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उनके साथ न्याय नहीं हुआ

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Mar 2, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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स्वातंत्र्यवीर सावरकर की पुण्यतिथि (26 फरवरी) पर विशेष

दिंनाक: 02 Mar 2013 13:56:30

 

स्वातंत्र्यवीर सावरकर की पुण्यतिथि (26 फरवरी) पर विशेष

मुजफ्फर हुसैन

समय बीतने के साथ ही यह सवाल प्रासंगिक होता जा रहा है कि ब्रिटिश साम्राज्य वीर सावरकर से भयभीत क्यों रहा? स्वतंत्रता प्राप्ति के समर में सैकड़ों लोगों ने भाग लिया, जिन्हें समय-समय पर दंडित भी किया जाता रहा। लेकिन वीर सावरकर इस महासंग्राम के एक ऐसे सिपाही थे जिन्हें अंग्रेज सरकार ने कष्ट ही कष्ट दिए। सावरकर जी के जीवन में एक दिन भी ऐसा नहीं आया जब उन्हें कुछ क्षणों के लिए आराम मिला हो। भारत हो या भारत के बाहर उन पर अत्याचारों के ऐसे पहाड़ तोड़े गए कि कोई साधारण व्यक्ति तो अपना दम ही तोड़ दे। इसके बावजूद वे न कभी अपने लक्ष्य से हिले और न कभी डिगे। शायद यही कारण है अंग्रेज सरकार उनके खून की प्यासी रही। हद तो तब हो गई कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी सत्ता जिनके हाथों में आई उन्होंने भी सावरकर जी की घोर उपेक्षा की। आज भी सरकारी दस्तावेजों में उनके प्रति न तो कोई सम्मान दर्शाया जाता है और न ही उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त की जाती है। क्या इस मामले में कांग्रेस सरकार ने ब्रिटिश सत्ताधीशों से कोई गुप्त समझौता किया था, या फिर उसे भी सावरकर जी का भय सताता है?

अंग्रेजों को सबसे अधिक भयभीत करने वाली घटना 1857 की क्रांति थी। अंग्रेज येन-केन प्रकारेण इससे उबर तो गए लेकिन उन्हें एक भय हमेशा सताता रहा कि कहीं पुन: 1857 वापस लौट न आए। इसलिए इस प्रकार की रीति-नीति अपनाई कि कोई फिर से इस प्रकार का विद्रोह करने का प्रयास ही नहीं करे। 1857 के पश्चात् ब्रिटिश सरकार ने प्रशासकीय स्तर पर अनेक ऐसे निर्णय लिये जिससे भारतीयों में अंग्रेजों के प्रति विश्वास पैदा हो जाए। शिक्षा के क्षेत्र में ब्रिटिश सत्ताधीशों ने क्रांतिकारी निर्णय लिए। इतना ही नहीं इसी दिशा में सबसे बड़ा कदम इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना करके उन्होंने यह दर्शाने का प्रयास किया कि वे भारतीयों को भी अपने देश के प्रशासन में भाग लेने का पूरा-पूरा अवसर प्रदान करने वाले हैं। कांग्रेस की स्थापना के पश्चात् अंग्रेज पढ़े-लिखे भारतीयों में अपना विश्वास पैदा करके इस दिशा में निश्चिंत होने लगे कि अब भारत में 1857 नहीं लौटेगा।  1905 में उन्होंने ढाका के नवाब सलीमुल्ला के नेतृत्व में मुस्लिम लीग की स्थापना भी करवा ली। लेकिन इसी बीच नासिक के कलेक्टर की हत्या एवं इंडिया हाउस की स्थापना के पश्चात ब्रिटिश सत्ताधीशों को यह भय सताने लगा कि भविष्य में 1857 पुन: लौट सकता है। इस शंका में उन्हें सावरकर जी के नेतृत्व में इंडिया हाउस में चल रही गतिविधियां भी भीतर ही भीतर सता रही थीं। जब लंदन में मदनलाल धींगरा ने कर्जन वाइली की हत्या कर दी उस समय तो यह शंका और भी विश्वास में बदल गई। ब्रिटिश सत्ता को यह विश्वास हो गया कि सावरकर जी उस वर्ग का नेतृत्व कर रहे हैं जो क्रांति के मार्ग से भारत में अंग्रेजों को चुनौती दे सकता है। इसलिए भारतीय दर्शन और परंपरा के अनुसार दक्षिण अफ्रीका की घटनाओं से सबक लेकर एक अहिंसक आंदोलन को भारत में शुरू करवाने की नीति पर विचार होने लगा। उनके सामने महात्मा गांधी थे। गांधी से बढ़कर उन्हें शांत और अहिंसक आंदोलन की गारंटी कौन दे सकता था? इसलिए 1857 को रोकने के लिए ब्रिटिश सत्ता ने अपना एक और पांसा फेंका जो बहुत हद तक सफल रहा। क्रांतिकारियों के बीच यह संदेश दिया जाने लगा कि गांधी जी की विचारधारा से भी परिस्थितियां बदली जा सकती हैं। गांधी जी के भारत आगमन ने अंग्रेजों को एक बार फिर आश्वस्त कर दिया कि इससे 1857 को रोका जा सकता है। महात्मा गांधी का आंदोलन ब्रिटिश सत्ता के लिए राहत की सांस लेने वाला एक अल्पविराम था।

 

संगत का सेवा शिविर

प्रयाग में चल रहे कुंभ मेले में राष्ट्रीय सिख संगत ने शिविर लगाकर श्रद्धालुओं के लिए अनेक सेवाएं उपलब्ध कराईं। संगत के राष्ट्रीय महामंत्री श्री अविनाश जायसवाल ने बताया कि झूंसी में 5 फरवरी से लंगर लगाया गया, जिसमें प्रात: 5 बजे से रात्रि 10 बजे तक श्रद्धालुओं को चाय, नाश्ता और भोजन उपलब्ध कराया गया। यह शिविर मेले की समाप्ति तक चला। सेवा शिविर का उद्घाटन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के काशी प्रान्त प्रचारक श्री अभय कुमार और बाल संन्यासिनी श्यामभावी ने किया। श्रद्धालुओं के लिए चिकित्सा शिविर भी आयोजित किया गया और चित्र प्रदर्शनी भी लगाई गई। प्रतिनिधि

जयपुर में रक्तदान

स्वामी विवेकानंद की 150वीं जयंती के उपलक्ष्य में गत 24 फरवरी को जयपुर (राजस्थान) में 5 स्थानों पर रक्तदान शिविरों का आयोजन किया गया, जिनमें सैकड़ों लोगों ने रक्तदान किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के महानगर संघचालक कर्नल (से.नि.) धनेश चन्द गोयल ने बताया कि इस आयोजन से लोगों के बीच रक्तदान की प्रेरणा जगी और स्वामी विवेकानंद के नाम का प्रभाव भी देखने को मिला। प्रतिनिधि

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