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प्रतिवर्ष हजारों टन अनाज गोदामों में सड़ जाता है। दूसरी ओर देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिनको भरपेट भोजन नहीं मिलता है। हमारे ऋषि–मुनियों ने अधिक अन्न पैदा करने को व्रत कहा है और अन्न संरक्षण पर जोर दिया है। प्रस्तुत लेख में उपनिषद् में वर्णित अन्न के महत्व को बताया गया है।
अन्न समान्य पदार्थ नहीं। यह जीवन का मूलाधार है। वैदिक साहित्य में अन्न के प्रति अतिरिक्त आदरभाव प्रकट किया गया है। भौतिकवादी विद्वान उपनिषद् दर्शन पर भाववाद का आरोप लगाते हैं। वे उपनिषदों में मौजूद भौतिकवाद की उपेक्षा करते हैं। तैत्तिरीय उपनिषद् उत्तरवैदिक काल की प्रीतिकर रचना है। इसके सातवें, आठवें और नवें अनुवाक् में अन्न की प्रतिष्ठा है। यहां अति सरल और छोटे-छोटे वाक्यों में अन्न की दिव्य अनुभूति है। कहते हैं, अन्नं न निन्द्यात – अन्न की निन्दा न करें। तत् व्रतम – यह व्रत – निश्चय है। प्राणो व अन्नम् – अन्न ही प्राण है। प्राण ही अन्न हैं। शरीर अन्न में प्रतिष्ठित है। यहां प्राण व शरीर दोनों ही अन्न में प्रतिष्ठित बताए गये हैं। बताते हैं कि जो यह बात ठीक से जान लेता है वह अन्नवान पशुधन से युक्त और सम्पूर्ण तेज से भर जाता है और यशस्वी भी हो जाता है। यहां किसी अंधविश्वास की स्थापना नहीं है। सामान्य ज्ञान की ही बातें हैं। कोई कह सकता है कि इसमें नया क्या है? लेकिन ध्यान से जांचने पर यहां नितांत नई स्थापना है। नई बात है अन्न के प्रति आदरभाव की।
अन्न उपयोगी है। सो अन्न उत्पादन जरूरी है। यह दृष्टि उपयोगितावादी है। अन्न में प्राण है। अन्न से प्राण है। अन्न प्राणवान है। जीवमान सत्ता है इसलिए इसकी निन्दा नहीं करेंगे। यही व्रत है। उपनिषद् की यह दृष्टि संवेदनशील है। इस बोध में अन्न नमस्कारों के योग्य हो जाते हैं। उपनिषद् के आठवें अनुवाक् में भी अन्न की ही प्रतिष्ठा है। कहते हैं, अन्नं न परिचक्षीत, तत् व्रतम् अर्थात् – अन्न की अवहेलना न करें, यह व्रत है। जल ही अन्न है, जल में तेज प्रकाश है। अन्न में अन्न की प्रतिष्ठा है। निन्दा, प्रशंसा और अवहेलना जैसी क्रियाएं मनुष्यों को बुरी लगती हैं। भौतिकवादी दृष्टिकोण में अन्न पर निन्दा, स्तुति या अवहलेना का प्रभाव नहीं पड़ता। अन्न निन्दा स्तुति नहीं सुनता। अन्न पर निन्दा स्तुति का प्रभाव भले ही न पड़ता हो लेकिन हम सब पर इस सोच का असर पड़ता ही है। हम अन्न के निन्दक होते हैं, उसकी उपेक्षा करते हैं, तो अन्न के संरक्षक की भूमिका में नहीं रहते। इसीलिए अन्न के वर्णन में ऋषि बार-बार दोहराते हैं कि जो ये बातें जानते हैं वे अन्न सम्पन्न बनते हैं, यशस्वी और कीर्तिवान बनते हैं, पशुधन सम्पदा से युक्त होते हैं। उपनिषद् के ऋषि की अर्न्तदृष्टि गहरी है।
उपनिषद् के ऋषि वैज्ञानिक भौतिकवाद से आगे की बातें करते हैं। वैज्ञानिक भौतिकवाद अपूर्ण है। अर्द्धसत्य पर आधारित है। रोटी-अन्न भौतिकवाद में भी प्रथम आवश्यकता है लेकिन उपनिषद् के ऋषि इस आवश्यकता को संस्कार देते हैं। वे दोहराते हैं – तत् व्रतम्। यह व्रत है, संकल्प है। सामान्य जीवन में हम सब व्रत का अर्थ भोजन छोड़ने या 'फास्ट' से लेते हैं। उपनिषद् के ऋषि कहते हैं, समय पर भोजन जरूरी है – तत् व्रतम्। यही व्रत है। अन्न अपरिहार्य है। अन्न की जरूरत टाली नहीं जा सकती। मांसाहार अन्न का विकल्प नहीं, विकृति है। उपनिषदों और पतंजलि के योगसूत्रों के रचनाकाल में लम्बा फासला है। कोई तीन हजार वर्ष का। उपनिषद् के ऋषि शरीर को 'अन्नमय कोष' कहते हैं, अन्न से निर्मित, अन्न ऊर्जा से भरपूर है, अन्नमय कोष। पतंजलि भी यही शब्द प्रयोग करते हैं। अन्नमय कोष के बाद 'प्राणमय कोष' बताते हैं और दोनो को अन्न-जरूरत से जोड़ते हैं। शरीर की जरूरतों का ऐसा सरल, सुबोध सामान्य विज्ञान ऋषियों ने गाकर समझाया था। अन्न जरूरी है। पं0 नेहरू की सरकार के समय पूरे देश में पोस्टर लगाए गए थे- 'अधिक अन्न उपजाओ।' राष्ट्र की अन्न जरूरत वाले इस सरकारी आह्वान को अन्न की आत्मनिर्भरता से जोड़ा गया था।
पं0 नेहरू के हजारों वर्ष पहले तैत्तिरीय उपनिषद् के ऋषि ने नवें अनुवाक् की शुरुआत में कहा था 'अन्नं बहुकुर्वीत, तत् व्रतम्। अधिक अन्न पैदा करो, यह व्रत है।' बात इतनी ही होती तो सरकारी होती। ऋषि ने आगे जोड़ा, 'यह पृथ्वी अन्न है। आकाश अन्नाद – अन्न का आधार है। पृथ्वी में आकाश है, आकाश में पृथ्वी है। अन्न अन्न में प्रतिष्ठित है। जो यह बात जानते हैं, अन्न सम्पन्न होते हैं। यशस्वी होते हैं। महान होते हैं – महान भवित, महान कीर्तया। भारत को खाद्यान्न आत्मनिर्भरता चाहिए। अन्न उत्पादन जरूरी है। ऋषि कहते हैं – यह व्रत है। वे व्रत संकल्प बताकर चुप नहीं होते। वे इस आवश्यकता के व्यापक दर्शन भी समझाते हैं, शरीर अन्नमय है। प्राण अन्न है। अन्न प्राण है। पृथ्वी अन्न है। आकाश अन्न का आधार है। बार-बार कहते हैं कि यह बात जानना समझना बहुत जरूरी है। वे ये बातें जानने के फायदे भी समझाते हैं। उपनिषद् के इस खण्ड में कहीं भी कोई अंधविशास नहीं। ऋषि ईश्वर को अन्नदाता नहीं बताते और न ही देवताओं से अन्न सम्पन्नता की स्तुतियां करते हैं।
उपनिषद् का अन्न क्षेत्र परिशुद्ध वैज्ञानिक है, यहां कोई परलोक नहीं, कोई अंधविश्वास नहीं। अन्न की आवश्यकता पर ही जोर है। बताते हैं कि 'घर आए अतिथि से प्रतिकूल वार्ता न करें, यह व्रत है। इसलिए परिश्रमपूर्वक ढेर सारा अन्न संग्रह करना चाहिए। अतिथि से अनुरोध करना चाहिए कि भोजन तैयार है, आइए अन्न लीजिए।' अतिथि सत्कार प्राचीन भारतीय संस्कृति है। तब अतिथि को भोजन कराना ही मुख्य आदर था। आधुनिक भारत चाय पर ही अटक गया है। कुछ समय पहले कहते थे, चाय तैयार है, आप चाय पीकर ही जाएं। अब पूछते हैं कि क्या आप चाय लेंगे? कुछ लोग अब कोल्ड ड्रिंक से बहुत आगे बढ़कर दारू से भी अतिथि सत्कार करने लगे हैं। नया सूत्र और भी दिलचस्प है, पूछते हैं, 'अतिथि कब वापस जाओगे।' ऋषि कहते हैं घर आए किसी भी अतिथि से प्रतिकूल व्यवहार न करें। उपनिषद् सामान्य शिष्टाचार को भी व्रत बताती है, ल%
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