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हिन्दी की वाचिक कविता के मंच पर पिछले कई दशकों से राष्ट्रवादी चेतना के उद्गाता बनकर अमर शहीदों की वीर-गाथाओं की प्रभावी प्रस्तुति करने वाले ओजस्वी कवि विश्वनाथ द्विवेदी की कृति 'महाप्रयाण' समकालीन रामगाथा-काव्य की महनीयता की अभिनव अभिव्यंजना है। युग-युग से इस राष्ट्र को अभिप्रेरित करने वाली राघव-गाथा को सधी हुई लेखनी के कलात्मक संस्पर्शों के साथ सामने लाने वाली सात सोपानों में निबद्ध इस कृति के माध्यम से कवि ने एक सारस्वत-अवदान हमें दिया है। कवि ने मंगलाचरण के बाद के हर सोपान को दंश कहकर उल्लिखित किया है और क्रमश: महाराज दशरथ, गीधराज जटायु, वानरराज बालि, मेघनाद, लंकापति रावण, भूमिजा सीता तथा मर्यादा पुरुषोत्तम राम के लीला-संवरण क्षणों का हृदयग्राही वर्णन किया है। उन क्षणों के परिवेश और उनमें घटी घटनाओं के साथ ही पात्रों के अन्तर्मन की ऊहापोह, उत्ताल भावतरंगों और स्मृति में उभरते प्रसंगों को काव्य में समाहित करते हुए कवि ने जगह-जगह अपनी कल्याणी चिन्तना को जागरण-मन्त्रों जैसी टिप्पणियों को भी पिरोया है। मंगलाचरण में विविध वन्दनाओं के साथ स्वतन्त्र देश के सिपाहियों को भी नमन निवेदित किया गया है –
मन तुम्हारा जाह्नवी की
धार–सा पवित्र है,
मिटे जो देश के लिये
वो देश का चरित्र है।
तथा
नयी सुबह की गोद में
जो रोज सूर्य–सा दिखे,
अभाव में भी जागरण की
जो अमर कथा लिखे।
पुरुष सदा वही प्रणम्य है
जो पूर्णकाम है,
उसी अमर सपूत को
स्वदेश का प्रणाम है।।
'महाप्रयाण' के चतुर्थ सर्ग में यशस्वी मेघनाद की आहुति की कथा है, जिसके लिये कवि ने तुलसी-साहित्य से अलग हटकर विविध पौराणिक आख्यानों तथा जनश्रुतियों से सूत्र जुटाये हैं। कवि की दृष्टि में इस गाथा का वर्णन दो महाभटों के समर-कौशल का ही वर्णन नहीं है, दो सती महिलाओं के तप की ऊर्जा से उत्पन्न प्रबल आंच का शब्दांकन भी है। मेघनाद के पराभव का चित्रण करते समय भी कवि के चित्त में उसके पराक्रम के प्रति समग्र आदरभाव है –
वह शुक्रजयी अद्भुत
बल–विक्रम का स्वामी
प्रमिला का पति
लंकाधिप का जीवनाधार,
सेवक निकुंभिला का
वासुकि का जमाता
सह सका नहीं शेषावतार
के शर–प्रहार।
किन्तु इस प्रकरण की सर्वाधिक महत्वपूर्ण पंक्तियां मेघनाद का शीश मांगने को श्रीराम के स्कन्धावार में जाने को तत्पर सुलोचना और लंकापति के संवाद के रूप में सामने आती हैं, जिनके माध्यम से कवि एक ओर सुलोचना की तेजस्विता और निष्ठा-भावना का परिचय देता है और दूसरी ओर अपने इष्टदेव के श्रीचरणों में सात्त्विक श्रद्धा का अर्घ्य भी अर्पित करता है। लंकापति के चित्त का संशय उसके उद्विग्न अन्त:करण के अनुरूप ही है –
शत्रुदल में निज वधू को
भेजकर मैं आज
रख सकूंगा किस तरह
दशकंठ कुल की लाज,
त्रस्त संशयग्रस्त मन में हो रहा
ये बोध लें
न तुमसे राम
सीता का कहीं प्रतिशोध!
किन्तु सुलोचना का प्रत्युत्तर हर प्रश्न को निरुत्तर करने में समर्थ है और मर्यादा पुरुषोत्तम के नि:संशय व्यक्तित्व का सुन्दर रेखांकन कर सुलोचना की प्रज्ञा और दृष्टि को रूपायित करने में सक्षम है –
राष्ट्र के कल्याण को तज
स्वर्ग–सा जो गेह
घूमते वन–वन उन्हीं के
सत्व पर सन्देह
मुझे संशय है तुम्हारे
आचरण से तात,
संशयी हैं निशिचरों के
वंश के उत्पात।
राम मर्यादापुरुष हैं
लोकरक्षक राम,
वहां शंका और संशय
के लिये क्या काम?
सुलोचना का श्रीराम की ओर गमन करने का यह नि:संशय भाव सतीत्व की उस दिव्याभा का ज्योति-वलय है।
पंचम दंश की प्रारंभिक पंक्तियों में कवि सत्य और स्वप्न को अभिव्यक्त करने वाली उस लेखनी की वन्दना करता है जो युग-चिन्तन में आये कलुष का निराकरण करके गायत्री की संज्ञा को उपलब्ध होती है –
शब्दों को गरिमामय छन्दों में बांधे
प्रभु के महिमामय पावन पग अवराधे
जो माटी का मोहक संगीत सुनाती
जो मानवता का विजय–केतु फहराती
जो चिन्तन की मैली चादर धोती है,
वह कलम समय की गायत्री होती है।
श्रीरामकथा के कतिपय पात्रों के मनश्चिन्तन को कविता-बद्ध करके उनकी जीवन लीला के अन्तिम क्षणों की भाव तरलता को निरूपित करते हुए कविवर विश्वनाथ द्विवेदी ने 'महाप्रयाण' (प्रकाशक-स्तम्भ प्रकाशन (आगरा), मूल्य सजिल्द 150 रु, पेपरबैक 120 रु.) के माध्यम से श्रीराम काव्य के पृष्ठों में एक स्वर्ण-पृष्ठ तो जोड़ा ही है, अपने युग को राष्ट्रवादी चिन्तना के कुछ सूत्र भी प्रदान किये हैं। उनका तत्व ज्ञान इसी प्रकार युग को दिशाबोध देता रहे-इसी मंगल-कामना के साथ उनकी लेखनी को प्रणाम करता हूं।
हाथ–पांव–आंखें–हृदय अश्रु और मुस्कान,
इतना सब तो दिया अब क्या मांगू भगवान?
– जय चक्रवर्ती
भक्ति–कथा के नाम पर भर जाते पण्डाल,
नृत्य करें सन्नारियां बेढब है ये चाल।
– सेवाराम गुप्ता 'प्रत्यूष'
हरित क्रान्ति की जगह
ले चरित्र की क्रान्ति,
उन्नत जिससे देश हो
शेष समुन्नति भ्रान्ति।
– डा. महाश्वेता चतुर्वेदी
डा.शिवओम अम्बर
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