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इस 13 मार्च शुक्रवार को दुनिया भर के एक अरब से अधिक कैथोलिकों का प्रतिनिधित्व करने वाले 115 कार्डीनल नये पोप का चुनाव करने के लिए वेटिकन में इकट्ठा हुए। उन्हें मतदान कक्ष में बंद करके बाहर लोग उनके निर्णय की प्रतीक्षा करने लगे। काफी देर प्रतीक्षा के बाद काला धुआं बाहर अनिर्णय की निराशा लेकर बाहर आया। यह संकेत था कि कार्डीनल किसी स्पष्ट निर्णय पर नहीं पहुंच पा रहे हैं। किंतु कुछ देर बार सफेद धुआं बाहर निकला, जिसका संकेत था कि स्पष्ट बहुमत से नये पोप का चयन हो गया। पर, चयनित नाम विश्व को चौंकाने वाला था। ये सज्जन हैं दक्षिण अमरीका के अर्जेटीना देश की राजधानी ब्यूनोस एयर्स के आर्च बिशप 76 वर्षीय जॉर्ज लुईस बरबोगलियो। कैथोलिक चर्च के 2000 वर्ष लम्बे इतिहास में पहली बार एक गैर-यूरोपीय को पोप चुना गया है। यह कैसे संभव हो सका? यद्यपि 115 कार्डीनलों में से 60 यूरोप और 143 अमरीका का प्रतिनिधित्व करते हैं। लैटिन अमरीका से केवल 19, अफ्रीका से 11 और 5 भारतीयों को मिलाकर एशिया से केवल 10 कार्डीनल चयन प्रक्रिया में भाग ले रहे थे। इसका अर्थ है कि गैर-यूरोपीय व्यक्ति को पोप बनाने के पक्ष में यूरोप और उत्तरी अमरीका के कार्डीनलों ने भी अपना मत दिया। वैसे तो जॉर्ज बरबोगलियो स्वयं भी यूरोपीय मूल के हैं, क्योंकि एक पीढ़ी पहले उनके पिता इटली से आव्रजन करके अर्जेंटीना पहुंचे थे और वहां रेलवे में नौकरी करने लगे थे।
गरीबों का चर्च
कैथोलिक चर्च का सत्ता केन्द्र यूरोप से बाहर जाने का महत्व क्या है? कैथोलिक चर्च के चरित्र और दिशा पर इसका क्या परिणाम होगा? इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए पहले नये पोप के व्यक्तित्व को समझना होगा। जॉर्ज बरबोगलियो ने पोप चुने जाने के बाद अपने लिए पोप नाम फ्रांसिस प्रथम चुना। पोप पद पर चुने जाने वाले वे पहले जेसुईट हैं। जेसुईट संस्था की स्थापना 1540 में इग्नेरियस लोटाला ने की थी। उसके तुरंत बाद सेंट जेवियर फ्रांसिस भारत के गोवा क्षेत्र में आये थे। वहां उन्होंने पुर्तगाली सैनिक शक्ति की सहायता से स्थानीय हिन्दुओं के बलात पंथांतरण के लिये जो अत्याचार किए, वे बहुत डरावने हैं किंतु रोमन कैथोलिक चर्च के इतिहास में उनका बहुत ऊंचा स्थान है। नये पोप फ्रांसिस प्रथम ने पहले ही दिन यह स्पष्ट कर दिया कि उनके अपने पोप नाम सेंट जेवियर के अनुकरण पर नहीं अपितु छठीं शताब्दी के असीसी के संत फ्रांसिस के अनुकरण पर रखा है। ये फ्रांसिस करुणा के अवतार थे और स्वयं गरीबी का जीवन जीते थे।
अपने को फ्रांसिस आफ असीसी का नया अवतार बताने के लिए पोप ने पहले दिन से कैथोलिक चर्च को गरीबों का चर्च कहना शुरू कर दिया। अर्जेंटीना के अपने उत्साही उपासकों को संदेश दिया कि वे पोप पद पर मेरे अभिषेक का साक्षी बनने के लिए वेटीकन आने के बजाए इस यात्रा पर जो व्यय होता उसे गरीबों में वितरित कर दें। स्वयं भी 19 मार्च को अपने अभिषेक कार्यक्रम में उन्होंने पोप पद के साथ जुड़ी पुरानी राजसी प्रथाओं को त्यागकर सामान्य पादरी के वेष में उपस्थित होना उचित समझा। वे रत्न-जड़ित ताज की जगह सादी सफेद टोपी पहनकर मंच पर आये। सोने-चांदी की नक्काशी के साथ रंग बिरंगे रेशमी चोगे के बजाए सामान्य सफेद परिधान ही धारण किये रहे। छाती पर सोने का क्रास न लटकाकर उन्होंने पुराना सादा क्रास ही लटकाना उचित समझा। लगभग डेढ़ लाख श्रद्धालुओं की भीड़ को उन्होंने गरीबी और उत्पीड़ितों की सेवा के लिए दान और सादगी का उपदेश दिया। परंतु उसके दो दिन पहले कार्डीनलों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने दुनिया के प्रत्येक कोने में आस्था का संदेश पहुंचाने के लिए नये-नये उपाय खोजने का आह्वान किया। आस्था यानी रोमन कैथोलिक चर्च के प्रति दृढ़ विश्वास। दूसरे शब्दों में कहना हो तो वे विलासिता, आर्थिक भ्रष्टाचार और यौन दुराचार के गर्त में धंसे हुए कैथोलिक चर्च में पुन: मिशनरी आवेश की ऊर्जा भरना चाहते हैं। वस्तुत: उनकी जेसुईट दीक्षा कट्टरता व विस्तार का प्रेरणास्रोत है। सोलहवीं शताब्दी में जेसुईट सम्प्रदाय बलपूर्वक पंथांतरण का निर्दयी हथियार बनकर सामने आया। इस सम्प्रदाय ने अपने से भिन्न मतवालों को सूली पर फांसी की खूनी परंपरा आरंभ की। दक्षिण अमरीकी और उत्तरी अमरीका के मूल निवासियों का उच्छेद और पंथांतरण में जेसुईट कट्टरवाद की मुख्य भूमिका रही। जेसुईट सम्प्रदाय रोमन कैथोलिक चर्च के उत्कर्ष की सहज परिणति थी। रोमन कैथोलिक चर्च का उत्कर्ष सातवीं शताब्दी के बाद तब हुआ जब हजरत मुहम्मद द्वारा संगठित अरब कबीलों ने इस्लाम की पताका लेकर पश्चिमी एशिया और उत्तरी अफ्रीका को पादाक्रांत करते हुए भारत के साथ यूरोप के जल और स्थल व्यापार मार्गों पर अधिकार जमा लिया। साथ ही ईसाइयत की मूल धारा, जिसे पूर्वी या आर्थोडोक्स चर्च कहा जाता है, को पूरी तरह अवरुद्ध कर दिया। उस संकट काल में पूर्वी व्यापार से समृद्ध हुई मिलान, फ्लैटेंस आदि इतालवी नगरों के धनिकों की सहायता से रोमन कैथोलिक चर्च इस्लाम विस्तारवाद के विरुद्ध ईसाई प्रतिरोध का अगुवा बन गया। उसी के बाद यूरोप के भी बड़े क्षेत्र में ईसाई मत का प्रसार हुआ और कोलम्बस आदि साहसी इतालवी नाविकों की सहायता से भारत पहुंचने का मार्ग खोजते-खोजते उत्तरी और दक्षिणी अमरीकी महाद्वीपों और अफ्रीका महाद्वीप में यूरोपीय शक्तियों ने प्रवेश किया।
अनैतिक और पाश्वी उपाय
इस्लाम का अंधानुकरण करते हुए अनैतिक और पाश्वी उपायों से मत परिवर्तन का धंधा अपनाया। इसी क्रम में अर्जित समृद्धि के बल पर शिक्षा एवं चिकित्सा को मतान्तरण का हथियार बनाया। ईसा मसीह ने निष्काम त्याग, दया और सेवा का जो मंत्र दिया था उसे मतान्तरण द्वारा अपनी संख्या को बढ़ाने का माध्यम बना लिया गया। क्या नये पोप फ्रांसिस प्रथम कैथोलिक चर्च को पुन: उसी मार्ग पर ले जाने का सपना देख रहे हैं? यह प्रश्न यूरोप और उत्तरी अमरीका के लिए भले ही चिंता का विषय न हो पर अफ्रीका और भारत जैसे देशों के लिए भारी चिंता की बात है। रोमन कैथोलिक चर्च विश्व का सबसे बड़ा संगठित तंत्र है। विश्व की जनसंख्या का 16.85 प्रतिशत भाग अभी भी कैथोलिक चर्च का अनुयायी है। किसी भी अन्य उपासना पंथ के पास पोप जैसा शिखर पद नहीं है। इस्लाम, बौद्ध, यहूदी, प्रोटेस्टेंट ईसाई या शैव वैष्णव आदि हिन्दू सम्प्रदायों में से किसी के पास ऐसा सर्वमान्य केन्द्रीय पद नहीं है। पोप के प्रधान कार्यालय वेटिकन को एक स्वतंत्र राज्य की मान्यता प्राप्त है। पोप के अभिषेक कार्यक्रम में भारत सहित अनेक देशों ने अपने प्रतिनिधिमंडल भेजे। इसलिए पोप यदि चाहें तो विशाल रोमन कैथोलिक चर्च को आत्मशुद्धि के पथ पर बढ़ाकर विश्व में त्याग, सेवा और प्रेम का ईसामसीह की मूल चेतना को पुन: प्रवाहित कर सकते हैं।
पोप फ्रांसिस प्रथम कैथोलिक चर्च के भीतर कट्टरवाद और परिवर्तनवाद के बीच चल रहे अन्तर्संघर्ष में किधर खड़े हैं? समलैंगिक विवाह, गर्भपात और भूमंडलीकरण जैसे प्रश्नों पर फ्रांसिस प्रथम अब तक कट्टरवादी खेमे में ही खड़े रहे हैं। यदि यही रहा तो उनका दया, दान और सादगी का आग्रह मतान्तरण का बाहरी आवरण मात्र बनकर रह जाएगा। उनके पोप चुने जाने के बाद अर्जेंटीना से उनके पुराने जीवन के बारे में जो जानकारी सामने आ रही है उनसे विदित होता कि 1976 से 1983 तक अर्जेंटीना जब तानाशाही से जूझ रहा था तब आर्च बिशप बरबोगलियो बड़ी चतुराई से तानाशाही की दमनलीला का साथ दे रहे थे। उस संघर्ष को डर्टी वार्स (गंदे युद्ध) के नाम से स्मरण किया जाता है। उन पर आरोप है कि उन्होंने दो जेसुईट पादरियों की गिरफ्तारी में भी सहयोग दिया था, यद्यपि वेटिकन ने इस आरोप का खंडन किया है। किंतु पोप फ्रांसिस को उनके अर्जेंटीना के दिनों से निकट से जानने वाले पत्रकारों का कहना है कि नये पोप की सादगी के पीछे एक कुशल राजनीतिज्ञ का व्यक्तित्व छिपा है। उनके बाहरी चाल-ढाल से उनके अन्तर्मन को नहीं जाना जा सकता है। रोमन कैथोलिक चर्च के विशाल अनुयायी वर्ग और साधनों का स्वामित्व पाकर ऐसा व्यक्तित्व बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकता है।
कुछ नहीं सीखा
विश्व के प्रत्येक कोने में 'आस्था' के विस्तार के लिए नये-नये उपायों को खोजने का उनका आह्वान प्रमाणित करता है कि विश्व और स्वयं अपने चर्च के इतिहास से उन्होंने कुछ नहीं सीखा है। क्या सचमुच उन्हें यह अहसास नहीं है कि रोमन कैथोलिक चर्च का मतान्तरण का मिशन पूरी तरह असफल रहा है? यूरोप और अमरीका में पादरियों की विलासिता और यौन दुराचार के कारण चर्च में जाने वालों की संख्या तेजी से घट रही है। भारत में 400-500 वर्ष पूर्व के मतान्तरितों का आर्थिक, सामाजिक और चारित्रिक उद्धार तनिक नहीं हो पाया चर्च स्वयं उन्हें दलित श्रेणी में रख रहा है। सातवीं शताब्दी से इस्लाम के विरुद्ध प्रतिरोध का अगुवा बनने के बाद चर्च अब भी इस्लाम को विस्तारवाद और कट्टरवाद के पथ से विरत नहीं कर पा रहा है। उल्टे नये पोप ने पहली घोषणा यह की कि वे इस्लाम के साथ सुलह वार्ता की प्रक्रिया आरंभ करेंगे। अमरीकी विचारक हन्टिगटन के अनुसार इस्लाम और ईसाइयत के बीच सभ्यतामूलक वैश्विक संघर्ष आरंभ हो गया, जिसके लक्षण सन् 2001 में 11 सितम्बर को न्यूयार्क पर हमले के साथ प्रगट भी हो गये। पर, दिखायी देता है कि इन 11-12 वर्षों में सैनिक मोर्चे के साथ-साथ सामाजिक मोर्चे में भी इस्लाम अधिक आक्रामक होता जा रहा है और ईसाई देश शिथिल पड़ रहे हैं। यूरोप में फ्रांस, जर्मनी, डेनमार्क जैसे ईसाई देश इसके साक्षी हैं। पोप फ्रांसिस की इस्लाम से सुलह वार्ता की योजना इस्लामी विचारधारा के कट्टरवाद और विस्तारवाद से मुक्त कराने की योजना है या हिन्दू और बौद्ध जैसे विकेन्द्रित समाजों के विरुद्ध विस्तारवादी गठबंधन?
क्या पोप फ्रांसिस के पास इस्लामी विचारधारा की कट्टरवादिता, विस्तारवाद और पृथकतवाद से बाहर निकलने का कोई फार्मूला है? यदि है तो उस फार्मूला को बौद्धिक व आचरण के धरातल पर उन्हें जल्द से जल्द प्रस्तुत करना चाहिए। इस दिशा में सबसे पहला कदम यह हो सकता है कि इक्कीसवीं शताब्दी में मतान्तरण के संगठित प्रयासों की व्यर्थता को वे सार्वजनिक रूप में स्वीकार करें और इसके प्रमाणस्वरूप रोमन कैथोलिक चर्च की आस्था को विश्व के कोने-कोने में पहुंचाने की विस्तारवादी महत्वाकांक्षा का परित्याग करें। क्या पोप फ्रांसिस प्रथम छठवीं शताब्दी के असीसी के संत फ्रांसिस के सच्चे अनुयायी सिद्ध हो सकेंगे? देवेन्द्र स्वरूप
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