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सरकार बचाओ, देश डुबाओ

by
Mar 23, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 23 Mar 2013 13:01:00

देवेन्द्र स्वरूप

इसे गठबंधन धर्म कहें या निर्लज्ज सत्ता राजनीति? गठबंधन धर्म का अर्थ होता है किसी एक दल को स्पष्ट जनादेश के अभाव की स्थिति में राष्ट्रहित के लिए अपने दलीय स्वार्थों को पीछे रखकर देश को अगले चुनाव तक स्थायी सरकार देने के लिए गठबंधन करना। स्पष्ट है कि गठबंधन धर्म में राष्ट्रहित सर्वोपरि होता है, दलीय स्वार्थ और सत्ता से चिपके रहने की भूख गौण। पर पिछले दस वर्ष से हम केन्द्र में सत्ता से चिपके रहने की अवसरवादी राजनीति का नंगा नाच देख रहे हैं।

'कमीशन' की सरकार

संप्रग-1 माकपा नेता हरकिशन सिंह सुरजीत की शकुनि कूटनीति में से पैदा हुआ था। यह वाममोर्चे के साथ गठबंधन की बैसाखियों पर टिका था, पर 2008 में वाममोर्चे ने अकस्मात अपना समर्थन वापस ले लिया तो सबसे बड़े दल सोनिया कांग्रेस ने अन्य दलों के वोट खरीदे। संप्रग सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा की मानें तो, 'मुलायम सिंह को कमीशन देकर खरीदा।' संप्रग-2 की कहानी तो बहुत ही शर्मनाक है। वह गठबंधन के सदस्यों को लगातार खोती जा रही है। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के साथ मिलकर सोनिया कांग्रेस ने चुनाव लड़ा, पर कुछ ही समय में तृणमूल कांग्रेस को गठबंधन से बाहर जाने को बाध्य कर दिया। इसी प्रकार झारखंड विकास मोर्चा आदि कई छोटे-छोटे दलों का समर्थन खो दिया। पर वह पर्दे के पीछे सौदेबाजी करके मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के 21-21 सांसदों का बाहर से समर्थन लेकर अपने को सत्ता में बनाए रखने में सफल रही। निश्चित ही इन दोनों का समर्थन किसी सिद्धांत पर आधारित नहीं है। दोनों दलों ने खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का तीखा विरोध करके भी लोकसभा और राज्यसभा में सरकारी विधेयक को पास करवाने की रणनीति अपनायी। मायावती और मुलायम सिंह- दोनों पर भ्रष्टाचार के मामलों में सीबीआई जांच की तलवार लटकी हुई है। पर दिखावे के लिए मायावती ने नौकरियों में अनुसूचित जाति/जानजाति की पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे को खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी निवेश के मुद्दे से बड़ा माना और सरकार के पक्ष में मतदान किया, जबकि मुलायम सिंह ने अपना चेहरा बचाने के लिए बहिर्गमन का रास्ता अपनाया।

अब द्रमुक के 18 सदस्यों के समर्थन वापस लेने के बाद तो सरकार स्पष्ट रूप से अल्पमत में आ गयी है पर उसके प्रवक्ता और वित्त मंत्री पी.चिदम्बरम और संसदीय मामलों के मंत्री कमलनाथ निर्लज्जता से दावा कर रहे हैं कि हमारी सरकार को पूर्ण बहुमत प्राप्त है, वह बिल्कुल स्थिर है। लोकसभा सदस्यों के दलगत आंकड़े तो ऐसा नहीं कहते। फिर इस गर्वोक्ति का आधार क्या है?

नैतिकताविहीन गठजोड़

समर्थन वापस लेने की धमकी द्रमुक ने पहली बार नहीं दी है, इससे पहले भी वह कई बार धमकी देकर वापस ले चुकी है। किंतु इस बार समर्थन वापसी के नाटक को काफी गंभीर रूप दिया गया। तमिलनाडू में अपनी खोयी हुई जमीन को वापस पाने की लालसा में द्रमुक ने स्वयं को तमिल अस्मिता और भावनाओं के रक्षक के रूप में उभारने का प्रयास किया। श्रीलंका की सिंहली सरकार द्वारा तमिल अल्पमत के नरमेध को मुद्दा बनाकर तमिलनाडु में श्रीलंका-विरोधी उन्माद भड़काया गया। छात्रों को सड़कों पर उतारा गया। श्रीलंका से भारत आने वाले बौद्ध भिक्षुओं एवं श्रद्धालुओं पर हमले कराये गये। तमिलनाडु में श्रीलंका की क्रिकेट टीम के प्रवेश का बहिष्कार करने की घोषणा की गयी। पर श्रीलंका के तमिलों ने भी द्रमुक के इस नाटक को गंभीरता से नहीं लिया। उनका मत है कि तमिलनाडु की चुनावी राजनीति में अपने खोये जनाधार को वापस पाने के लिए श्रीलंका के तमिलों के प्रति सहानुभूति के मगरमच्छी आंसू बहाये जा रहे हैं। उनका आरोप है कि 2009 में जब श्रीलंका सेना ने अपनी विजय के अंतिम चरण में 40,000 तमिलों का नरमेध किया, उन पर वीभत्स अत्याचार ढाए, तब करुणानिधि ने मद्रास के समुद्र तट पर महज आधे दिन का उपवास रख ढोंग रचा था। यदि श्रीलंका के तमिलों के प्रति उनके मन में सच्ची सहानुभूति और वेदना है तो जिन राजीव गांधी ने लिट्टे और तमिलों का दमन करने के लिए श्रीलंका सरकार के हाथ में भारतीय शांति सेना (इंडियन पीस कीपिंग फोर्स-आईपीकेएफ) जैसा हथियार सौंप दिया था और शांति सेना के अत्याचारों की प्रतिक्रिया में ही उनकी हत्या हुई थी, उन्हीं राजीव गांधी की वंशवादी पार्टी के साथ द्रमुक ने गठबंधन करना उचित क्यों समझा? और राजीव गांधी की विधवा सोनिया ने भी अपने पति के हत्यारों से हाथ मिलाना आवश्यक क्यों समझा?

गृह कलह की आग

वस्तुत: द्रमुक की आंतरिक हालत इस समय बहुत दयनीय है। वह आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी है। सोनिया गठबंधन में उसके ही कई मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार हुए या त्यागपत्र देने को बाध्य हुए। वयोवृद्ध करुणानिधि के वंश में उत्तराधिकार के लिए उनके बेटों और बेटियों के बीच गृहयुद्ध चल रहा है। उनके पुत्र स्टालिन और अझागिरि एक-दूसरे को फूटी आंख नहीं देख सकते। उनके पुत्रों के अनुयायियों ने सड़कों पर हिंसक दृश्य खड़े किये। इस बार भी करुणानिधि सरकार से समर्थन वापस लेने की सीमा तक नहीं जाना चाहते थे, केवल गीदड़ भभकियों से काम चलाना चाहते थे। इसलिए उनकी ओर से पहली गीदड़ भभकी पर ही तीन वरिष्ठ मंत्री पी.चिदम्बरम, ए.के.एंटोनी और गुलाम नबी आजाद दौड़े-दौड़े करुणानिधि के दरबार में हाजिर हुए, उनकी मिन्नत की। किंतु उनके वापस जाते ही स्टालिन ने पार्टी से त्यागपत्र देने की धमकी देकर करुणानिधि को समर्थन वापसी का पत्र भेजने पर बाध्य कर दिया। प्रधानमंत्री के हाथों में वह पत्र पहुंच भी गया। अब बारी थी केन्द्रीय मंत्रिमंडल में द्रमुक के सदस्यों द्वारा त्यागपत्र की। द्रमुक के कोटे से बने केन्द्रीय मंत्री भी दोनों पुत्रों के बीच विभाजित हैं। इसलिए अझागिरि के तीन अनुयायी अलग और स्टालिन के तीन अनुयायी अलग से त्यागपत्र देने गये। वे सब त्यागपत्र स्वीकार कर लिये है। समर्थन वापसी फिलहाल सच्ची लगती है। किंतु करुणानिधि ने अपने सांसदों को निर्देश दिया है कि वे वित्त विधेयक के विरुद्ध मतदान न करें, सरकार के गिरने की स्थिति न पैदा होने दें। इस दोमुंही राजनीति के पीछे क्या रणनीति हो सकती है? क्या इसके पीछे केन्द्र सरकार के हाथों उत्पीड़न का भय है? क्या स्टालिन के घर और कार्यालय पर सीबीआई का छापा इसके पूर्व संकेत हैं? 2011 के विधानसभा चुनावों में तमिलनाडु की सत्ता और अब केन्द्र सरकार में अपना बचा-खुचा दखल खो देने के बाद गृह कलह और भ्रष्टाचार से घिरे वयोवृद्ध करुणानिधि की मनोदशा क्या होगी, इसका सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है।

बेवजह की मांग

पर करुणानिधि जैसे राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी ने इस समय तमिल भावनाओं को भड़काने के लिए श्रीलंका में तमिलों के नरमेध के मुद्दे को ही उठाना क्यों उचित समझा? वे जानते थे कि 21 मार्च को जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की बैठक में अमरीका एक प्रस्ताव रखने जा रहा है, जिसमें श्रीलंका की सेनाओं द्वारा तमिलों की हत्या और दमन के सत्य को सामने लाने के लिए श्रीलंका सरकार को एक निष्पक्ष जांच कराने का निर्देश दिया जाएगा। करुणानिधि ने मांग उठायी कि भारतीय संसद भी श्रीलंका की निंदा में प्रस्ताव पारित करे और अमरीकी प्रस्ताव में नरमेध जैसे शब्दों का प्रयोग करके उस प्रस्ताव को और अधिक श्रीलंका विरोधी बनाये। स्पष्ट रूप से यह विषय विदेश नीति के अन्तर्गत आता है और संघीय व्यवस्था में विदेश नीति केन्द्र के अधिकार क्षेत्र में आती है। अत: राज्यों का विदेश नीति में हस्तक्षेप संघीय व्यवस्था को तो नष्ट करता ही है, देश के अन्तरराष्ट्रीय हितों को भी हानि पहुंचाने का कारण बन सकता है। पहले तृणमूल कांग्रेस ने बंगलादेश के साथ 'तीस्ता समझौते' का विरोध  करके यह स्थिति पैदा की थी और अब करुणानिधि वही संकट खड़ा करने लगे। क्या उन्हें पता नहीं है कि श्रीलंका पहले ही चीन के प्रभाव क्षेत्र में जा रहा है। वह चीन और पाकिस्तान से हथियार खरीद रहा है। चीन उसकी नौसेना में प्रवेश कर चुका है, अंतरिक्ष और उपग्रह के क्षेत्र में वह श्रीलंका, मालदीव और बंगलादेश को सहायता देने की पेशकश कर रहा है। कुशल रणनीति के कारण चीन भारत के सब पड़ोसी देशों में अपने पैर फैला चुका है। पाकिस्तान, नेपाल, म्यांमार, बंगलादेश और श्रीलंका आदि भारत के सभी पड़ोसी देशों में उसका प्रभाव बढ़ता जा रहा है। क्या इस स्थिति से बाहर निकलने के उपाय भी हमें नहीं खोजने चाहिए?

देशघातक विदेश नीति

भारतीय संसद में श्रीलंका की निंदा का प्रस्ताव पारित करने के निहितार्थ क्या हैं? क्या करुणानिधि ने इस बारे में कुछ नहीं सोचा? आश्चर्य तो यह कि सोनिया पार्टी भी इसके लिए तैयार हो गयी और उसने संसद में रखने के लिए प्रस्ताव के प्रारूप पर चर्चा करने के लिए सर्वदलीय बैठक भी बुला डाली। उसने यह क्यों नहीं सोचा कि अफजल गुरु की फांसी पर पाकिस्तानी संसद द्वारा पारित प्रस्ताव पर हमारी क्या प्रतिक्रिया थी? हमने उसे अपने देश के आंतरिक मामलों में विदेशी हस्तक्षेप के रूप में देखा और उसके प्रतिकार स्वरूप अपनी संसद में एक निंदा प्रस्ताव पारित किया। यदि हम श्रीलंका की आंतरिक समस्या पर प्रस्ताव पारित करते हैं तो क्या इसे कश्मीर और अरुणाचल के बारे में अन्य देशों को हस्तक्षेप करने का निमंत्रण देना नहीं होगा? अच्छा ही हुआ कि उस बैठक में बुलाये गये भाजपा सहित सभी बड़े  दलों ने उस प्रारूप पर आपत्ति उठायी और उसका विचार छोड़ देने के लिए सरकार को विवश किया। फिर भी भारत सरकार ने आज (21 मार्च को) जिनेवा में हुई बैठक में अपने प्रतिनिधि को अमरीकी प्रस्ताव में कुछ संशोधन पेश करने की तैयारी के साथ भेजा। किन्तु भारतीय प्रतिनिधि उन संशोधनों को पेश नहीं कर पाये और अमरीकी प्रस्ताव के पक्ष में मतदान कर बैठे। तेरह देशों ने उस प्रस्ताव के विरुद्ध मत देने का साहस किया। दु:ख है कि भारत उनमें नहीं है। श्रीलंका इस प्रस्ताव को अपने विरुद्ध मान रहा है और इसलिए भारत द्वारा उसके समर्थन को वह अपने विरुद्ध ही मानेगा। श्रीलंका को मित्र बनाने की बजाए हम उसे दूर धकेल रहे हैं। सोनिया सरकार की अदूरदर्शी और नासमझ विदेश नीति के कारण अन्तरराष्ट्रीय जगत में भारत की स्थिति हास्यास्पद होती जा रही है। इटली के दो नौसैनिकों द्वारा केरल के तट पर दो भारतीय मछुआरों की हत्या के प्रश्न पर इटली सरकार और उसके भारत स्थित राजदूत ने भारत सरकार की जो अवमानना की है, वह शर्मिंदा करती है। राजदूत के लिखित आश्वासन पर सर्वोच्च न्यायालय ने उन दो नौसैनिकों को वहां के चुनाव में मतदान करने के लिए इटली जाने दिया और अब भारत सरकार के मांगने पर भी इटली सरकार ने उन्हें वापस भेजने से मना कर रही थी। इतना ही नहीं, यूरोपीय संघ ने भी इटली की हठधर्मी को टोकने के बजाय उसी का समर्थन किया। हां, सर्वोच्च न्यायालय को कठोर निर्देश, इटली के राजदूत के भारत छोड़ने पर रोक के बाद इटली की अकड़ ढीली पड़ी और उसे दोनों नौसेनिकों को भारत भेजने पर विवश होना पड़ा। क्या इस हास्यास्पद स्थिति के लिए हमें लज्जित नहीं होना चाहिए। किंतु जब सत्ता में बने रहना ही एकमात्र लक्ष्य हो, सत्ता देश के लिए नहीं- अपने वंश के लिए हो, और सरकारी खजाने से पूरे पूरे पृष्ठ के विज्ञापनों में अपने चित्र छपवाकर दुनिया में सर्वाधिक लोकप्रिय महिला का आभामंडल प्राप्त करना संभव हो तो राष्ट्र के लिए सत्ता नहीं, सत्ता के लिए राष्ट्र की बलि चढ़ायी जाती है। सत्ता के लिए एक ओर सोनिया, बेनी बर्मा की असभ्य भाषा के लिए मुलायम सिंह से हाथ जोड़कर माफी मांग सकती हैं तो दूसरी ओर कांग्रेस ससंदीय दल की बैठक में अपने सांसदों को भाजपा को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए उकसा सकती हैं।

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