झूठे मुकदमों का सच यह है
|
पिछले दिनों जम्मू-कश्मीर के बेमिना स्थित एक स्कूल में क्रिकेट खिलाड़ी के रूप में घुस आए आतंकवादियों द्वारा केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के शिविर पर आत्मघाती हमला किया गया था। इस हमले में 5 जवान शहीद हो गए तथा 15 घायल हुए, जिनमें से 1 की बाद में मौत हो गई। घाटी में इस प्रकार का आतंकवादी हमला लगभग 3 वर्ष बाद हुआ।
इस घटना से पहले वहां सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) हटाने की मांग जोरों पर थी। केन्द्रीय मंत्री फारुख अब्दुल्ला, मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला सहित अन्य विपक्षी दलों के नेता और अलगाववादी राज्य के कई हिस्सों से अफस्पा हटाने की मांग कर रहे हैं। लेकिन इस आतंकी हमले ने यह स्पष्ट कर दिया है कि घाटी के हालात अभी तक सामान्य नहीं हुए है और आतंक का खतरा बरकरार है।
जम्मू-कश्मीर के लिए यह बड़ी चिन्ता की बात है कि जैसे-जैसे वहां विधानसभा चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं, वैसे-वैसे पक्ष और विपक्ष के राजनीतिक दल (भाजपा तो छोड़कर) अपने दलों के हित के सामने राष्ट्र के हित की अनदेखी कर रहे हैं। इसके लिए कभी अफस्पा को मुद्दा बनाया जाता है और कभी संसद भवन पर हमले के अपराधी अफजल गुरु के मानवाधिकारों का रोना रोया जाता है। दुर्भाग्यपूर्ण तो यह कि यह सब विधानसभा के भीतर किया जाता है। अगर राज्य के नेताओं द्वारा ऐसा वातावरण बनाया जाएगा तो फिर अलगाववादियों और आतंकवादियों को ज्यादा कुछ करने की जरूरत ही नहीं रहेगी। अलगाववादी तत्व बार-बार सुरक्षाबलों द्वारा आम आदमी के मानवाधिकारों के हनन की बात करना शुरू कर देते हैं, पर जब कोई आतंकवादी गुट जवानों की हत्या कर देता है तब इन लोगों को मानवाधिकारों के हनन की बात याद नहीं आती है। पिछले 20 सालों के आंकड़ों का विश्लेषण करें तो इस दौरान देश के सुरक्षा बलों पर दर्ज मानवाधिकार हनन के 96 प्रतिशत मामले झूठे पाए गए। 1994 से जनवरी, 2013 के दौरान जम्मू-कश्मीर, उत्तर पूर्व तथा देश के अन्य हिस्सों में दर्ज कराए गए 1618 मामलों में से 1478 मामले जांच के बाद पूरी तरह झूठे पाए गए। इनमें से 1178 मामले राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के माध्यम से आए थे। जिनमें से 55 मामले सही पाए गए। जम्मू-कश्मीर में 999 मामले ही दर्ज हुए, मात्र 78 सही पाए गए। उत्तर पूर्व में 560 मामले दर्ज किए गए जिनमें झूठे मामलों की संख्या 460 थीं। इससे पता चलता है कि सुरक्षा बलों के खिलाफ शिकायतें और उनका दुष्प्रचार जनता की सोच बदलने के तरीके हैं, जिनका इस्तेमाल सुरक्षा बलों को कमजोर करने और उनका मनोबल तोड़ने के लिए किया जाता है।
आखिर हम सब इस सच को क्यों नहीं देख पा रहे हैं कि कश्मीरी लोगों को बरगलाने का काम कौन कर रहा है और इसके कैसे दुष्परिणाम हो सकते हैं? इस सोच के कारण ही अलगाववादियों और घोषित पाकिस्तानपरस्त तत्वों के साथ-साथ पत्थरबाजों की भी एक बड़ी जमात खड़ी हो गई है। कश्मीर केवल इसलिए समस्याग्रस्त नहीं है कि पाकिस्तान समर्थित आतंकी संगठन वहां सक्रिय है, बल्कि इसलिए भी है कि वहां के राजनेता अपनी सही भूमिका नहीं निभा रहे हैं। इसके अलावा केन्द्र सरकार का ढुलमुल रवैया भी काफी हद तक इसके लिए जिम्मेदार है। n (अडनी)
कांग्रेसी लड़ने में जुटे
l ¨É½þÉ®úɹ]Åõ के 35 में से 16 जिले ºÉÚJÉÉOɺiÉ l ±ÉMɦÉMÉ 12 हजार गांवों के 2 करोड़ से अधिक लोग |ɦÉÉÊ´ÉiÉ l˺ÉSÉÉ<Ç के नाम पर 35 हजार करोड़ रु. भी पानी में बहे
महाराष्ट्र में व्याप्त अकाल तथा सूखे की स्थिति को लेकर जहां राज्य के अधिकांश क्षेत्र, विशेषकर मराठवाड़ा संभाग समस्याग्रस्त है, वहीं राज्य के अधिकांश क्षेत्र में जनजीवन प्रभावित हो रहा है। पर अकाल की समस्या एवं बुनियादी जरूरतें समझने की बजाय कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस लड़ने में ही व्यस्त हैं। इस सारे विवाद की शुरुआत राज्य के शीर्ष नेता तथा केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने की। महाराष्ट्र में अकाल के कारण इस वर्ष की उपज से किसानों को हाथा धोना पड़ा है। ग्रामीण जनता को पेयजल तथा जानवरों को पीने के लिए पानी भी नहीं मिल रहा है। ऐसे में शरद पवार ने बयान दिया कि महाराष्ट्र में सूखे की इस स्थिति की रपट राज्य सरकार ने केन्द्र सरकार के कृषि मंत्रालय को नहीं भेजी, यही समस्या की जड़ है। राज्य के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण द्वारा केन्द्र सरकार को अकाल की स्थिति अवगत न कराने तथा रपट केन्द्र सरकार को न भेजने के कारण ही राज्य को पर्याप्त सहायता राशि आवंटित नहीं हो सकी, इसके लिए राज्य सरकार ही जिम्मेदार है। शरद पवार का कहना है कि रपट ने मिलने के परिणामस्वरूप राज्य को बड़े पालतू जानवरों के लिए प्रतिदिन 32 रुपए तथा उनके बच्चों के लिए 16 रु. प्रतिदिन की अनुदान राशि आवंटित हुई है, जोकि अकालग्रस्त क्षेत्र हेतु निर्धारित राशि से आधी है।
शरद पवार के इस आरोप का खण्डन इसी तर्ज पर कांग्रेस द्वारा भी किया गया। राज्य के पुनर्वास मंत्री डा. पतंगराव कदम ने पवार पर सीधा निशाना साधते हुए कहा कि शरद पवार राज्य में सूखे की स्थिति में भी दलगत राजनीति से ऊपर नहीं उठ रहे हैं और मुख्यमंत्री को दोषी ठहरा रहे हैं, जबकि वे चाहते तो बहुत कुछ कर सकते थे, क्योंकि उन्हें वास्तविक स्थिति पता थी। अब राज्य सरकार ने केन्द्रीय ग्राम्य विकास मंत्री जयराम रमेश को सूखाग्रस्त क्षेत्र की यात्रा पर बुलाकर महाराष्ट्र को अतिरिक्त राहत राशि देने का मार्ग खोज लिया है। वस्तुत: ऐसा करके कांग्रेस ने दोहरे लाभ पाये हैं। एक तो उसने अकाल से लड़ने के लिए मिलने वाली राशि बढ़ावा ली, दूसरी ओर शरद पवार को राजनीतिक मात भी दे दी। वास्तविकता यह भी है कि स्वयं कृषि मंत्री शरद पवार के लोकसभा क्षेत्र में अकाल से पीड़ित किसानों के द्वारा आत्महत्या का दौर निरन्तर जारी है।
n ¨É½þÉ®úɹ]Åõ से द.बा.आंबुलकर
चर्च ने किया मतांतरित ईसाइयों
की आस्था से विश्वासघात
मौजूदा समय में कैथोलिक चर्च के 168 बिशप (ईसाई समाज में सर्वाधिक ताकतवर पद) है। इनमें केवल 4 दलित बिशप हैं। 13 हजार डैयसेशन प्रीस्ट, 14 हजार रिलिजियस प्रीस्ट, 5 हजार बर्दज और 1 लाख के करीब नन है। जिनमें से केवल हजार–बारह सौ ही दलित–आदिवासी पादरी हैं और वह भी चर्च ढांचे में हाशिए पर पड़े हुए हैं।
पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट ने गुड फ्राइडे (29 मार्च) को पोप फ्रांसिस को ज्ञापन भेजकर भारत के कैथोलिक चर्च में सुधार लाने और चर्च द्वारा मतांतरित ईसाइयों के साथ विश्वासघात करने के बदले उन्हें वेटिकन की तरफ से मुआवजा देने की मांग की है। ईसाई नेता आर.एल. फ्रांसिस ने कहा कि भारत का चर्च मतांतरित ईसाइयों का विकास करने और उन्हें चर्च ढांचें में समानता उपलब्ध कराने की जगह उन पर अनुसूचित जातियों का ठप्पा लगवाने की भारत सरकार से तथाकथित लड़ाई लड़ रहा है, जबकि ईसाइयत में जातिवाद के लिए कोई स्थान नहीं है।
फ्रांसिस ने कहा कि आज भारतीय चर्च में आम ईसाई ही नहीं, उनके अधिकारों की बात करने वाले पादरियों और ननों का भी शोषण और उत्पीड़न किया जा रहा है। समानता की वकालत करने वाली ईसाइयत में हिन्दू वंचितों से अलग होकर ईसाइयत अपनाने वालों के साथ दूसरे दर्जे का व्यवहार किया जा रहा है। भारतीय चर्च आज ईसा के सिंद्वातों को भुलाकर साम्राज्यवाद को बढ़ाने में लगा हुआ है।
भारत की कुल ईसाई जनसंख्या का 80 प्रतिशत मूलत: अनुसूचित जाति एवं जनजाति समाज से है। इतनी बड़ी भागीदारी होने के बावजूद चर्च के निर्णायक स्थानों में उनकी कोई भागीदारी नहीं है।
भारतीय चर्च मतांतरित ईसाइयों की समास्याओं पर मौन साधे हुए अपने साम्राज्यवाद को बढ़ाने में लगा हुआ हैं। भारत में चर्च को कुछ संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं। भाषा और संस्कृति को संरक्षण देने वाली संवैधानिक धाराओं का दुरुपयोग करते हुए चर्च ने भारत में कितनी संपति इकट्ठी की है, इसकी निगरानी करने का कोई प्रावधान नही है। जबकि कई पश्चिमी देशों में इस तरह की व्यवस्था बनाई गई है। इसलिए भारतीय चर्चों और उनके संस्थानों को नियंत्रित करने के लिए कानून लाया बनाना चाहिए।
आर.एल. फ्रांसिस ने कहा कि जिन दलितों ने ईसाइयत को अपनाया, वह हिन्दू दलितों के मुकाबले जीवन की दौड़ में कहीं पीछे छूट गए हैं। जहां हिन्दू समाज ने विकास की दौड़ में पीछे छूट गए अपने इन अभावग्रस्त भाई-बहनों को आगे बढ़ने के अवसर उपलब्ध करवाये हैं, वहीं भारतीय चर्च ने अपना साम्राज्य बढ़ाने को प्रथमिकता दी है। पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट ने पोप फ्रांसिस एवं वेटिकन की सुप्रीम काउंसिल और वर्ल्ड काउंसिल आफ चर्चेज से मांग की है कि वह एवेंजलिज्म (धर्म प्रचार) पर खर्च होने वाले धन का उपयोग दलित ईसाइयों के विकास के लिये करे तथा कैथोलिक चर्च में बिशप का चुनाव करने का अधिकार आम ईसाइयों को näù*n n +É®ú.B±É. फ्रांसिस
टिप्पणियाँ