ने ऐतिहासिक तथ्यों और तत्कालीन घटनाक्रम को प्रस्तुत करते हुए बताया है- ‘1878 में विश्वनाथ बाबू सपरिवार डेढ़ साल के लिए छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर आ गए। वहां कोर्ट का काम कम था। समय काफी मिलता था। नरेन्द्र को भी पाठशाला जाने को नहीं मिला। पिता-पुत्र रोज कई घंटे विविध विषयों पर चर्चा करते। वहां विश्वनाथ बाबू ने नरेन्द्र को ध्रुपद, धमार, ख्याल, टप्पा, ठुमरी, कीर्तन (बंगाली कीर्तन और महाराष्ट्रीय कीर्तन बिलकुल भिन्न होते हैं) श्यामा संगीत, बाऊल आदि बंगाली लोकसंगीत के पाठ रीतिनुसार दिए। बेटा योग्य है और संगीत में पारंगत होगा, इसका भरोसा होने पर पिता ने कलकाता आने पर उसे ज्ञान संपन्न गुरु के पास शिक्षा देना तय किया। नरेन्द्र के पहले संगीत गुरू थे बेणीमाधव अधिकारी, दूसरे थे उस्ताद अहमद खां। दोनों रियाजी गायक थे। उनके पास जितनी गान विद्या थी, नरेन्द्र ने उसे आत्मसात ÊEòªÉÉ*’
स्वामी रामकृष्ण परमहंस से नरेन्द्र की भेंट का आधार संगीत बताते हुए लेखक ने बताया कि- ‘1881 के नवम्बर में सुरेन्द्रनाथ मित्र के यहां श्रीरामकृष्ण और नरेन्द्र की पहली भेंट हुई। वे दोनों अवतारी पुरुष थे और बंगाल में जन्म लेकर मानव कल्याण करने वाले थे। यह हुआ पारलौकिक एवं अलौकिक विचार। भेंट होने पर वे नरेन्द्र पर स्नेह करने लगे जिसका ठोस कारण था- नरेन्द्र का गायन।
महाविद्यालय में प्रथम वर्ष में पढ़ने वाला नरेन्द्र नास्तिक है, यह बात उसके रिश्तेदार और परिचित जानते थे। नरेन्द्र के पड़ोस की गली में शिमला स्ट्रीट पर रहने वाले सुरेन्द्र बाबू ने उसे तत्काल घर बुला लिया। वहां परमहंस उपस्थित थे। ‘`öÉEÖò®ú जी (भगवान) को गायन अत्यंत प्रिय है, तुम एक-दो गीत ºÉÖxÉÉ+Éä*’ सुरेन्द्र बाबू ने नरेन्द्र से कहा। नरेन्द्र ने दो गीत सुनाए। एक था आयोध्यानाथ पाकडाशी रचित ‘¨ÉxÉ चलो निज ÊxÉEäòiÉxÉä’ (राग-मल्हार, एक ताल) और दूसरा था, बेचाराम चट्टोपाध्याय का, ‘VÉÉ´Éä की हे दिन आमार बिफले SÉÉʱÉB*’ (राग- मुलतानी, एकताल)।
नरेन्द्र का ईश्वर प्रदत्त कंठ स्वर दोनों के बीच का अटूट मध्यस्थ बन गया। नरेन्द्र का संगीत दोनों में आत्मिक सम्मेलन का सेतु बन MɪÉÉ*’
श्रीरामकृष्ण कथामृत, रामकृष्ण बुवा वझे, खाप्रू जी पर्वतकर आदि अल्पचर्चित नामों का उल्लेख करते हुए लेखक श्री पोतदार ने बताया कि कवि और संगीतकार होते हुए स्वामी विवेकानंद ने केवल 6 गीत लिखे और उनका स्वर नियोजन भी किया।
पुस्तक का नाम – कृतिरूप विवेकानंद
मार्गदर्शक सम्पादक– रमेश पतंगे
प्रबंधक सम्पादक – दिलीप करमबेलकर
प्रकाशक – साप्ताहिक विवेक
5/12 कामत औद्योगिक वसाहत 396, स्वातंत्र्यवीर सावरकार मार्ग, प्रभा देवी, मुम्बई-25
मूल्य – 800 रु. पृष्ठ – 258
स्वामी विवेकानंद के व्यक्तित्व का विचार करते हुए समाज के अनेक वर्ग उन्हें अपने अनुरूप अलग-अलग खांचे में ढालने का प्रयास करते हैं। स्वामी आत्मज्ञानानंद ने इस सबको गलत ठहराते हुए लिखा- ‘º´ÉɨÉÒ जी ऐसे व्यक्ति नहीं थे जिन्हें सरलता से किसी खास खांचे में रखा जा सके। उन्हें स्वयं भी किसी वाद के प्रति कोई लगाव नहीं था। उलटे इस तरह के वर्गीकरण से उन्हें गहरी अरुचि थी और उनकी मान्यताओं को किसी विशेष विचारधारा, जैसे कि मानवतावाद, समाजवाद अथवा अन्य किसी वाद के साथ जोड़ना गलत होगा। नि:संदेह उनके अनेक विचार विभिन्न राजनीतिक और सामाजिक सिद्धांतों के साथ सहानुभूति रखते हैं और विभिन्न संप्रदायों के प्रवर्तकों ने उनके शब्दों और कार्यों से साधिकार प्रेरणा ली है, परन्तु स्वामीजी की शिक्षाएं कभी भी किसी पांथिक प्रतिबद्धता पर आधारित नहीं थीं, बल्कि उनके स्वयं के आत्मा के दैवत्य, सृष्टि के खुलेपन और मानव में स्थित भगवान की पूजा से संबंधित आध्यात्मिक मान्यताओं पर आधारित lÉÒ*’
कुल 4 खण्डों में विभाजित इस संकलन में विवेकानंद दर्शन, विवेकानंद की प्रेरणा के साथ ही वर्तमान में स्वामी विवेकानंद की प्रेरणा से कार्यरत संस्थाओं और उनके कार्य विस्तार को भी संकलित किया गया है। चूंकि साप्ताहिक विवेक का विस्तार क्षेत्र महाराष्ट्र है, इसलिए महाराष्ट्र में विवेकानंद का अलग से वर्णन संकलित किया गया है। संकलन में जहां रा.स्व.संघ के सरकार्यवाह भैयाजी जोशी, न्यायमूर्ति (से.नि.) एम. रामा जायस, वरिष्ठ अधिवक्ता राम जेठमलानी, विवेकानंद केन्द्र, कन्याकुमारी के अध्यक्ष श्री पी. परमेश्वरन, आपातकालीन क्रांति के नायक जयप्रकाश नारायण के विचारों को स्थान दिया गया है तो पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम, योगगुरु बाबा रामदेव, गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा अपने प्रेरणास्रोत स्वामी जी के बारे में व्यक्त विचारों को भी स्थान दिया गया है।
इस पूरे संकलन की प्रस्तुति अत्यंत उच्च कोटि की है, छायाचित्र भी बहुत सुंदर बन पड़े हैं, बीच-बीच में कुछ रंगीन रेखाचित्र इसकी शोभा और बढ़ा रहे हैं। हां, वर्तनी की अशुद्धि, या कहे प्रूफ की कुछ गलतियां इतने बहुमूल्य ग्रंथ में ऐसी लगती हैं जैसे बासमती चावल में छोटा-सा कंकर। पर इसे इसलिए नजरअंदाज किया जाना चाहिए कि अधिकांश सामग्री का अनुवाद किया गया है और मराठी मूल से हिन्दी होने में वर्तनी की यह अशुद्धि प्राय: रह जाती है। वैसे भी विवेक ने हिन्दी के क्षेत्र में अभी कुछ वर्ष पूर्व ही कदम रखा है। पुस्तक का मूल्य भी कुछ अधिक प्रतीत होता है। सामान्य पाठक वर्ग के लिए सामान्य संस्करण भी आए तो सोने पर सुहागा। qºÉ¨ÉÒIÉEò: जितेन्द्र तिवारी
टाटा को मिली स्वामी विवेकानंद से प्रेरणा
आज औद्योगिक जगत का सर्वाधिक ख्यात नाम है टाटा, भारत में ही नहीं वरन् अन्तरराष्ट्रीय जगत में भी टाटा समूह को बहुत प्रतिष्ठा प्राप्त है। पर आपको जानकर आश्चर्य होगा कि टाटा समूह की आधारशिला रखने वाले जे.आर.डी. टाटा स्वामी विवेकानंद से बेहद प्रभावित थे। बंगलूरू स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइन्स स्वामी विवेकानंद की प्रेरणा का ही प्रतिफल है। 23 नवम्बर, 1898 को एस्प्लेनेड हाउस (मुम्बई) से श्री जमशेद जी टाटा ने स्वामी विवेकानंद को जो एक पत्र लिखा। इसके प्रति उत्तर में स्वामी विवेकानंद ने प्रबुद्ध भारत के सम्पादकीय में ‘¸ÉÒ टाटा की ªÉÉäVÉxÉÉ’ शीर्षक से जो लिखा या भगिनी से लिखवाया, उसका सार यह है-
‘¦ÉÉ®úiÉ को अगर जिंदा रहना है, अगर प्रगति करनी है अथवा संसार के बड़े-बड़े राष्ट्रों की कतार में अपने आपको बैठाना है, तो पहले हमें अनाज की समस्या हल करनी होगी। आज के इस तीव्र स्पर्धा के युग में खेती और व्यापार इन दो मुख्य क्षेत्रों में आधुनिक विज्ञान का उपयोग करना ही एकमात्र उपाय इस समस्या को सुलझाने का है। आज मनुष्य के हाथ में नए-नए यंत्र आ रहे हैं ऐसी स्थितियों में अपने पुराने साधन और पुराने मार्ग टिक नहीं पाएंगे। जो लोग अपनी बुद्धि के सहारे कम से कम शक्ति का उपयोग कर प्राकृतिक साधन सामग्री का अधिक से अधिक उपयोग नहीं कर सकेंगे उनका विकास रुक जाएगा। उनके भाग्य में पतन और विनाश ही होगा। उनको इससे बचाने के लिए कोई सा भी उपाय नहीं है।
प्राकृतिक शक्ति संबंधी ज्ञान प्राप्त करने का भारतीयों का मार्ग और प्रशस्त करना, यह टाटा की योजना का ढांचा है। यह योजना कार्यान्वित करने के लिए करीब 74 लाख रुपए लगेंगे इसलिए कुछ लोगों को लगता है यह योजना एक कल्पना-विलास है। इसका जवाब यह है कि देश के सबसे धनवान व्यक्ति श्री टाटा अगर 30 लाख रुपए दे सकते हैं, तो देश के अन्य सब मिलकर बचे हुए पैसे इकट्ठा नहीं कर सकते? इसलिए ऐसा सोचना गलत है। यह योजना कितनी महत्वपूर्ण है यह सभी को मालूम है। हम फिर से कहना चाहते हैं कि आधुनिक भारत में, पूरे देश में ऐसी कल्याणकारी योजना आज तक देखने को नहीं मिली। अत: देश के सभी लोगों का कर्तव्य है कि जात-पात, सम्प्रदाय के आधीन होने की अपेक्षा यह योजना सफल बनाने के लिए सहकार्य Eò®åú*’
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