फिर से बोलो 'वन्देमातरम्'
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फिर से बोलो 'वन्देमातरम्'

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Mar 23, 2013, 12:00 am IST
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फिर से बोलो 'वन्देमातरम्'

दिंनाक: 23 Mar 2013 13:19:36

डा.सतीश चन्द्र मित्तल

महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद प्रथम दो वर्षों तक अपने सभी व्यक्तिगत पत्रों की समाप्ति 'वन्देमातरम्' से की। इतना ही नहीं, उन्होंने 1 जुलाई, 1939 के 'हरिजन' में लिखा, 'मुझे कभी नहीं लगा कि यह (वन्देमातरम्) हिन्दू गीत है, या फिर केवल हिन्दुओं के लिए ही है। दुर्भाग्यवश, हमारे बुरे दिन आ गए हैं। पहले जो शुद्ध सोना हुआ करता था आज महज खोटी धातु बन गया है।' श्री अरविन्द ने भी 'वन्देमातरम्' को स्वतंत्रता आंदोलन का नूतन मंत्र बताया।

 

रवीन्द्र नाथ टैगोर ने लिखा, 'मैंने जब वन्देमातरम् गीत संगीतबद्ध किया, हृदय कंपित हो गया। यह गीत नहीं, वरन एक ज्वालामुखी एवं एक विस्तृत दहकता अंगार है। ऐसा कि श्रोताओं के हृदय के तार झंझा उठें।'

 

वन्देमातरम् मंत्र की भाषा तथा लय अचानक और एक बार में ही नहीं रची गई। इस गीत की भाषा संस्कृतमयी है, अत: यह गीत सम्पूर्ण भारत की अभिव्यक्ति करता है। इसमें बंगला में केवल नौ पंक्तियां हैं, जो सम्भवत: दूसरी बार की रचना में ली गई हों। इस गीत की प्रथम स्वरलिपि बंकिम चन्द्र के संगीत शिक्षक श्री यदुनाथ भट्ट ने मल्हार राग ताल कव्वाली में की। 1886 में श्रीमती सुन्दरी देवी ने इसकी स्वर–लिपि रागिनी देस ताल कव्वाली में की थी। आज भी शांति निकेतन में राग देस में गाया जाता है। बाद में इसे सामूहिक रूप से मिश्रित सुर में गाया जाने लगा। श्री अरविन्द ने इसका  अंग्रेजी में अनुवाद किया।

 

'जिस गीत के कारण बंगाल का बंटवारा न हो सका, उस गीत को अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण के लिए खण्डित किया गया। यहां तक कि उन्हें प्रसन्न करने के लिए मातृभूमि को खंडित किया गया।'

-विश्वनाथ मुखर्जी (वन्देमातरम् का इतिहास)

 

वन्देमातरम् केवल एक जयघोष नहीं है और न ही केवल नारा है, बल्कि यह एक सिद्ध मंत्र है। राष्ट्र के जीवन का पवित्र मंत्र है। 'ॐ' की भांति इसमें भी साढ़े तीन मात्रा हैं। 'वन्दे' में भी साढ़े तीन और 'मातरम्' में भी साढ़े तीन। विद्वानों के अनुसार यह वैदिक दृष्टि से सिद्ध मंत्र है, यह राष्ट्र की दिव्य साधना का मंत्र है।

वन्देमातरम् की उत्पत्ति

डा. भूपेन्द्र नाम दत्त के अनुसार ईस्ट इंडिया कम्पनी के काल में जब 1760 के दशक में भयंकर अकाल पड़ा, तब अंग्रेजों के विरुद्ध संन्यासी अपने संघर्ष में 'ओऽम वन्देमातरम्'  का घोष किया करते थे। पूर्वी बंगाल में ढाका स्थित रमणी के काली मन्दिर में मराठी स्वामी भी बताते थे कि 'संन्यासी-योद्धा' 'ओऽम-वन्देमातरम्' उपरोक्त मंत्र का जयनाद करते थे। संन्यासियों को यह मंत्र कहां से प्राप्त हुआ, यह स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है। ऐसी मान्यता है कि अघोर पंथियों के एक सम्प्रदाय में 'वंदेही मातरम्' नाम का एक सिद्ध मंत्र है। बंगाल के सुन्दर वन के अघोर साधक इस मंत्र को 'ॐ ऐं हीं श्री कलीं वन्दे हीं मातरम कलीं श्रीं हीं ऐं ॐ' कहकर इस मंत्र को सिद्ध करते थे। बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय व उनके पिता श्री यादव चन्द्र का कुछ सम्बंध कपालिकों के साथ भी था।

1866 में जब उड़ीसा में भयंकर अकाल पड़ा। तब सम्भवत: अकाल पीड़ितों की दशा देख बंकिम चन्द्र ने एक उपन्यास लिखने का विचार किया। अक्तूबर, 1875 में वे दुर्गा पूजा पर अपने घर आए। इस अवसर पर घर पर आई कीर्तन मण्डली ने 'एसो एसो बंधु आध आचरे बसो' नामक गीत गाया। इसमें अंग्रेजों की गुलामी का भाव था। इसे सुनकर बंकिम अंग्रेजों की गुलामी से चिंतित हो गए। 1882 में उन्होंने 'वन्देमातरम्' अपने उपन्यास 'आनन्द मठ' में सम्मिलित किया। श्री अरविन्द का कथन है कि इस प्राचीन मंत्र को उन्होंने अपने एक संन्यासी गुरू से प्राप्त किया था।

यह गीत ईश्वर के प्रत्यक्ष दिव्य स्वरूप 'मां' के बारे में है। मां से साक्षात्कार है। भारत में मां को ईश्वर का प्रत्यक्ष रूप माना जाता है। इसीलिए  भारतीय संस्कृति के प्रमुख प्रतीक-गायत्री मंत्र, गाय, गंगा तथा गीता को माना जाता है। इसमें भी सर्वोच्च स्थान मातृभूमि को दिया गया है। एक विद्वान के शब्दों में, 'मां एक व्यक्ति, मातृभूमि एक समष्टि, एक प्रत्यक्ष-दूसरी व्यापक, एक सकाम दूसरी निष्काम, एक सीमित दूसरी असीमित, एक गीतिका दूसरी महाकाव्य, एक पुष्प गुच्छ दूसरी घना वन। माता का व्यापक रूप है-वह राष्ट्रमाता है।'

राष्ट्रभक्ति का सिंहनाद

श्री अरिवन्द में 'वन्देमातरम्' को स्वतंत्रता आन्दोलन का नूतन मंत्र बताया, जिसने एक ही दिन में राष्ट्रभक्ति की दीक्षा दे दी। प्रथम बार यह पवित्र गीत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन (कोलकाता) में श्री हेमचन्द्र बनर्जी ने अपनी कुछ पंक्तियां जोड़कर गाया। 28 दिसम्बर, 1896 में कांग्रेस के अधिवेशन में श्री रवीन्द्र नाथ टैगोर ने स्वयं संगीतबद्ध कर गया। उसी समय एक प्रस्ताव द्वारा तय किया गया कि वन्देमातरम् कांग्रेस के प्रत्येक अधिवेशन में गाया जाएगा। 1901 के कांग्रेस अधिवेशन में श्री दक्षिणारंजन सेन ने इसे एक नए स्वर में गाया। 1905 में बंगभंग की घोषणा के साथ यह राष्ट्रव्यापी सिंहनाद बन गया। अंग्रेज सरकार द्वारा गीत के गायन या केवल वन्देमातरम् के उद्घोष पर प्रतिबंध लगने से यह राष्ट्रभक्ति तथा देशप्रेम का प्रतीक बन गया। 1905 के बनारस के अधिवेशन में इसके गायन को लेकर विवाद खड़ा हो गया। आखिर कुछ प्रतिनिधियों के आग्रह पर इसके कुछ अंश गाने की अनुमति मिली, पर श्रीमती सरला देवी चौधुरानी ने इसे पूरा गाया। अप्रैल, 1906 में बंगाल के प्रांतीय अधिवेशन में जब अंग्रेज सरकार ने इस गीत गाने पर अड़चन डाली तो अमृत बाजार पत्रिका के सम्पादक श्री मोतीलाल घोष ने कहा, 'भले ही गर्दन उड़ जाए, पर मैं तो वन्देमातरम् गाऊंगा'। आखिर अंग्रेजी पुलिस द्वारा लाठी चार्ज हुआ, अनेक घायल हुए। 1922 तक कांग्रेस के अधिवेशनों में यह निरन्तर गाया जाता रहा। 1920-22 के असहयोग आन्दोलन का भी यह मुख्य स्वर रहा।

युवकों का प्रेरणास्रोत

1905 से 1947 तक वन्देमातरम् राष्ट्र की आत्मा का प्रतिनिधि बन गया। अनेक क्रांतिकारियों ने वन्देमातरम् कहते हुए फांसी का फंदा चूमा। देश-विदेश में अनेक पत्र पत्रिकाओं का नाम 'वन्देमातरम्' रखा गया। अनेक छात्रों को 'वन्देमातरम्' कहने मात्र से स्कूल-कालेज से निकाल दिया गया। विपिन चन्द्र पाल, महर्षि अरविन्द, मैडम कामा, लाला हरदयाल, लाला लाजपत राय- सभी का प्रेरणास्रोत बन गया वन्देमातरम्। लोकमान्य तिलक ने कहा, 'हमारे हृदयों को जागृत करने वाला, भारतीय राष्ट्रीयता से संलग्न मंत्र है वन्देमातरम्। जनता के हृदयों से अपने आप प्रकट होने वाला यह हमारा राष्ट्रगीत है।' चितरंजन दास ने कहा- 'बंकिम बाबू के गीत वन्देमातरम् ने हम लोगों का हृदय स्पर्श कर अपनी भारत माता के गौरवपूर्ण विश्व रूप का दर्शन कराया।' दक्षिण भारत के राष्ट्रकवि सुब्रह्मण्यम् भारती ने उच्च स्वर से कहा, 'हमारा ही है पवित्र गंगा का किनारा, उपनिषद् भी हमारे ही हैं। यह स्वर्गमयी भूमि भी हमारी ही है। वह भी अद्वितीय है। आओ इसकी करें अर्चना करें हम, वन्देमातरम्।' महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद प्रथम दो वर्षों तक अपने सभी व्यक्तिगत पत्रों की समाप्ति 'वन्देमातरम्' से की। इतना ही नहीं, उन्होंने 1 जुलाई, 1939 के 'हरिजन' में लिखा, 'मुझे कभी नहीं लगा कि यह (वन्देमातरम्) हिन्दू गीत है, या फिर केवल हिन्दुओं के लिए ही है। दुर्भाग्यवश, हमारे बुरे दिन आ गए हैं। पहले जो शुद्ध सोना हुआ करता था आज महज खोटी धातु बन       गया है।'

विरोध के स्वर

'वन्देमातरम्' के विरोध का स्वर तीन ओर से आया। प्रथम, 1908 से मुस्लिम लीग ने अपने अमृतसर अधिवेशन में इसका विरोध किया। लीग का यह स्वर निरन्तर बढ़ता गया। 1937 में लीग के एजेण्डे का मुख्य विषय बन गया। मुस्लिम लीग की 11 मागों में यह प्रमुख मांग थी कि इसे बन्द किया जाए।

इसका दूसरा प्रतिरोध कम्युनिस्टों द्वारा  किया गया यह स्वाभाविक भी था- उन्हें धर्म, संस्कृति, परम्परा, राष्ट्र से क्या लेना-देना। उन्होंने अपना नारा इन्कलाब जिन्दाबाद अपनाया।

तीसरा प्रबलतम विरोध कांग्रेस के भीतर से हुआ। 1923 के कांग्रेस के काकीनाड़ा अधिवेशन में मोहम्मद अली ने जो इस अधिवेशन के अध्यक्ष थे, ने इसका प्रबल विरोध किया। इसे बंद करने को कहा। परन्तु प्रसिद्ध गायक पं. विष्णु दिगम्बर पुलस्कर नेे पूरा वन्देमातरम् गाया। 1937 में कांग्रेस की सत्ता भारत के सात प्रांतों में स्थापित हो गई। लीग-विरोध के परिणामस्वरूप कांग्रेस में मुस्लिम तुष्टीकरण का स्वर उभरा। कांग्रेस के हरिपुर अधिवेशन में वन्देमातरम् गीत पर विचार करने के लिए चार नेताओं की समिति बनी, जिसने तय किया कि भविष्य में वन्देमातरम् के केवल पहले दो पद गाए जाएंगे।

स्वतंत्रता के बाद

14 अगस्त, 1947 की रात्रि में भी वन्देमातरम् के केवल दो पद गाए गए। जबकि पहले तय हुआ था पूरा गीत गाया जाएगा। यह पं. नेहरू के व्यक्तिगत हस्तक्षेप से हुआ, जिसकी भनक अन्त तक डा. राजेन्द्र प्रसाद को भी नहीं लगी। तब से वन्देमातरम् का वह स्थान नहीं रहा जो होना चाहिए था। संविधान में यद्यपि जन गण मन तथा वन्देमातरम् को समान स्थान दिया गया है, परन्तु यथार्थ में वन्देमातरम् भी सरस्वती प्रार्थना की भांति सम्प्रदायिकता के दायरे में आता गया। मुस्लिम  जगत की ओर इसके विरुद्ध फतवे दिए गए। वन्देमातरम् की शताब्दी पर कांग्रेस की असमंजस की स्थिति रही। नेता परस्पर विरोधी बयान देते रहे, परन्तु सफलता मुस्लिम तुष्टीकरण को ही मिली। आजादी के लम्बे अन्तराल के बाद वन्देमातरम् की तुमुल ध्वनि अण्णा हजारे के साथ देश के युवकों के मुख से पुन सुनाई दी।

वस्तुत: देश को स्वतंत्रता तो  मिली, पर न 'स्व' का बोध हुआ, न ही अपना 'तंत्र' मिला। पाश्चात्य संस्कृति के  प्रति अन्ध झुकाव ने देश को बुरी तरह जकड़ लिया। परिवार तेजी से टूटे, विद्यालयी शिक्षा में मौलिकता समाप्त हुई। संस्कृत तथा हिन्दी को घर से निकाला गया तथा अंग्रेजी का प्रवेश कराया गया।  विदेशी लुटरों ने नए-नए रूप धारण कर भारत में प्रवेश किया। आखिर इस सबका निदान क्या? पुन: स्मरण आता है स्वामी विवेकानन्द का अमर सन्देश 'भूल जाओ, कुछ समय के लिए देवी-देवताओं का। आराधना करो भारत मां की। इसके द्वारा न केवल भारत की समस्याओं का निदान होगा बल्कि विश्व शांति पुन: स्थापित होगी। अत: देश के युवकों बोलो फिर एक बार- वन्देमातरम्।

 

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