स्वामी विवेकानन्द सार्द्ध शती वर्ष
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अपनी आत्मा का आह्वान करो
हिन्दू अपना धर्म प्राचीन वेदों पर आधारित करते हैं, जिनका नाम 'जानना' अर्थ देने वाली विद् धातु से बना है। वह एक ऐसी ग्रंथमाला है, जिनमें हमारे विचार से, सभी मत-मंथों का सारतत्व सन्निहित है, पर हम ऐसा नहीं मानते कि सत्य केवल उनमें ही है। ग्रन्थ हमें आत्मा के अमरत्व की शिक्षा देते हैं। हर देश में और हर मानव-हृदय में एक दृढ़ सन्तुलन खोज निकालने की प्राकृतिक चाह है-कुछ ऐसा खोजने की चाह, जो कभी बदलता न हो। हम ऐसा वस्तु प्रकृति में नहीं पा सकते, क्योंकि यह समस्त विश्व अनंत परिवर्तनों का एक समूह मात्र ही तो है। किन्तु इससे यह परिणाम निकालना कि अपरिवर्तनशील कुछ है ही नहीं। दक्षिणात्य बौद्धों और चार्वाकवादियों की ही भूल में पड़ना है। इनमें चार्वाकवादी विश्वास करते हैं कि जड़ पदार्थ ही सब कुछ है और मनस्तत्व कुछ को नहीं, तथा धर्म केवल मात्र धोखा है और नैतिकता तथा साधुता बेकार के अंधविश्वास मात्र हैं। वेदान्त दर्शन हमें सिखाता है कि मनुष्य अपनी पांच इन्द्रियों से बंधा नहीं है। वे केवल वर्तमान को जानते हैं, भविष्य या भूत की नहीं, किन्तू चूंकि वर्तमान में भूत और भविष्य भी निहित होते हैं तथा तीनों ही केवल समय के विभाजन मात्र हैं, वर्तमान भी अज्ञात होता, यदि कुछ ऐसा वस्तु न होती, जो इन्द्रियों से परे है, जो समय से स्वतंत्र है तथा जो भूत और भविष्य को मिलाकर वर्तमान में एकीभूत कर देती है।
वेद कहते हैं कि समस्त संसार स्वतंत्रता और परतंत्रता का, मुक्ति एवं बन्धन का मिश्रण है, किन्तु इन सबके माध्यम से स्वतंत्र, अमर, शुद्ध, पूर्ण और पवित्र आत्मा देदीप्यमान है। क्योंकि यदि वह स्वतन्त्र है, तो नष्ट नहीं हो सकती, क्योंकि मृत्यु तो एक परिवर्तन मात्र ही है और कुछ स्थितियों पर निर्भर करती है, यदि वह स्वतंत्र है, तो वह पूर्ण अवश्य होगी, क्योंकि अपूर्णता भी तो एक स्थिति मात्र है और इसलिए वह परतंत्र है। और यह अमर और पूर्ण आत्मा सर्वोच्च ईश्वर से लेकर क्षुद्रातिक्षुद्र मानव में एक ही होनी चाहिए। इन दोनों के बीच का अन्तर केवल आत्मा की अभिव्यक्ति के परिमाण का अंतर होगा।
आत्मा ईश्वर है तथा हर मनुष्य अपने अन्तर में पूर्ण देवत्व रखता है। और कोई शीघ्र ही या विलम्ब से अपने उस देवत्व को प्रदर्शित करता है। यदि मैं एक अंधेरे कमरे मे हूं, तो मेरे लाख आपत्ति करने से वहां तनिक भी प्रकाश न होगा। मुझे माचिस जलानी ही पड़ेगी। ठीक इसी प्रकार, हम कितना भी रोयें-कलपें, उससे हमारे अपूर्ण शरीर तनिक भी अधिक पूर्ण नहीं हो सकते। किन्तु वेदान्त शिक्षा देता है कि अपनी आत्मा का आह्वान करो और अपना देवत्व प्रदर्शित करो। अपने बच्चों को सिखाओ कि वे दिव्य हैं, और धर्म सकारात्मक वस्तु है, नकारात्मक प्रलाप मात्र नहीं।
हर मत-पंथ में यह मिलता है कि मनुष्य का वर्तमान और भविष्य उसके अतीत द्वारा प्रभावित होते हैं और वर्तमान तो केवल अतीत का परिणाम मात्र है। तब इसकी व्याख्या क्या हो सकती है कि हर बालक ऐसे अनुभव लेकर जन्म लेता है, जिन्हें केवल आनुवांशिक संक्रमण का फल नहीं कहा जा सकता। यह कैसे होता है कि कोई अच्छे माता-पिता से उत्पन्न होता है, अच्छी शिक्षा प्राप्त करता है और अच्छा, मनुष्य बन जाता है, जबकि दूसरा व्यक्ति मन्द और निर्बुद्धि माता-पिता से उत्पन्न होकर फांसी के तख्ते पर अपना अंत प्राप्त करता है। बिना ईश्वर पर दोषारोपण किए तुम इस असमानता का कारण कैसे स्पष्ट कर सकते हो? एक दयालु पिता अपनी संतान को ऐसी स्थितियों में क्यों डाले, जिनसे दुर्गित आनी अवश्यम्भावी है। यह कहने से काम नहीं चल सकता कि ईश्वर आगे उसमें सुधार करेगा। ईश्वर के पास दंड देने के लिए साक्षि- धन तो है नहीं। फिर यदि यह मेरा प्रथम जन्म है, तो मेरी स्वाधीनता कहां जाएगी? बिना पूर्वजन्म के अनुभव के इस संसार में आने पर तो मेरी स्वाधीनता का अंत ही हो जाएगा, क्योंकि मेरा मार्ग-निर्धारण तो दूसरों के अनुभव के आधार पर होगा। यदि मैं स्वयं अपना भाग्य-निर्माता नहीं हूं, तो मैं स्वतंत्र नहीं हूं। अपने इस अस्तित्व की दुर्गति के दायित्व को मैं स्वीकार कर लेता हूं और कहता हूं। कि पूर्वजन्म में मैंने जो बुरा किया है, उसका मैं प्रतिकार करूंगा। यही हमारी आत्मा के पुनर्जन्म का दर्शन है। हम इस जीवन में पिछले जीवन का अनुभव लेकर आते हैं और इस जीवन का सौभाग्य एवं दुर्भाग्य हमारे कर्मों का फल होता है, और हम सदैव श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर होते जाते हैं, अन्तत: पूर्णता की प्राप्ति होती है।
हम एक विश्व के पिता, असीम और सर्वशक्तिमान ईश्वर में विश्वास करते हैं। किन्तु यदि हमारी आत्मा अन्तत: पूर्ण हो जाती है, तो वह भी असीम हो जाएगी। परन्तु दो निरपेक्ष असीम सत्ताओं के अस्तित्व के लिए स्थान नहीं है, और इसलिए हम एक सगुण ईश्वर में विस्वास करते हैं, और हम स्वयं ही तो वह हैं, यो तीनों वे स्थितियां है, जिन्हें हर मत-पंथ ने प्राप्ति किया है। पहले हम ईश्वर को बहुत दूर देखते हैं, फिर हम उसके निकट आ जाते हैं और उसे सर्वव्यापकता देते हैं और इस प्रकार हम उसमें निवास करने लगते हैं तथा अन्त में हमें ज्ञान होता है कि हम स्वयं वही हैं। एक बाह्म ईश्वर की धारणा असत्य नहीं है, वस्तुत: ईश्वर सम्बंधी हर धारणा, और इसलिए हर मत-पंथ सत्य है, क्योंकि वेदों की पूर्णता की धारणा की लक्ष्य-प्राप्ति की यात्रा में ये तो भिन्न-भिन्न स्तर मात्र हैं। इसलिए भी हम न केवल सहन ही करते हैं, अपितु हम हिन्दू हर मत-पंथ को स्वीकार करते हैं।
यदि में ईश्वर हूं, तो मेरी आत्मा सर्वोच्च सत्ता का मन्दिर है और मेरी हर क्रिया उपासना का एक अंग होनी चाहिए, भक्ति केवल भक्ति के लिए, कर्तव्य-पालन केवल कर्तव्य के लिए, पुरस्कार की आशा अथवा दण्ड के भय बिना होना चाहिए। इस प्रकार मेरे धर्म का अर्थ है प्रसार और प्रसार का उच्चतम भाव में अर्थ होता है-साक्षात्कार और प्रत्यक्षीकरण, केवल शब्दों की अस्पष्ट गुनगुनाहट या घुटनों के बल बैठना नहीं। मनुष्य को ईश्वर होना है। और वह एक अनंत यात्रा में दिनों दिन अधिक से अधिक देवत्व को प्राप्त करता जाता है। (विवेकानन्द साहित्य, खण्ड प्रथम साभार)
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