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शब्द की महिमा निराली है। यदि बोलने या सुनने में कुछ गड़बड़ हो जाए, तो कई बार अर्थ का अनर्थ हो जाता है। यों तो एक शब्द के कई अर्थ होते हैं, पर यह अजूबा कम ही देखने में आता है कि कई शब्दों का एक ही अर्थ हो। भारत में 'मोदी' शब्द के साथ आजकल यही हो रहा है।
दैनिक उपयोग के लिए आटा, दाल, चावल आदि का भंडार करने और बेचने वाले को प्राय: मोदी कहते हैं। दिल्ली से मेरठ के बीच 'मोदीनगर' आता है, जिसे रायबहादुर गूजरमल मोदी ने बसाया था। वहां मोदी परिवार द्वारा स्थापित कई उद्योग हैं।
मोदी नाम से बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी का भी ध्यान आता है। कहते हैं कि यदि वे पीछे हट जाएं, तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दो मिनट में चित हो जाएं, पर मतभेद और मनभेद होते हुए भी अन्धे और लंगड़े की तरह दोनों लगातार साथ निभा रहे हैं।
लेकिन इन दिनों मोदी नाम लेते ही जिस प्रभावी व्यक्ति का चेहरा उभरता है, वह है नरेन्द्र मोदी। आप उनसे सहमत या असहमत हो सकते हैं, उनके घोर समर्थक या कट्टर विरोधी भी हो सकते हैं, पर उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते। 'जिधर देखता हूं, उधर तू ही तू है..' की तरह नरेन्द्र मोदी के चाहने वाले उनके दिल्ली आने की चर्चा से उत्साहित हैं, तो विरोधी अभी से पसीने-पसीने हो रहे हैं।
पिछले दिनों दिल्ली में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई। अंदर की बात तो अंदर वाले जानें, पर मीडिया के अनुसार नरेन्द्र मोदी का जादू वहां सबके सिर पर चढ़कर बोल रहा था। मिशन और कमीशन, दीमक और पसीना, परिवार और चौकीदार जैसी उनकी चुटकियों ने सबका दिल जीत लिया।
पर उनके इस सम्बोधन से कांग्रेसियों को खूब मिर्चें लगीं। उनके सब भोंपू एक साथ बोलने लगे। कोई उन्हें अभद्र बता रहा है, तो कोई अशालीन, कोई सांप कह रहा है, तो कोई बिच्छू। एक से एक भारी शब्द ढूंढ कर शब्दकोश में से निकाले जा रहे हैं, पर नरेन्द्र मोदी हैं कि चिन्ता किये बिना मस्त हाथी की तरह बढ़े जा रहे हैं।
मैं पिछले दिनों एक सप्ताह के लिए अपने गांव गया था। लौटने पर पता लगा कि शर्मा जी बीमार हैं। उनके घर गया, तो शर्मा 'मैडम' ने बताया कि रात में सोते-सोते अचानक वे चीख पड़ते हैं – बचाओ, बचाओ, मोदी आया।
शर्मा जी मेरे पुराने मित्र हैं। मैंने उन्हें समझाया कि आप दु:खी न हों, क्योंकि नरेन्द्र मोदी के आने से भले लोगों को परेशान नहीं होना पड़ेगा, पर वे कुछ समझने की मानसिकता में ही नहीं थे। जैसे लंका दहन के बाद वहां सब लोगों को सपने में भी हनुमान जी नजर आते थे, ऐसा ही हाल उनका हो गया था।
मैं इस समस्या का समाधान ढूंढने एक मनोविज्ञानी डा. वर्मा के पास गया। उन्होंने बताया कि यूनानी लोककथाओं में एक ऐसी मकड़ी की चर्चा आती है, जो जाल में बैठे-बैठे ही अपने शिकार पर आंखें गड़ा देती है। धीरे-धीरे शिकार सम्मोहित होकर आगे बढ़ने लगता है और मकड़ी के शरीर में समाहित हो जाता है।
मुझे कबीरदास जी की पंक्तियां याद आईं –
लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल
लाली देखन मैं गयी, मैं भी हो गयी लाल।।
डा. वर्मा ने बताया कि उनके पास इन दिनों 'मोदी बुखार' से ग्रस्त मरीज बड़ी संख्या में आ रहे हैं। इनमें मोदी के विरोधी तो हैं ही, कुछ समर्थक भी हैं। कांग्रेस वालों का तो बुरा हाल है। जैसे किसी समय काबुल की महिलाएं बच्चों से कहती थीं कि 'सो जा, नहीं तो नलवा आ जाएगा।' इसी तरह वे कार्यकर्ताओं से कह रहे हैं कि 'जाग जाओ, वरना मोदी आ जाएगा।'
– पर डा. साहब, इसका कोई इलाज.. ? मैंने पूछा।
– ऐसा लगता है कि यह 'मोदी बुखार' अगले साल 'मोदी की जयकार' में बदलकर स्वयं ही शांत हो जाएगा।
मैंने शर्मा जी को सलाह दी है कि वे डा. वर्मा से मिल लें। यदि आपके आसपास भी कोई ऐसा मरीज हो, तो उसे यथाशीघ्र वहां पहुंचा दें। ऐसा न हो कि मनीष तिवारी और मणिशंकर अय्यर की तरह यह बुखार लाइलाज होकर सन्निपात में बदल जाए। विजय कुमार
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