|
भोपाल के अनिल दुबे ने मेकैनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा करने के बाद नौकरी करनी शुरू की थी। लेकिन कुछ साल बीते नहीं कि रोजी-रोटी की आवश्यकता जुनून के आगे छोटी पड़ गई। एक अनाथ बछिया की पीड़ा ने उन्हें इतना उद्वेलित किया कि वे गो-भक्त से गो-सेवक बन गए। 38 वर्षीय अनिल दुबे गो-सेवा में अपना सब कुछ दांव पर लगा चुके हैं। गाय में अब इन्हें माता ही नहीं, परिवार, समाज और राष्ट्र सब कुछ दिखता है। वे हर समस्या का समाधान गाय में देखते हैं।
कौन नहीं जानता कि गाय सिर्फ दूध से ही नहीं, अपने मल-मूत्र से भी व्यक्ति-परिवार का भरण-पोषण करती है। वह खेत-खलिहान को आबाद रखती है। बीमार को स्वस्थ करती है और स्वस्थ को अनेक बीमारियों से बचाती है। अनिल गो-माता की उपेक्षा को राष्ट्रद्रोह मानते हैं।
वे सिर्फ बातों से गो-भक्ति का ज्ञान नहीं बघारते। वे गो-सेवा के लिए लोगों को बाध्य करते हैं। इनका तरीका बहुत नायाब है। चूंकि वे ज्योतिष के जानकार हैं, इसलिए समस्याग्रस्त लोग इनके पास आते ही हैं। इनमें अधिकांश ऐसे होते हैं जो अपनी समस्याओं के निराकरण के लिए अनेक प्रयोग और प्रयास कर चुके होते हैं। थके और निराश लोगों को वे गो-माता के हवाले कर देते हैं। कुछ को गो-मूत्र, तो कुछ को गो-अर्क पीने की सलाह देते हैं। निराश लोग किडनी, हृदय, थायरायड, मधुमेह और माइग्रेन जैसी बीमारियों से निजात भी पा रहे हैं।
अनिल दुबे के प्रयास से गाय के गोबर से खास तरह के कंडे बनाने का प्रयोग चल रहा है। बकौल अनिल दुबे-इन कंडों की मांग इतनी है कि हम आपूर्ति नहीं कर पा रहे हैं। अब अगला प्रयोग धूपबत्ती और अगरबत्ती का है। वे देशी गाय के घी, दूध और इससे बने उत्पादों की कमी भले ही हो, लेकिन ये अनेक बीमारियों की रामबाण दवाइयां हैं। वे श्री सत्यनारायण गो-जन कल्याण सेवा समिति के नाम से गो-सेवा को संस्थागत रूप देने की कोशिश कर रहे हैं।
अनिल दुबे का पूरा परिवार ही गो-सेवक है। उनकी पत्नी बछिया से ऐसे बातें करती हैं जैसे वह कोई जानवर न होकर उनकी पड़ोसन या सहेली हो। ऐसे समर्पण को कोई भी पागलपन कह देता है। लेकिन वे भक्ति और सेवा में इतनी बेपरवाह हैं कि लोगों की बातें उन्हें या तो सुनाई नहीं देतीं या वे अनसुनी कर देती हैं। उनका 10 वर्षीय छोटा बेटा युवराज बछड़े और बछिया के साथ ऐसे खेलता है मानो वे पशु न होकर उसके दोस्त हों। कभी गला पकड़ कर लटक जाता है, तो कभी उसके चारों पैरों के बीच से निकलता है।
उनकी पत्नी श्रीमती उमा दुबे शासकीय नौकरी से इतना वेतन पा लेती हैं कि घर चल जाए। आय का और कोई स्रोत नहीं है। कई बार वे अपने पति की आर्थिक मदद भी करती हैं। इतना होने पर भी उन्हें आर्थिक असुरक्षा महसूस नहीं होती। वे कहती हैं- नंदिनी है ना! जैसे नंदिनी कोई गाय न हुई, जादू की छड़ी हो गई। लेकिन भारत में आस्था, विश्वास और भगवत् कृपा यही तो है।
अनिल दुबे की कुछ बड़ी कल्पनाएं भी हैं। उनको पक्का विश्वास है कि एक दिन गो-माता की कृपा से उनकी सारी कल्पनाएं साकार हो जाएंगी। नए-नए प्रयोगों से युक्त विशाल और भव्य गोशाला उनकी आंखों के सामने तैयार हो जाएगी। श्री दुबे यह भी कहते हैं कि गाय की सेवा और संरक्षण मनुष्य जाति के अस्तित्व के लिए जरूरी है। यदि गाय नहीं बचेगी तो हम भी नहीं ¤ÉSÉåMÉä*q|ɺiÉÖÊiÉ: अनिल सौमित्र
टिप्पणियाँ