संवेदनहीन दौर
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खुलेआम दे रहा चुनौती दो कौड़ी का पड़ोसी दुश्मन
सीमाओं से जांबाजों की शीश कटी लाशें घर आईं
इतना तो सम्मान मिल गया, और बता क्या तुझे चाहिए
अंधी, बहरी, कायर, गूंगी, ले दिल्ली ले लाख बधाई।
बेशर्मी से झेल गई तू जनमत के भारी दबाव को
मुश्किल से फांसी हो पाई आतंकी अफजल, कसाब को
फूंक मारकर बुझा रही है देशभक्ति के हर दीपक को
और सहेजे है जतनों से गद्दारी के हर अलाव को
बूढ़े शेर पालकी ढोते हैं नौसिखिये युवराजों की
सिलपट सिक्के हंसी उड़ाते हीरों, पन्नों, पुखराजों की
राजमहल की खिड़की में से हमने अजब तमाशे देखे
बूढी बकरी के चाबुक पर हाथी नाच दिखाते देखे।
मंत्रीगण ने लाखों खाकर तेरी कीर्ति ध्वजा लहराई
अंधी, बहरी, कायर, गूंगी, ले दिल्ली ले लाख बधाई।
महंगाई की तांत धुन रही जनता की खुशियों की रूई
नागफनी पर चढ़ी जवानी, सूखी तुलसी, चम्पा, जूही
तुझको क्या लेना देना है, गंगा सड़े कि यमुना सूखे
तू खर्राटे मार सो रही, जागें ठिठुरें लाखों भूखे
शायद तुझको पता नहीं है, भूख गजब भी ढा सकती है
और पेट की आग एक दिन, तख्तोताज जला सकती है।
तेरे खाते में आनी है जीवन भरके लिए रुलाई
अंधी, बहरी, कायर, गूंगी, ले दिल्ली ले लाख बधाई।
बिच्छू, सांप, गिद्ध पलते हैं, सब सरकारी उद्यानों में
वीर शहीदों की गाथाएं पड़ी सड़ रही तहखानों में
लावारिश लाशें बिखरी हैं, कदम कदम पर ईमानों की
गौतम गांधी के सीनों में, धंसी बर्छियां शैतानों की
लालकिले थोड़ी हिम्मत रख, बस थोड़ा सा ठहर तिरंगे
यमुने थोड़ा वक्ष उभारो, थोड़ा खुलकर घहरे गंगे।
इस कलमुहे दौर की बस अब, होने ही वाली है बिदाई
अंधी, बहरी, गूंगी, कायर, ले दिल्ली ले लाख बधाई।
* दिल्ली यानी सत्ता/शासन
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