मन्दोदरी का आत्मचिंतन
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मन्दोदरी का आत्मचिंतन

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Mar 9, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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मन्दोदरी का आत्मचिंतन

दिंनाक: 09 Mar 2013 13:10:25

डा.शिवओम अम्बर 

भारतीय मानस वर्ष में दो बार शारदीय नवरात्रि और वासन्तिक नवरात्रि में क्रमश: विजयादशमी तथा रामनवमी के माध्यम से श्रीराम के साथ जुड़ता है। कभी उनके जन्मोत्सव के मंगल गीत गाता है तो कभी विजयोत्सव का आनन्द मनाता है। इस वर्ष 19 अप्रैल को देश रामनवमी उत्सव मनाएगा। श्रीराम गाथा की इधर सामने आई कृतियों में से दो पर कुछ कहने का आज शुभ संयोग बन पड़ा है। पहले एक लम्बी कविता, जो कविवर रमेश तिवारी 'विराम' के द्वारा प्रणीत है। छन्दमुक्त नई कविता की विधा में लिखी गई इस विशिष्ट वैचारिक भंगिमा वाली भावप्रवण कविता का शीर्षक है 'मन्दोदरी का मनस्ताप'। यह अशोक वाटिका में भगवती सीता के प्रति कहे गये अपने पति के वचनों को सुनकर आने के बाद पट्टमहिषी मन्दोदरी के ऐकान्तिक आत्मचिन्तन की प्रस्तुति है। कविता की प्रारम्भिक    पंक्तियां हैं –

अभी–अभी लौटी हूं

अशोक–वाटिका से

हृदय अग्नि–कुण्ड–सा धधकता है

लंकेश्वर ने आज जो कहा है

कोई पति न कहेगा,

आज मन्दोदरी ने जो सहा है

संसार की कोई पत्नी न सहेगी!

आज मेरे पति ने

वाटिका में

मेरी ही उपस्थिति में

पर–नारी से प्रणय–निवेदन किया

यही नहीं उन्होंने तो

मेरा राजमहिषी का पद भी

दांव पर लगा दिया!

आज से मैं लंकेश्वर की नहीं

सीता की ऋणी हूं

उस मर्यादित दृष्टि की आभारी हूँ

जो लंकेश्वर की ओर उठी ही नहीं

अन्यथा

सीता आज राजमहिषी के पद पर

विराजमान होती

और मन्दोदरी, परिचारिकाओं

की पंक्ति में खड़ी होती …………

लंकेश का व्यवहार मन्दोदरी को स्तब्ध कर देता है और वह चिन्तन करने लगती है दाम्पत्य के अर्थ के बारे में, सीता के लिये राम और राम के लिये सीता की अर्थवत्ता के बारे में। उसके अन्त:चक्षुओं के समक्ष राम और सीता की दिव्यता आकारित होती है और वह महसूस कर पाती है –

आज मैंने देखा

राम के लिये

उनकी पत्नी सीता

एक ऋचा है, एक साधना है

एक तपस्या है

और लंकेश्वर के लिये मन्दोदरी

मात्र एक खिलौना है!

मन्दोदरी को यह अनुभूति होती है कि जिस प्रकार कोई क्रीडा-शील बालक अपेक्षाकृत मोहक खिलौने को सामने पाकर हाथ के खिलौने को छोड़ उसे हस्तगत करने को आकुल हो उठता है उसी प्रकार देहबद्ध रागदृष्टि अपने विश्राम के बिन्दुओं को बदलती रहती है। किसी भी परिस्थिति में विचलित न होने वाले अनुराग के भाव को यह चंचल स्वभाव कभी उपलब्ध ही नहीं कर सकता। उसे पति के स्वामित्व का तो बोध रहता है, दाम्पत्य के प्रभाव का प्रबोध नहीं रहता! मन्दोदरी समझ पाती है –

आज मैंने यह भी देखा

दाम्पत्य

जब आत्मा का अंश बन जाता है

तब वह

इतना सार्मथ्यवान होता है

कि तिनका भी

'चन्द्रहास' को पराजित कर देता है।

अबला सीता के

हाथ में उठा हुआ तृण

फहरा रहा था

शील की पताका–सा!

और लंकेश्वर के बलशली कर में

उठी हुई तलवार

कुण्ठित–पराजित थी!

दाम्पत्य के अद्भुत अर्थ और बिम्ब मन्दोदरी के समक्ष उद्घाटित होते जाते हैं और वह सीता में राम के दर्शन पाकर कृत-कृत्य हो जाती है –

आज मैंने यह भी जाना

दाम्पत्य की स्नेहमयी साधना में

दूरियों का कोई अर्थ नहीं होता!

राम–समुद्र के उस पार हैं

सीता–समुद्र के इस पार

लंका में बन्दिनी हैं

किन्तु आज जो देखा

कल्पनातीत है वह!

अशोेक तरु तले बैठी सीता के

रोम–रोम में

रूपायित थे राम

सीता के श्वास–प्रश्वास में

स्पन्दित थे राम

सीता के अश्रु–अश्रु में

प्रतिबिम्बित थे राम

राम ही राम–

केवल राम!

आज मैंने अनुभव किया

कि दूर होते हुए भी

राम सीता के कितने निकट थे

और मेरे पार्श्व में खड़े

मेरे पति

मेरे अपने नहीं थे!

मन्दोदरी का मनस्ताप उसे जीवन के सन्दर्भ में अलभ्य चिन्तन-सरणि सौंप जाता है। वह इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि आगामी अवश्यम्भावी युद्ध में रावण की पराजय सुनिश्चित है क्योंकि-

ऋषि मुनियों के आशीष

लंकेश्वर को मिले नहीं

जनता की आस्था उनके संग नहीं

और आज तो उन्होंने

अपनी धर्मपत्नी का

विश्वास भी खो दिया

वह व्यक्ति जीवन के रणांगण में

जीतेगा कैसे

जिसकी सहधर्मिणी का विश्वास

कवच बनकर

उसकी रक्षा न कर रहा हो ?

मन्दोदरी के मनस्ताप के माध्यम से आधुनिक युग को दाम्पत्य की अप्रमेय विभा का दर्शन कराने वाली कविवर रमेश तिवारी 'विराम' की यह सुदीर्घ कविता समकालीन रामकाव्य की एक स्वस्तिमती उपलब्धि है।   

अभिव्यक्ति मुद्रा

हमारी फिक्र में माथे पे

सिलवट डाल लेती है,

हिफ़ाज़त को हमारी खुद

पे संकट डाल देती है।

न जाने कौन–सा रिश्ता है

बूढ़े पेड़ से उसका,

यहां से मां गुज़रती है

तो घूंघट डाल लेती है।

– अजय शुक्ल

दर्द अपना है या पराया है,

ये तो सोचा नहीं निभाया है।

आंख में फिर नमी–सी आई है,

कोई शिद्दत से याद आया है।

                             –विजय राठौर

 

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