इन दस्तावेजों में किनके राज छुपे है?
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सुप्रसिद्ध विद्वान स्वामीनाथन अय्यर ने 1948 में हुए हैदराबाद दंगों की जांच के लिए गठित प्रो. सुन्दरलाल की रपट को प्रकाशित करने की उचित मांग की है। आखिर क्या कारण है कि वर्तमान गठबंधन सरकार वैश्विक परम्पराओं को नकार कर आम-जन को महत्वपूर्ण मामले में सूचना के अधिकार से वंचित रखकर, अनेक महत्वपूर्ण दस्तावेजों तथा रपट को सार्वजनिक न कर, देश की जनता को अंधेरे में रखना चाहती है। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सर्व स्वीकार्य नियम है कि विश्व की प्रत्येक सरकार को अपने शासनकाल से पूर्वकाल के 20 वर्षों तक के दस्तावेजों का वर्गीकरण करके अपने नागरिकों के लिए सार्वजनिक करना चाहिए। यह अवधि अधिक से अधिक 30 वर्षों की हो सकती है। भारत को तो स्वतंत्र हुए 65 वर्ष हो गए, परन्तु अब भी 1948 के हैदराबाद दंगों की रपट को सार्वजनिक न करने का क्या औचित्य है? विडम्बना यह भी है कि भारत सरकार के अनेक दस्तावेज भारतीय नागरिकों के लिए तो 'गुप्त' ही रहते हैं या गायब हो जाते हैं जैसे नेता जी सुभाष चन्द्रबोस से संबंधित दस्तावेज गायब हैं। हां, विदेशी गुप्तचरों व लेखकों के हाथों में आसानी से पहुंच जाते है। ऐसे में विचारणीय है कि क्या कभी किसी सरकार ने इस बैद्धिक चोरी, कालाबाजारी या भ्रष्टाचार या देश से गद्दारी के विरुद्ध कोई कठोर कदम उठाया है?
यह नीति है या अनीति?
दो वर्ष पूर्व के सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में ऐसी 28,295 दस्तावेज या फाइलें हैं जिन पर 'गुप्त' लिखा है, परन्तु इनका वर्गीकरण नहीं हुआ है। सरकारी सूचना के अनुसार इनमें से 2007 ई. में 17 2008 ई. में 25 तथा 2009 ई. में एक भी फाइल का वर्गीकरण नहीं हुआ। आखिर भारत का गृह मंत्रालय इस विषय में इतनी उपेक्षा क्यों दिखा रहा है? भारतीय गणतंत्र इस क्षेत्र में इतना पिछड़ा क्यों है? क्या 'राष्ट्रहित के लिए खतरनाक' का ठप्पा लगाकर किसी भी फाइल को 'गुप्त' घोषित किया जा सकता है? क्या देश के नागरिकों को 'सच्चाई' जानने का अधिकार नहीं है? आखिर घटनाओं की सचाई तक पहुंचने के लिए कितनी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी?
यह भी कटु सत्य है कि अंग्रेजों ने भारत छोड़ने से पूर्व भारत से सम्बधित अनेक महत्वपूर्ण दस्तावेजों को जलाकर नष्ट कर दिया या वे उन्हें अपने साथ ले गए। अंग्रेजों की यह करतूत पं. जवाहर लाल नेहरु की लार्ड वेवल तथा लार्ड माउण्टबेटन से हुए पत्र व्यववहार से भी ज्ञात होती है। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने भी अपनी पुस्तक 'इंडिया विन्स फ्रीडम' में यह पीड़ा व्यक्त की है। स्वतंत्र तथा गणतंत्र भारत में दस्तावेजों को गुप्त रखना या उनका गायब हो जाना अंग्रेजों की नीति का ही अनुकरण तो नहीं है? इस सन्दर्भ में तीन चार प्रमुख घटनाओं को देखा जा सकता है।
इन सचाइयों से पर्दा उठे
विश्व के इतिहास में कहीं भी, कभी भी, किसी भी देश में इतनी बड़ी संख्या में अनियोजित ढंग से जनसंख्या की अदला-बदली हुई, जितनी भारत विभाजन के समय में हुई थी। प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात, 1923 ई. में ग्रीक, टर्की, और बलगेरिया में कुल एक लाख चालीस हजार जनसंख्या की अदला-बदली हुई थी तथा इसके लिए 18 महीने का पर्याप्त समय दिया गया था। परन्तु पंजाब तथा बंगाल में लगभग एक करोड़ लोगों की अदला-बदला होनी थी, जिसके लिए कुल 3 महीने का समय दिया गया था। स्वाभाविक है इन तीन महीनों में भयंकर नरसंहार, सामूहिक हत्याएं, सम्पत्ति की लूट और उन्हें आग के हवाले करने, महिलाओं का अपहरण तथा उनसे बलात्कार हुए थे। विश्लेषकों ने इसे 'गृहयुद्ध' अथवा 'उत्तराधिकार का युद्ध' कहा था। गैरसरकारी आकड़ों के अनुसार इस दौरान पंजाब क्षेत्र में लगभग पांच लाख हिन्दू तथा लगभग इतने ही मुसलमान मारे गए थे। दोनों ओर से कुल मिलाकर एक लाख महिलाओं का अपहरण तथा बलात्कार हुआ था। (देखें- हरियाणा इन्साइक्लोपीडिया, खण्ड चार, भाग दो, पृ. 413) वह पूरी रपट गुप्त है और कांग्रेस कहती है कि देश को आजादी अहिंसा के मार्ग पर चलकर मिली।
दूसरे, कौन नहीं जानता कि कश्मीर और हैदराबाद की रियासतों के विलय में वाधा के पीछे लार्ड माउन्टबेटन की कूटनीति, जिन्ना की शरारत तथा भारत सरकार की उदासीनता थी। जब षड्यंत्रों से सफलता नहीं मिली तब पाकिस्तान ने बल प्रयोग द्वारा कश्मीर को हथियाने के लिए कबाईलियों के पाकिस्तान की सेना ने 23 अक्तूबर, 1947 को मुजफ्फराबाद की ओर से आक्रमण किया था। कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहरचन्द महाजन के अनुसार भारत सरकार उदासीन थी तथा भारत का गुप्तचर विभाग भी तब नदारद था। आखिरकार देर से ही सही, भारत की सेनाओं ने पाकिस्तान की सेनाओं को खदेड़ना शुरू किया। भारतीय सेना पाकिस्तानियों को पाकिस्तान के भीतर तक जाकर खदेड़ सकती थी। परन्तु शेख अब्दुल्ला की सलाह पर पंडित नेहरू इस मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए और जब युद्ध विराम हुआ तो भारत एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में ही रह गया, हम उसे आज तक छुड़ा नहीं सके। विचारणीय विषय है कि कश्मीर से सम्बधित सभी दस्तावेज भारतीय नागरिकों के लिए इतने वर्ष बाद भी उपलब्ध क्यों नहीं है?
हैदराबाद में हुए साम्प्रदायिक दंगों को स्वतंत्र भारत के इतिहास में सर्वाधिक खतरनाक माना जाता है। इसके बाद दिल्ली में 3000 सिखों के नरसंहार को सर्वाधिक क्रूर माना जाता है। हैदराबाद के दंगों की जांच के लिए प्रो. सुन्दरलाल को नियुक्त किया गया था। उनकी रपट की चर्चा प्रो. कैटवेल स्मिथ ने अपनी पुस्तक 'द मिडल इस्टर्न जनरल (1950)' तथा बाद में प्रो. पैरी एन्डरसन ने विस्तार से की है। अब विलियम डैरीम्पल ने 'ए ऐज आफ बाली' में इसके प्रकाशित होने की बात कही है। परन्तु आश्चर्य है कि सरकार ने 'राष्ट्रहित में खतरनाक' बताकर इसे 'गुप्त' रखा।
चीन से शर्मनाक पराजय
यह सर्वविदित है चीन सरकार को मान्यता देने में भारत विश्व के प्रथम राष्ट्रों में से एक था। चीन न अपना शासन स्थापित होते ही भारत की सीमाओं पर दावेदारी करनी शुरू कर दी थी। सरदार पटेल ने सन् 1950 में पंडित नेहरू को लिखे एक पत्र में चीन का अपना दुश्मन, व्यवहार में अभद्रतापूर्ण और चीन के पत्रों की भाषा को किसी मित्र की नहीं बल्कि भावी शत्रु की भाषा बताया था। पर पं. नेहरू उनसे सहमत नहीं थे। 1954 ई. में ही चीन ने अक्साई चिन (अक्षय चिह्न) के उत्तरी भाग तथा अन्य 50,000 वर्गमील भारतीय क्षेत्र पर अपना दावा ठोंका। सिक्यिांग को जोड़ने वाली सड़क, लद्दाख के 2500 वर्गमील क्षेत्र पर अपना आधिपत्य जमाया। पर भारत 1959 में दलाई लामा के तिब्बत से भागकर भारत आगमन पर भी चीन की चापलूसी में लगा रहा। भारत एकमात्र ऐसा देश है जिसने लगातार नौ बार चीन को संयुक्त राष्ट्रसंघ का सदस्य देश बनाने की आतुरता दिखलाई। इस दृष्टि से पंडित नेहरू ने अन्तरराष्ट्रीय नेता बनने की चाह में चीन की अनदेखी की और राष्ट्र हित की बलि चढ़ाई।
परिणाम, चीन द्वारा 1962 में भारत पर आक्रमण। भारत के हजारों वीर सैनिक बिना किसी भी तैयारी के धोखे का शिकार होकर मारे गए। स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह देश की पहली शर्मनाक हार थी। पं. नेहरू को कहना पड़ा 'हम अपने स्वयं के बनाए कृत्रिम वातावरण में रह रहे थे, हमें इससे बड़ा धक्का लगा है।' 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध के गोपनीय दस्तावेजों से देश का आम नागरिक और सैनिक परिचित नहीं है, आखिर क्यों? आखिर सरकार की देश की सुरक्षा के प्रति इतनी बेरुखी क्यों है? क्या कांग्रेस विश्व की 20 या 30 वर्षों पूर्व के दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की परम्परा से भयभीत है? क्या इन दस्तावेजों के प्रकट होने से कांग्रेस को अपनी छवि खराब होने का डर सताता है? क्या देश की जनता को सरकार की गतिविधियों और कमियों को जानने का हक नहीं है? क्या यह अनुचित नहीं लगता कि भारत का नागरिक अपने ही देश के 'गुप्त' दस्तावेजों को प्रकट रूप में विदेशी पुस्तकों या लेखों में पढ़े? आवश्यकता है कि भारत सरकार 1983 ई. तक के सभी 'गुप्त दस्तावेज' भारतीय नागरिकों के लिए उपलब्ध कराए। इससे देश का नागरिक जिम्मेदार बनेगा, उसे वस्तुस्थिति का ज्ञान होगा। इससे राष्ट्र का हित ही होगा, अहित xɽþÓ*
नागालैण्ड
चुनाव का मतलब–पैसा और हथियार
अलगाववाद और आतंकवाद की शिकार नागालैण्ड की जनता अपना सच्चा प्रतिनिधि कैसे चुनेगी, जबकि उसके रक्षक गृहमंत्री ही अपनी कार में रुपया, गोला-बारूद, हथियार और शराब लेकर घूम रहे हों। 18 फरवरी की अति प्रात: उन्हें असम रायफल्स के जवानों ने धर दबोचा, जब वे अपने विधानसभा क्षेत्र कोरिडंगा जा रहे थे, जहां से वे नागालैण्ड पीपुल्स फ्रंट के प्रत्याशी है। उल्लेखनीय है कि नागालैण्ड में 23 फरवरी (शनिवार) को मतदान होना था। गृहमंत्री इम्कोंग एल. इम्चेन से पहले नागा पीपुल्स फ्रंट के ही प्रत्याशी एन. फोम के हैलीकाप्टर से भी एक करोड़ रुपए नगद बरामद किए गए थे। माना जा रहा है कि यह रुपए उनके चुनाव क्षेत्र लांगलेंग में बांटे जाने हेतु ले जाए जा रहे थे। पर चुनावी इतिहास में यह पहला अवसर है कि एक गृहमंत्री को इतनी बड़ी राशि और अवैध हथियारों के साथ गिरफ्तार किया गया हो। इम्चेन की कार से 1 करोड़ 10 लाख रुपए नगद, 7.65 एमएम की 5 पिस्तौल, 303 एमएम की दो रायफलें, 180 कारतूस तथा शराब की बोतले मिलीं। उन्हें विभिन्न धाराओं के तहत गिरफ्तार कर पूछताछ की गई तो रुपए को 'पार्टी फंड' बताकर हथियारों के मामले में अनभिज्ञता प्रकट की। इसके पहले भी इम्चेन को नेपाल हवाई अड्डे पर भारी मात्रा में अघोषित भारतीय मुद्रा के साथ गिरफ्तार किया गया था। फिलहाल इम्चेन ने गृहमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया है। उधर आतंकवादी संगठन एनएससीएन के तीनों गुट भी हथियार लेकर घूम रहे हैं। शांति वार्ता की आड़ में अपने को मजबूत कर रहे ये आतंकवादी-अलगाववादी संगठन इस बार चुनावी मैदान में भी पर्दे पीछे से अपना वर्चस्व जमाना चाहते हैं। |ÉÊiÉÊxÉÊvÉ
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