तिब्बत की आजादी के लिए एक और आत्मदाह
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नेहरू-सोच से उबरकर तिब्बतियों की पीड़ा पर मुंह क्यों नहीं खोलती भारत सरकार?
डा कुलदीप चंद अग्निहोत्री
17 फरवरी की शाम पूर्वी तिब्बत के लबरांग इलाके में 49 साल के नामल्हा त्सेरिंग के आत्मदाह के साथ ही तिब्बत पर चीनी कब्जे के विरुद्ध आत्मदाह करने वाले तिब्बतियों की संख्या 102 हो गई है। तिब्बत के भीतर आजादी के लिये लड़ रहे तिब्बतियों ने संघर्ष के इस अध्याय की शुरुआत 2009 में की थी। चीन पर माओ के कब्जे के साथ ही 1949 में तिब्बत पर कब्जा करने की चीनी कोशिश शुरू हो गई थी। उस वक्त तिब्बत को आशा थी कि संकट की इस घड़ी में भारत सरकार तिब्बत के साथ खड़ी होगी। लेकिन उसकी यह इच्छा पूरी नहीं हुई। नेहरू उस समय चीन को अपना स्वाभाविक साथी मानते थे। अलबत्ता भारत की जनता जरूर इस मौके पर तिब्बत के साथ खड़ी दिखाई दे रही थी। उसके बाद 1959 में तो चीन ने तिब्बत पर पूरी तरह कब्जा ही कर लिया और दलाई लामा को भारत में शरण लेनी पड़ी।
तब से तिब्बत के लोग चीन से आजादी प्राप्त करने के लिये संघर्षरत हैं। चीन तिब्बत की संस्कृति, धर्म और भाषा को समाप्त कर उसका अस्तित्व मिटाने के प्रयास में लगा हुआ है। सांस्कृतिक क्रान्ति के दिनों में चीनी सेना ने वहां के सभी मंदिर-मठ ध्वस्त कर दिए थे और ल्हासा के तीनों विश्व प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों को धराशायी कर दिया था। लेकिन तिब्बतियों के भीतर मौजूद आजादी की भावना को चीन की सेना समाप्त नहीं कर पाई। तिब्बत के भीतर आजादी का आन्दोलन कभी समाप्त नहीं हुआ। कभी प्रत्यक्ष तो कभी प्रछन्न, उसकी तपिश बीजिंग तक पहुंचती ही रही।
2009 में स्वतंत्रता के लिये संघर्ष करने वालों ने संघर्ष के एक नये तरीके को जन्म दिया, जिसकी मिसाल दुनियाभर में हुए स्वतंत्रता संघर्षों में शायद ही कहीं मिलती हो। वह था स्वयं को अग्नि में होम करके स्वतंत्रता की देवी की आराधना करना। इन आराधकों में ज्यादातर युवा पीढ़ी के लोग ही रहे हैं। पन्द्रह वर्ष के एक बालक तक ने इस यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दे दी। सबसे बड़ी बात यह है कि यह सारा संघर्ष अहिंसात्मक तरीके से हो रहा है। आत्मदाह करने वाले किसी एक भी तिब्बती स्वतंत्रता सेनानी ने किसी चीनी को नुकसान पहुंचाने या मारने का यत्न नहीं किया। चीन के इन आरोपों में कोई दम नहीं है कि तिब्बत की आजादी के लिये लड़ने वाले हिंसा का प्रयोग कर रहे हैं और वे आतंकवादी हैं। दरअसल चीन तो तिब्बतियों को उत्तेजित कर रहा है कि वे हिंसा का प्रयोग करें, क्योंकि चीन जानता है कि मात्र साठ लाख की तिब्बती आबादी को शासकीय हिंसा से कुचलना कितना आसान है।
लेकिन यहां एक और महत्वपूर्ण प्रश्न उठना है कि सारी दुनिया में तथाकथित मानवाधिकारों के प्रश्न को लेकर आंसू बहाने वाली भारत सरकार तिब्बत में चीन सरकार द्वारा किये जा रहे इस अमानवीय कृत्य पर चुप क्यों है? मध्य पूर्व में पिछले दिनों हुए जनान्दोलनों में मानवाधिकारों को लेकर भारत सरकार की चिन्ता समझी जा सकती है, लेकिन पड़ोसी तिब्बत में जो हो रहा है, उसकी निन्दा करते हुए सरकार के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकल रहा। कम से कम मानवीय आधार पर ही भारत सरकार इस पर अपनी चिन्ता तो प्रकट कर ही सकती थी। जबकि तिब्बत के साथ भारत के सदियों पुराने सांस्कृतिक व सामाजिक सम्बध हैं । चीन के साथ चल रही द्विपक्षीय वार्ताओं में तिब्बत में हो रहे इस नरमेध का विषय सरकार को जरूर उठाना चाहिए। अफजल की फांसी को लेकर जंतर मंतर पर रुदाली का अभिनय करने वालों की विवशता तो समझ में आ सकती है, क्योंकि उनका रोना-धोना दिल से नहीं बल्कि एक रणनीति से संचालित होता है, लेकिन भारत सरकार तो मानवीय आधारों को तरजीह देती है, ऐसी घोषणा बराबर की जाती है। श्री गुरुजी ने कहा था- 'तिब्बत चीन के कब्जे में हमारी कमजोरी से ही गया है, इसका प्रायश्चित्त भी हमें ही करना होगा।' प्रायश्चित्त करने का इससे उपयुक्त अवसर भला और क्या हो सकता है?
तिब्बत की आजादी के लिए
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