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मृदुला सिन्हा
मिथिलांचल में भाई बहनों के संबंध की व्याख्या करने, उनके अन्दर स्नेह सूत्र को मजबूत करने वाला 8 दिनों का एक खेल खेला जाता है- 'सामा-चकेवा'। इस खेल में गीतों का बहुत महत्त्व होता है। उन गीतों की पंक्तियां मेरी जिह्वा पर अक्सर तैर जाती हैं। पिछले दिनों धान कटाई और धान सहेजने का मौसम था। गांव में रहने वाले संबंधियों-रिश्तेदारों से बातचीत में धान कटाई, धान कूटने और संवारने का ही विस्तृत वर्णन सुनती रही। और मुझे सामा-चकेवा खेल के गीत की कुछ पंक्तियां स्मरण हो आईं-
'धान, धान, धान
भैया कोठी धान
चुगला कोठी भूसा।'
खेल खेलती बहनें अपेक्षा करती हैं कि उनके भाई के खेत में खूब धान उपजे, जिससे उनका मायका 'धन-धान्य' से पूर्ण हो। दरअसल धान, समृद्धि का ही प्रतीक है। जिस वर्ष धान की फसल अच्छी हुई, उस वर्ष परिवार सुखी रहा।
'धनमा के लागल कटनिया
भरलो कोठारी देहरियो भरल बा
भरल बाटे बाबा दुअरिया
अबकी बखारी में भरी–भरी धनमा
छूट जइहे बंधक गहनमा
भउजो के मनमा मगनमा।'
यानी-इस बार धान हुआ है। भाभी मगन है। उन्हें आशा है कि अब उसका बंधक गहना छूट कर आएगा।
'सामा-चकेवा' के गीत में ही बहन कहती है कि उसे मायके में जमीन का हिस्सा नहीं चाहिए। भाई और भतीजा ही बाबा की संपत्ति का उपभोग करे। लेकिन मुझे समय-समय पर मोटरी (संदेश) और सिन्दूर भेजते रहना।
'बाबा के संपत्तिया हो भैया,
भतीजवे भोगे हो राज
हम दूरदेशी हो भैया,
सिन्दूरवा के आस
हम परदेशी हो भैया
मोटरिया के आस।।'
भाई-बहन की मांग को स्वीकार करता है। भाई के मन में भी यह भाव है कि बहन सब कुछ छोड़कर ससुराल चली गई। उसके पास देने के लिए है ही क्या? जमीन की संपत्ति है। वह धान देती है। धान उसका धन है। इसलिए भाई कहता है-
'आबे देही अगहन के बहिणी
कटैवो सरिहन धान
चिउरा कसरवे गे
बहिनी पठाय देवो भाड़।।'
अगहन (धान कटाई का समय) आने दो।
धान कटवाऊंगा। चिउड़ा (पोहा) और कसार (चावल से बना लड्डू) भार पर रखकर (ढेर सा) भिजवा दूंगा।
गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है- 'महीना में मैं मार्गशीर्ष (अगहन) हूं।'
मेरी दादी ने गीता नहीं पढ़ी थी। वह कहा करती थीं-'अगहन महीना उत्तम महीना होता है। एक दिन इसी महीने में धान खेत से घर में आता है। कोठी बखारी में भरता है। कइयों के कर्ज उतरते हैं। गरीब-दुखिया भी माड़-भात खाकर पेट भर लेता है।'
दादी अपने घर में धान भरने से अधिक गरीबों के पेट भरने पर प्रसन्न होती थीं। हलवाहा की घरवाली मजदूरी लेने आई थी। उन दिनों मजदूरी में अनाज ही दिया जाता था। वह गर्भवती थी। वह दादी से कह रही थी उसे खेसारी (एक प्रकार का अनाज) मजदूरी नहीं चाहिए। वह धान ही लेगी। मेरी दादी ने उसे समझाया- तुम्हें बच्चा होने को है। जब बच्चे का जन्म होगा तो अगहन महीना रहेगा। तब तुम्हें धान ही 'मजदूरी' में दूंगी। माड़-भात खाने से बच्चे को खूब दूध पिला सकोगी।
धान का महत्त्व दादी जानती थीं। आशीर्वाद दिया जाता है-'धन धान्या से पूर्ण हो।' धान भी धन ही है। रुपए खाए नहीं जाते हैं। धान खाए जाते हैं। भात, चिउड़ा, लड्डू, खीर के साथ तरह-तरह के दक्षिण भारत में बनने वाले व्यंजन चावल से ही बनाए जाते हैं। धान के भी भिन्न-भिन्न प्रकार होते हैं। दादी, दादा जी से हर वर्ष आषाढ़ में कहती थीं-'लाल धान भी उपजाना है। शादी-ब्याह और पूजा-अर्चना में लाल धान की ही जरूरत होती है। मिथिलांचल में विदा होते समय बेटी के आंचल में 'खोंइछा' दिया जाता है। उसमें धान, दूब, हल्दी और द्रव्य (रुपया, सोना, चांदी) रखा जाता है। दादी हमेशा अपनी बहुओं को स्मरण दिलाती थीं-'कोठी से लाल धान ही निकालना।' दादी अपनी बेटी-पोतियों की विदाई पर बहुत रोती थीं। मेरी बड़ी बहन के विदा होने पर भी रोती रहीं। फिर उन्होंने कहा-'बेटीधन भी धानधन के समान है।'
मैंने पूछा-'दादी! आप बेटी और धान को एक समान क्यों मानती हैं? आप स्वयं भेदभाव करती हैं बेटी और धान में। धान तो अपनी कोठी में भर लिया। बेटी को इतनी दूर भेज दिया।'
दादी समझातीं-'धान भी एक दिन खेत में ही जाएगा। एक खेत में नहीं रहता। जिस खेत में उसका बीचरा (छोटी फसल) तैयार होता है उसमें नहीं फूलता-फलता। दूसरे खेत में उखाड़कर रोपा जाता है। वहीं वह एक से सहस्त्र होता है। बेटी भी जिस घर में पलती है वहां से वह दूसरे परिवार में जाकर मां, दादी और भी बहुत कुछ बनती है। है न बेटी और धान एक समान?'
धान ऐसा अन्न है जो हर क्षेत्र में कम या ज्यादा उपजता है। भोजन में अधिक उपयोग होता है। उत्तरी भारत में भांजी के विवाह के समय मामा को विशेष खर्च करना पड़ता है। उसे 'भात देना' कहा जाता है। जबकि मामा को अपनी भांजी के ससुराल वालों और भांजी के लिए कपड़े, जेवर, बर्तन बहुत कुछ देना पड़ता है। भात देने से अभिप्राय 'धन' देना भी हो सकता है। यहां 'भात' धन के रूप में उपयोग हुआ है। मिथिलांचल में बेटी के विवाह के बाद दूसरे दिन एक रस्म होती है जिसे 'भतखई' कहते हैं। समधी, दामाद और बारातियों के साथ लड़की के चाचा, ताऊ, पिता, भाई भी अपने गांव के प्रमुख लोगों के साथ जीमने (खाने) के लिए बैठते हैं। भांति-भांति के पकवान और व्यंजन परोसे जाते हैं। लेकिन इसे भोजन नहीं कहते। इसे 'भतखई' ही कहा जाता है। वर-वधू के दोनों परिवारों के साथ बैठकर खाने से अभिप्राय है दोनों के समाज का मिल जाना। विवाह के पूर्व भी दोनों के रिश्ते बनने की पुष्टि तब होती है जब 'धन बट्टी' की रस्म पूरी होता है। लड़की और लड़के की ओर से लाल धान आता है। पंडित जी मंत्र पढ़कर दोनों तरफ धान को मिलाकर अच्छी तरह फेंटते हैं। फिर उसके दो भाग कर देते हैं। एक भाग लड़का और दूसरा भाग लड़की के घर जाता है। अभिप्राय यह है कि दोनों परिवार मिल गए। विवाह पक्का हो गया। आज इन रस्म-रिवाजों को लोग भूल रहे हैं। विवाह के समय के प्रतीक भी समाप्त हो रहे हैं। परिणाम सामने है।
बिहार के पश्चिमी हिस्से में बहुत धान होता है। उस क्षेत्र को मझौआ भी कहा जाता है-
'देस है मझौआ,
जहां भात न पूछे कौआ।'
धान तो विश्वांगन का धन है। धान जीवित रहेगा, हमारी संस्कृति धान मय जो है।
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