बदलते मौसम की उमंग
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बदलते मौसम की उमंग

by
Apr 1, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 Apr 2013 11:48:18

 

 

मौसम से सारा चराचर जगत प्रभावित होता है। जीव मात्र के व्यवहार, रहन-सहन, खान-पान में परिवर्तन आता है। प्रकृति की गोद में रहने वाले अपनी व्यवस्था करने लगते हैं। सर्दी, गर्मी, बरसात और बसंत के अनुकूल हमारे कपड़े, मकान, खान-पान में परिवर्तन। इन परिवर्तनों को लाने में महिलाओं का बड़ा योगदान होता है। वे मौसम से मुकाबला करने की अपनी पूर्व तैयारी करती हैं।

फाल्गुन मास के बाद चैत का महीना आता है। हमारे घरों में नीम की नई कोमल पत्तियों की चटनी बनाकर खिलाने, चिरैता का काढ़ा बनाकर पिलाने का रिवाज रहा है। यह धारणा बनी कि इस मौसम में इनका सेवन करने से साल भर बीमारियों का प्रकोप कम होता है। घर में कोई भी बीमार हो तो सेवा महिला को ही करनी पड़ती है। इसलिए वह घर के सभी सदस्यों के स्वास्थ्य के बारे में अधिक चिंतित रहती है। सर्दी गई है। गर्मी आने वाली है। इन दो मौसमों के बीच चैत का महीना। काम ही काम।

सबसे अधिक काम तो रबी की फसल को संभालने का होता है। रबी की फसल में गेहूं प्रमुख फसल है। इसके दलहन, मूंग, मसूर, अरहर, मटर भांति-भांति के अनाज। कभी-कभी किसान एक ही खेत में कई फसल लगा देते हैं। उनकी पक्तियां अलग-अलग भले ही रखी जाती हैं, उन्हें अलग-अलग समय पर निकाला जाता है, फिर भी कई फसल मिल जाती हैं। उन्हें अलग-अलग करना भी एक कला है। उन्हें सूप या डगरा में रखकर महिलाएं ही अलग करती हैं। यह काम आसान नहीं होता। परिश्रम और समय दोनों लगते हैं। चूंकी घर में अन्न आना शुुभ माना जाता है, इसलिए अन्न का का भंडारण महिलाएं उत्साह से करती-करवाती हैं। साल भर घर का खर्चा चलता है। अधिक होने पर बिकता भी है।

मजदूर महिलाओं में भी इस माह में उत्साह दिखता है। खूब मेहनत करती हैं तो उनके घर में भी अन्न आ जाता है। मेहनत के लिए बाहर का मौसम भी अनुकूल-सुहावना होता है-

'आई गइले चैत के महीनवां हो रामा

आम मंजरी गेल, लगलई टिकोलवा

कोइली कुहूकी मारे तनमां हो रामा

पिया नाहीं अइले, आई गइले…।'

आम के साथ अन्य फलों के वृक्षों पर भी मंजर (बौर) आ गए। नये फल के दाने भी निकल आए। कोयल कुहुक रही है। महिला, जिसके पति विदेश (गांव से बाहर) गए हैं उसे ऐसा लगता है कि कोयल कुहु-कुहुक कर उसे ताना मार रही है। मौसम का आनंद है, पर विरह की टीस भी।

'यह सांझ–उषा का आंगन

आलिंगन विरह–मिलन का

चिर ह्रास अश्रुमय आनन

अरे इस मानव जीवन का।'

इस खट्टे-मीठे भाव का ही आनंद लेती हैं महिलाएं। पता नहीं कवि ने क्यों लिख दिया-

'अबला जीवन हाय

तेरी यही कहानी

आंचल में है दूध

और आंखों में पानी।'

अभावग्रस्त महिलाएं भी अबला नहीं होतीं। मैंने दादी, मां और चाचियों की आंखों में हमेशा आंसू देखे, साथ ही पानी भी। दादी तो अड़ोस-पड़ोस या गांव में किसी के दु:ख की कहानी सुनकर रोती थीं, तो किसी जीव-जंतु के दु:ख ही नहीं, फसल के सूख जाने पर भी रोती थीं। वे सब उनके लिए आत्मवत् थे। वे सबके साथ जीकर दु:ख में सुखी और अभाव में आनंद का अनुभव करती थीं।

चैत के महीने में गोरैया उन्हें बहुत तंग करती थी। दादी-मां को फसल सहेजने की चिंता, तो गोरैया को अपना घोंसला बनाने की। खेत-खलिहान या दरवाजे पर रखे फसल के डंठलों में से तिनका चुन-चुन कर गोरैया लाती, हमारे घर की छत के किसी कोने में घोंसला बनाने का प्रयत्न करती। उसके द्वारा चोंच से उठाए सारे तिनके घोंसले में इस्तेमाल नहीं होते थे। आधे से अधिक तिनके आंगन या जहां घोंसला बनाती वहां गिर जाते। दादी के हाथ में दिन भर झाड़ू रहती। वे गोरैया का घर बनते देख आनंदित रहतीं, पर उसके द्वारा गंदगी फैलाने पर उसे कोसती रहतीं। खट्टा-मीठा भाव।

नया वर्ष प्रारंभ होता है। नई फसल, नया वर्ष। मौसम के अनुसार तो सबका मन नया होने का ही करता है। इसी मौसम में होती है शुरुआत नये वर्ष की। देश के भिन्न-भिन्न भागों में नवसंवत्सर (वर्ष प्रतिपदा) के शुभारम्भ पर भिन्न-भिन्न आयोजन होते हैं। घर नई फसल से भरा हो, मन प्रकृति की मोहकता से भरा हो, फिर नये वर्ष का सुस्वागत कैसे न हो। इस मौसम के त्योहार भी विचित्र होते हैं। पंजाब में वैशाखी, असम में भोगाली बीहू पर नाच-गाना होता है। बिहार में 'सतुआनी' मनाई जाती है। एक दिन चूल्हा ठंडा रहता है। चूल्हा जलता नहीं। एक रात पूर्व भात बनाकर पानी में रख दिया जाता है। वही बासी भात दूसरे दिन खाते हैं। भगवान को भी नई फसल से बने सत्तू और आम की अमिया चढ़ाते हैं। दादी कहती थीं- 'सबसे पहले भगवान आम चखते हैं, उसके बाद ही हम लोग खाते हैं।'

मैं पूछती थी- क्या 'दादी, भगवान के खाने के पहले चिड़िया भी नहीं खाती?'

'इस मौसम में चिड़िया के खाने को फूल-पत्तियों की कमी नहीं रहती। फिर वह आम की अमिया क्यों खाए? अमिया खट्टी होती है। आम के पकने पर चिड़िया को मीठा फल मिलता है।

मुझे तब तो इस बात पर गुस्सा आता था कि चिड़िया आम क्यों जूठा कर देती है। दादी समझाती थीं- 'जब तक फसल खेत में और फल वृक्षों पर हैं, तब तक किसान के नहीं होते। चिड़िया और जानवर भी खाते हैं। घर आ जाने पर वे हमारे होते हैं।'

दादा ने एक बार बताया था-'खेत और खलिहान में हम थोड़ा बहुत अन्न छोड़ देते हैं। पेड़ पर फल भी। आखिर चिड़िया और जानवरों को भी भोजन देना हमारा काम है।'

वैशाख माह में सतुआनी मनाते हुए दादी एक और विचित्र व्यवहार करती थीं। नये घड़े में रात्रि को पानी रखा जाता था। दादी सुबह-सुबह हमारे सोते हुए ही उसी पानी को चुल्लू में रखकर हमारे सिर पर डालतीं। हम चौंक कर उठते। दादी पर झल्लाते भी। दादी सिर पर पानी डाल कर कहतीं- इसे 'जूड़ शीतल' कहा जाता है। प्रतीकात्मक है त्योहार'। दादी समझाती थीं- 'आगे गर्मी का मौसम आने वाला है। अब सिर पर पानी डालते रहना होगा ताकि शरीर की शीतलता बनी रहे। इसलिए तो यह त्योहार है।'

दो मौसमों के बीच महिलाओं के काम बढ़ जाते थे। कृषि पर आधारित समाज था। आज शहरी जीवन में बहुत कुछ छूटता जा रहा है। 'एयर कंडीशनर' के कारण क्या गर्मी, क्या सर्दी और क्या बरसात। जीवन में एकरसता आ रही है। जिन लोगों ने अपने बचपन का गांव देखा, मौसम के परिवर्तन होने पर उन्हें अपनी दादी और मां की याद आती है। उनकी व्यस्तता और व्यस्तता का आनंद याद आता है। जिन्होंने वैसी महिलाओं को देखा ही नहीं उनका मौसम से भी क्या लेना-देना।

 मृदुला सिन्हा

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