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स्वामी जी के आदर्शों के प्रतिरूप थे डा. हेडगेवार

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Mar 9, 2013, 12:00 am IST
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स्वामी विवेकानन्द के चिन्तन का मूर्तरूप संघ (1)

दिंनाक: 09 Mar 2013 12:41:04

स्वामी विवेकानन्द के चिन्तन का मूर्तरूप संघ (1)

सीताराम व्यास

स्वामी विवेकानन्द के जीवनोद्देश्य पर भगिनी निवेदिता ने अपनी पुस्तक 'दी मास्टर आई सॉ हिम'़ में लिखा है स्वामी जी कहते थे कि मुखर हिन्दुत्व का जागरण हो और भारत प्राचीन गौरव को पुन: प्राप्त करे- यह मेरे जीवन का लक्ष्य है। हमारे देश के दो आदर्श हैं-त्याग और सेवा। चरित्र-निर्माण, अनुशासन और संगठन समय की आवश्यकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सत्तासी वषों से निरन्तर स्वामी जी के विचार-दर्शन को मूर्तरूप दे रहा है।  संघ-संस्थापक डा. हेडगेवार जी के हृदय में उनके  प्रति अपार श्रद्धा थी। डा.साहब के भाव-जागरण की भूमि बंगाल रही थी। वे चिकित्सा-विज्ञान का अध्ययन करने के लिए कलकत्ता गये थे। डाक्टर साहब बंगाल के क्रान्तिकारियों के सम्पर्क आ गए थे।

स्वामी जी के भाषणों में अनेक बार भारत की  असंगठित स्थिति का विवेचन हुआ है। वे कहते थे कि   'हमारे समाज में संगठन की क्षमता का पूर्णत: अभाव रहा है। जिसे विकसित करने की आवश्यकता है। भारत में तीन व्यक्ति पांच मिनट आपस में मिलकर कार्य नहीं कर सकते। प्रत्येक व्यक्ति सत्ता के लिए संघर्ष करता है। हम एक दूसरे से प्रेम नहीं करते, हम महा स्वार्थी है! हम भारतवासी एक दुसरे से घृणा किऐ बिना, आपस में मिल-जुल कर एकत्र नहीं रह सकते। इसलिए स्वामी जी भारत को महान् बनाने के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संगठित  उद्यम को आवश्यक समझते थे। डा. हेडगेवार जी ने भी संगठन की महत्ता को अनुभव करते हुए सन् 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। उन्होंने अपने शेष जीवन के 15 वर्ष हिन्दू संगठन के निर्माण में लगाया। उन्होंने, बिखरे हुए हिन्दू समाज को एकता के सांचे में सूत्रबद्ध करना ही अपना लक्ष्य बनाया। डा. साहब ने देश के स्वतंन्त्रता- आन्दोलन में भाग लेते हुए भी ऐसे ही अराजनीतिक संगठन का प्रारम्भ किया, जो चरित्रवान, देशभक्त  नागरिकों का निर्माण कर सके। उन्होंने अपने जीवन काल में हिन्दू समाज के पत्थरों में से चैतन्य युक्त मूर्तियों का निर्माण करके दिखाया।

डाक्टर जी को भी संघ कार्य के संचालन मे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। एक बैठक में जब डाक्टर जी हिन्दू संगठन की आवश्यकता पर चर्चा कर रहे थे, तब एक सज्जन बोले 'डा. साहब! हिन्दू-संगठन असम्भव है। हिन्दुओं को संगठित करना और मेढकों को तोलना-एक जैसा ही है।'़ समाज की ऐसी निराशाजनक मन: स्थिति में से उन्होंने केवल पन्द्रह वर्षों में ही अपने अनथक परिश्रम से एक अनुशासित शक्ति को खड़ा कर दिखाया। आज तक संगठन चाहिये का शोर मचाने वाले कई लोग हुए, किन्तु सच्चे हृदयों का अभेद्य संगठन किसने निर्माण किया? एक-एक स्वयंसेवक की चिंता करने वाले हजारों संवेदनशील हृदय किसने निर्माण किये? डाक्टर जी  ने असम्भव को सम्भव कर दिखाया और स्वामी जी की अपूर्ण कामना को फलीभूत किया।

स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे कि हिन्दुत्व राष्ट्र का प्राण है! स्वामी जी के हिन्दुत्व पर अनेक व्याख्यान हुए। एक स्थान पर उन्होंने अपने व्याख्यान में कहा मैं 'हिन्दू'़ शब्द का प्रयोग किसी बुरे अर्थ में नहीं कर रहा हूं न मैं उन लोगों से सहमत हूं जो समझते हैं कि इस शब्द के कोई बुरे अर्थ हैं।——आज भले हमसे  घृणा करने वाले कुत्सित अर्थ आरोपित करना चाहते हों, पर केवल नाम में क्या धरा है? यदि आज हिन्दू शब्द का बुरा अर्थ लगाया जाता है, तो उसकी परवाह मत करो। आओ ! हम सब अपने आचरण से संसार को दिखा दें कि संसार की कोई भी भाषा इससे महान् शब्द का अविष्कार नहीं कर पायी है।'़ डाक्टर साहब ने भी संघ का वैचारिक अधिष्ठान 'हिन्दुत्व' ही रखा। उनकी भी स्वामीजी की तरह हिन्दुत्व के प्रति अगाध निष्ठा थी। आज भी संघ इसी अधिष्ठान को लेकर समाज में कार्य कर रहा है। संघ ही ऐसा ध्येयनिष्ठ संगठन है, जो एक शाश्वत सत्ता को लेकर निरन्तर अग्रसर है और इसी प्रकार अविचल गति से आगे भी चलता रहेगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अटल विश्वाास है कि इस देश की राष्ट्रीयता हिन्दुत्व है। इस देश में रहने वाला व्यक्ति अपनी मातृभूमि के प्रति ऐकान्तिक निष्ठा रखता है, वह हिन्दू है। हिन्दुत्व की इससे अधिक सरल, सटीक और तर्कसंगत परिभाषा अन्य नहीं हो सकती।

भारत-भक्ति और हिन्दुत्व का भाव एक ही है। हमारी इष्ट देवी भारत माता है जो स्वामी जी के हर श्वास में उच्चरित होती थीं। भगिनी निवेदिता ने लिखा है कि स्वामी जी और भारत एकाकार हो गये थे, भारत उनके हृदय की धड़कन थी। स्वामी जी ने कहा था 'प्रत्येक भारतवासी सभी देवी-देवताओं को छोड़कर केवल भारत-माता की पूजा करे। यह साक्षात् जग-जननी है। यह हमारी आराध्या है।' राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ केवल और केवल भारत-माता को ही अपनी आराध्या मानता है, जिसका प्रत्येक स्वयंसेवक प्रार्थना के अन्त में 'भारत-माता की जय' उच्चरित करता है।

किसी भी देश की उन्नति का मापदण्ड वह सच्चरित्र नागरिक है, जो अपने स्वार्थ को त्यागकर देश-हित का कार्य करे। स्वामी जी ने प्रसिद्ध क्रान्तिकारी हेमचन्द्र घोष से कहा था कि 'मेरे जीवन का लक्ष्य व्यक्ति-निर्माण है। संघ-संस्थापक ने भी अपने जीवन का यही लक्ष्य रखा। उनका विश्वास था कि अंग्रेजों के भारत छोड़ देने से ही देश के कष्टों का अन्त नहीं हो जायेगा। केवल एक सशक्त, अनुशासित, संगठित हिन्दू-समाज ही राष्ट्रीय स्वाधीनता और अखण्डता की 'गारन्टी' दे सकता है। अत: डाक्टर साहब ने व्यक्ति-निर्माण की अनोखी, सरल शाखा-पद्धति का आविष्कार किया। शाखा के नियमित कार्यक्रमों का मूल उद्देश्य प्रशिक्षण के माध्यम से स्वयंसेवकों का शारीरिक, मानसिक और चारित्रिक विकास करना होता है। स्वयंसेवक स्वयं ही  अनुशासन के संस्कारों में ढल कर राष्ट्रोत्थान की दिशा मे अग्रसर होने लगते हैं।

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