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EDIT:दिल्ली नहीं सुनती पूर्वोत्तर की चीखें

by
Mar 2, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Mar 2013 16:02:31

 अपना–अपना नहीं, उनका धर्म मानो। उनका निशान ले लो, नहीं तो उनका निशाना बन जाओ। उनकी जबान बोलो, वर्ना वो तुम्हारी जबान खींच लेंगे।…इलाका तुम्हारा है मगर इस पर कब्जा उनका है जिनके पैरोकार राजधानी में बैठे हैं।

असम की राभा और होजोंग जनजातियों की चीखों पर सरकार की ढीठ चुप्पी को इस समुदाय के खात्मे का इशारा नहीं तो और क्या कहें? मूल क्षेत्रीय पहचान और प्रतिनिधित्व को बचाए रखने के लिए अठारह वर्ष पहले इन जनजातियों की अलग स्वायत्त परिषद बनी, लेकिन इनके इलाके को आज तक चिन्हित नहीं किया गया। ये वनवासी अपना इलाका, अपना हक चाहते हैं मगर चुनाव आयोग इनकी पुरातन पहचान की परवाह किए बगैर पंचायत चुनाव कराने पर अड़ा रहा। खुद सरकार की तरफ से ऐसे काम हुए जिनसे संविधान की छठी अनुसूची और स्वायत्तशासी क्षेत्र अधिसूचना के उल्लंघन के संकेत गए मगर दिल्ली में पत्ता तक नहीं खड़का। मुद्दा उन हदों को पार कर गया जब उसे राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में जगह मिलनी चाहिए थी। लेकिन पूर्वोत्तर की चीख दिल्ली में खो गई।

और तो और, केन्द्र और असम की राज्य सरकार एक खास जनजातीय नस्ल के बर्बर हत्याकांड को खामोशी से देखती ही नहीं रही, खाकी के हाथ भी वनवासियों से खून से रंग गए। वैसे, यह पहली बार नहीं है। 2011 में पहली जनवरी की सुबह राभा लोगों के लिए गहरा जख्म लेकर आई थी। तकरीबन तीन दर्जन गांवों के तीस हजार लोग तब बेघर हुए थे, इस बार पुलिस फायरिंग और बंगलादेशी घुसपैठियों के हमलों में करीब दो दर्जन वनवासियों की लाशें गिरी हैं।

इलाके का सामाजिक–आर्थिक ताना–बाना बदलने में जुटे बंगलादेशी घुसपैठियों की गुंडागर्दी, इस क्षेत्र को मूल नस्ल, आदि मान्यताओं को मत परिवर्तन के जरिए खत्म करने की मुहिम में जुटे मिशनरी और स्वायत्तशासी इलाके में अपना राजनीतिक प्रतिनिधित्व थोपने को उतावले सियासी दल, इन सबका खतरनाक गठजोड़ लंबे अरसे से पूर्वोत्तर के सीमांत इलाकों को देश से काटने की जमीन तैयार कर रहा है। आर्थिक–सामरिक दृष्टि से बेहद अहम इस इलाके का जाना यानी घर की दीवार ढह जाना।

देशहित को ताक पर रख तुष्टीकरण और मानवाधिकार की नकाब ओढ़ घातक दांव खेले जा रहे हैं। यह वक्त राभा-होजांेग और रियांग जनजातियों के हत्यारे चेहरों से नकाब नोंचने का है। यह वक्त चेहरों की परख का है। क्योंकि… गुजरात-गुजरात रोने वाली जिन आंखों को गोधरा के गुनहगार नहीं दिखते, जिन आंखों में सरहद पर जान गंवाने वाले सैनिकों की बजाय अफजल के लिए आंसू आते हैं, जो आंखें घुसपैठियों में अपना वोट बैंक देख रही हैं उन आंखांे में भारत को टुकड़े-टुकड़े करने का सपना पल रहा है।

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