सम्पादकीय: अंक-सन्दर्भ 24 फरवरी,2013
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सम्पादकीय: अंक-सन्दर्भ 24 फरवरी,2013

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Mar 16, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 16 Mar 2013 15:50:34

अफजल की आड़ में देशद्रोही राजनीति

मनमोहन शर्मा ने अपने लेख में आतंकी अफजल की फांसी के बाद कथित मानवाधिकारवादियों की असलियत को पाठकों तक पहुंचाया है। इन लोगों को आतंकवादियों के अधिकार दिखते हैं, उनकी करतूतें नहीं। इन्होंने आज तक किसी आतंकी घटना की निन्दा नहीं की है। जो लोग आतंकवादियों के हाथों मारे जाते हैं उनके परिजनों के प्रति ये सहानुभूति तक व्यक्त नहीं करते हैं।

–ठाकुर सूर्यप्रताप सिंह 'सोनगरा'

कांडरवासा, रतलाम-457222 (म.प्र.)

द संप्रग सरकार ने अफजल को करीब 7 साल तक बचाया। अपनी खराब होती छवि को ठीक करने के लिए सरकार ने अफजल को फांसी पर लटकाया है। अफजल की सुरक्षा के लिए करोड़ों रुपए खर्च किए गए। यदि सरकार यह काम पहले ही करती तो देश को करोड़ों रुपए का आर्थिक नुकसान तो नहीं होता।

–सत्यदेव गुप्त

टिहरी (उत्तराखण्ड)

द संप्रग सरकार ने अजमल कसाब व अफजल को वर्षों तक पाला, बिरयानी खिलाई और अब एकदम इतनी तेजी दिखाई कि दोनों आतंकियों को ढाई माह के अन्तराल पर फांसी के फन्दे पर लटका दिया। इसके पीछे राजनीतिक कारण है। जब आतंकियों का कोई मजहब नहीं होता, कोई जाति नहीं होती, तो फांसी के फन्दे तक पहुंचाने में इतना विलम्ब क्यों हो जाता है?

–निमित जायसवाल

ग 39, ई डब्ल्यू.एस., रामगंगा विहार, फेस प्रथम

मुरादाबाद-244001 (उ.प्र.)

द कितने शर्म और दुर्भाग्य की बात है कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर भी इस देश में क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ आड़े आते हैं। एक तरफ अमरीकी सरकार है जो सात समन्दर पार करके दूसरे देश की सीमाओं के अन्दर जाकर अपने देश के शत्रु को मार गिराती है, वह भी उस देश को बताये बिना। और एक तरफ हमारे देश की सरकार है जो अपने ही देश के अन्दर देश के शत्रु को फांसी देने में अपने राजनीतिक लाभ-हानि का आकलन करती है।

–राजेन्द्र प्रसाद गोयल

बल्लभगढ़, फरीदाबाद (हरियाणा)

द अफजल की फांसी पर देशघातक राजनीति की जा रही है। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा कि इससे कश्मीर के लोग राष्ट्रीय धारा से और दूर हो जाएंगे। जब एक मुख्यमंत्री ही ऐसा बयान देता हो तो आम जनता के बारे में क्या कहा जाए? अब्दुल्ला के बयान की जितनी आलोचना होनी चाहिए उतनी हुई नहीं। जो लोग आतंकवादियों की हिमायत करते हैं उनका बहिष्कार किया जाना चाहिए।

–उदय कमल मिश्र

गांधी विद्यालय के समीप

सीधी-486661 (म.प्र.)

द संवैधानिक पदों पर रहते हुए कुछ लोग अलगाववादियों की भाषा बोल रहे हैं। अफजल की फांसी के बाद ऐसे लोगों की पहचान भी छुपी नहीं है। फिर भी सरकार उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर रही है, जो शर्मनाक है। यासिन मलिक भी खुला घूम रहे हैं।

–दिनेश गुप्ता

कृष्णगंज, पिलखुवा (उ.प्र.)

'चोरों' की जमात

चर्चा सत्र में मेजर जनरल (से.नि.) गगनदीप बख्शी का लेख 'कौन खा गया 362 करोड़' संप्रग सरकार के एक और घोटाले के अलग-अलग पक्षों को सामने रखता है। पूरी सरकार ही 'चोरों' की जमात लगती है। शायद ही ऐसा कोई विभाग हो जहां घोटाले न हुए हों। ऐसी घोटालेबाज सरकार देश में कभी नहीं रही है। फिर भी कांग्रेसी डा. मनमोहन सिंह को 'ईमानदार' व्यक्ति बताने में हिचक महसूस नहीं करते हैं।

–राममोहन चंद्रवंशी

'अभिलाषा निवास' विट्ठल नगर टिमरनी, जिला–हरदा (म.प्र.)

द सम्पादकीय 'फिर उंगली इटली की ओर' में सरकार पर कड़ा प्रहार किया गया है। यह बात पूरी तरह सही है कि जब दाग इटली की ओर लगते हैं तो सीबीआई के 'हाथ' ढीले पड़ जाते हैं। बोफर्स घोटाले के मुख्य आरोपी क्वात्रोकी को सीबीआई ने ही बचाया है। क्वात्रोकी भी इटली का रहने वाला है। इन प्रसंगों से यह बात सामने आती है कि भारत में कोई है जो इन आरोपियों को बचाता है।

–दयाशंकर मिश्र

लोनी, गाजियाबाद (उ.प्र.)

लचर तर्क

हरिमंगल की रपट '…तो जिम्मेदार कौन?' में प्रयाग में हुई घटना को प्रशासनिक लापरवाही का नतीजा बताया गया है। कुंभ मेले के प्रभारी उ.प्र. के नगर विकास मंत्री आजम खान थे। आजम खान भारत माता के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल करते हैं और हिन्दू समाज को अपमानित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। जब ऐसे लोग कुंभ जैसे मेले के प्रभारी होंगे तो प्रशासन चुस्त कहां से रहेगा?

–वीरेन्द्र सिंह जरयाल

28ए, शिवपुरी विस्तार

दिल्ली-110051

द इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर भगदड़ से 36 श्रद्धालु मारे गए। इस घटना के सन्दर्भ में रेल मंत्री पवन बंसल ने कहा कि इतनी भीड़ होगी, इसकी कल्पना नहीं थी। यह लचर तर्क है। कुंभ का आयोजन पहली बार तो नहीं हुआ था। हर कुंभ में करोड़ों श्रद्धालु पहुंचते हैं। फिर भी रेलवे ने अच्छी व्यवस्था नहीं की। रेल मंत्री अपनी कमियों को छुपाने के लिए कुतर्क न करें।

–डा. प्रणव कुमार बनर्जी

विद्या नगर, पेण्ड्रा

बिलासपुर-495119 (छत्तीसगढ़)

काटजू के पीछे कांग्रेस?

प्रेस परिषद् के अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू आजकल गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ कुछ न कुछ बोलते रहते हैं। बीच-बीच में वे राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेतली के खिलाफ भी बयानबाजी करने लगते हैं। लेकिन एक बात ध्यान देने योग्य है कि जब भी उनके इन बयानों पर उनकी आलोचना होने लगती है तो सफाई देने के लिए कांग्रेस आगे आ जाती है। इससे समझा जा सकता है कि इस खेल के पीछे कौन है। कांग्रेस पिछले दस वर्ष से मोदी को किसी न किसी बात को लेकर परेशान कर रही है, लेकिन वह उनका बाल भी बांका नहीं कर सकी। उल्टे नरेन्द्र मोदी और शक्तिशाली होकर उभरे हैं। लगता है कांग्रेस ने अब यह काम काटजू को सौंप दिया है।

–अरुण मित्र

324, रामनगर, दिल्ली-110051

कहीं अंगूर खट्टे तो नहीं?

कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी फरमाते हैं, 'प्रधानमंत्री बनने का सवाल पूछना ही गलत है। मेरी प्रधानमंत्री बनने में कोई दिलचस्पी नहीं है, और न ही यह मेरी प्राथमिकता है। मेरी प्राथमिकता कांग्रेस पार्टी को मजबूत करना है। मैं दीर्घकालीन राजनीति में विश्वास करता हूं।' ऐसी स्थिति में बड़ा सवाल यह कि ऐसी कौन सी वजह है कि राहुल गांधी देश की सर्वोच्च कुर्सी पर नहीं बैठना चाहते? अभी तक जितने जनमत-सर्वेक्षण हुए हैं, उनमें राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद की दौड़ में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से काफी पीछे हैं। जनवरी माह के जनमत-सर्वेक्षण के अनुसार प्रधानमंत्री पद के लिए जहां नरेन्द्र मोदी को देश के 48 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन प्राप्त है, वहीं राहुल गांधी को मात्र 18 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन प्राप्त है। राजनीतिक दलों की लोकप्रियता के हिसाब से भी संभवत: देश की आजादी के बाद कांग्रेस अपने निम्नतम सोपान पर है और इस बात की प्रबल संभावना है कि कहीं कांग्रेस सौ सीटों के अंदर न सिमट जाये। सहयोगियों में ममता बनर्जी साथ छोड़ ही चुकी हैं। शरद पवार भी बराबर आंखें तरेर रहे हैं, तो मुलायम सिंह और मायावती सीबीआई के डर से मजबूरी में साथ दे रहे हैं। ऐसी स्थिति में समझदारी तो यही कहती है कि अंगूर खट्टे हैं, अर्थात् मुझे प्रधानमंत्री बनना नहीं। दूसरी अहम बात यह कि ऐसी बातों से यह प्रचारित करने में खूब मदद मिलेगी कि सोनिया गांधी की तरह राहुल गांधी भी सत्तालोलुप नहीं हैं अर्थात् उनकी त्यागमूर्ति की छवि बनाना। ठीक वैसे ही जैसे सोनिया गांधी के 2004 में प्रधानमंत्री न बनने को लेकर अब तक कांग्रेसी प्रचारित करते रहते हैं। अब सोनिया गांधी किस मजबूरी में प्रधानमंत्री नहीं बनीं, यह तो वह स्वयं बता सकती हैं, या तत्कालीन राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम। वैसे भी सोनिया गांधी भले ही प्रधानमंत्री न बनी हों, पर सत्ता के सारे सूत्र तो उनके और राहुल गांधी के पास ही हैं। राहुल कहते हैं, मेरी प्राथमिकता कांग्रेस पार्टी को मजबूत बनाना है। यह तो सभी को पता है कि विगत कई वर्षों से राहुल गांधी की हैसियत कांग्रेस पार्टी में ऐसी रही है कि वह जो चाहते हैं वही होता है। ऐसी स्थिति में लाख टके का सवाल यह कि कांग्रेस पार्टी मजबूत होने के बजाय उल्टे दिनों-दिन कमजोर क्यों होती जा रही है? क्या यह संभव है कि सरकार में बैठे लोग आये दिन घोटाले करते रहें और कांग्रेस पार्टी मजबूत भी होती रहे?

–वीरेन्द्र सिंह परिहार

अर्जुन नगर, सीधी (म.प्र.)

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