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विजय कुमार
देश की प्रगति और विकास के कई पैमाने हैं। कोई भारत की प्रगति को सेंसेक्स के आधार पर, तो कोई बढ़ती शिक्षा, शहरीकरण, वाहनों की संख्या और विद्युत के प्रयोग के आधार पर नापता है। कुछ का मत है कि इसके लिए मनोरंजन की सुविधा और मोबाइल, कम्प्यूटर आदि का विस्तार, बढ़ते उद्योग और 'क्रैडिट कार्ड' सही पैमाना है। कोई दिन दूनी और रात चौगुनी गति से बढ़ते अपराध, भ्रष्टाचार एवं उन्मुक्त यौनाचार को देश की प्रगति का आधार बताता है।
इनमें से अधिकांश को समझने के लिए अर्थशास्त्र की मोटी–मोटी जानकारी आवश्यक है। मैं ठहरा कम पढ़ा–लिखा आदमी। इसलिए मैंने एक और पैमाना बनाया है। इस कसौटी पर आप भी देश की प्रगति को जांच कर देखें। शायद आप मुझसे सहमत हो जाएं।
आपने यह अनुभव किया ही होगा कि 1947 के बाद देश में अंग्रेजी और अंग्रेजियत का प्रचार–प्रसार बहुत बढ़ा है। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने और उनकी दून मंडली का प्रभाव बढ़ने से इसकी गति और तेज हो गयी। बातचीत भले ही सामने वाले की समझ में न आये, पर बोलने वाला खुद को पढ़ा–लिखा सिद्ध करने के लिए थोड़ी–थोड़ी देर बाद उसमें अंग्रेजी का तड़का लगा ही देता है।
कई हिन्दी समाचार पत्रों को देखने पर कई बार पता ही नहीं लगता कि ये किधर से हिन्दी के पत्र हैं? हिन्दी अंक तो पहले ही गायब हो गये थे, पर अब तो शीर्षकों का भी अंग्रेजीकरण हो गया है। हर गली–मौहल्ले में ऐसे अधकचरे स्कूल खुल गये हैं, जो अंग्रेजी कम और अंग्रेजियत अधिक सिखाते हैं। शायद हमने मान लिया है कि बिना इसके हमारा उद्धार नहीं हो सकता।
पर यदि आप गौर से देखें, तो पाएंगे कि अंग्रेजी से भी अधिक गति से टाई लगाने वालों की संख्या बढ़ी है। कुछ लोग इसे 'गर्दन लंगोट' कहते हैं, क्योंकि स्कूल जाने लायक होते ही बच्चे की गर्दन इससे कस दी जाती है। भीषण गर्मी और चिपचिपाती वर्षा में भी जब बच्चे टाई लटकाये नजर आते हैं, तो मन हाहाकार कर उठता है।
वैसे इसके कुछ लाभ भी हैं। जहां बच्चे इससे हाथ और नाक पोंछ लेते हैं, वहां बड़े लोग झगड़ा होने पर दूसरे को आसानी से पकड़ कर खींच लेते हैं। 'आवश्यकता आविष्कार की जननी है', यह कहावत किसी ने सोच–समझ कर ही तो बनाई है।
टाई के बारे में आप चाहे जो कहें, पर मेरे विचार से देश की प्रगति का असली पैमाना यही है। यदि आप अपने आसपास देखें, तो आपको देश बहुत तेजी से प्रगति करता मिलेगा।
प्राय: सभी उद्योगों में मुख्यद्वार पर चौकीदार होते ही हैं। पहले वे धोती–कुर्ते वाले खांटी लोग होते थे, पर अब उनकी जगह पूरी बांहों की कमीज, पैंट, टोपी और टाई वाले शिक्षित युवकों ने ले ली है। वे सिर झुकाकर बड़े आदर से द्वार खोलते हैं। यह बात दूसरी है कि अब उन्हें 'गेटकीपर' या 'गेट सुपरवाइजर' कहा जाता है।
मेरे कार्यालय में कई कूरियर कंपनी वाले डाक लाते हैं, उनमें से अधिकांश अब टाई लगाने लगे हैं। बहुमंजिले भवनों में द्वार पर ही नाम और वाहन नंबर लिखने वाले सब लोग भी आपको टाई लगाये मिलेंगे। अब तो बहुमंजिले मॉल का प्रचलन बढ़ रहा है। वहां कपड़े से लेकर चाट बेचने वाले तक सब टाई वाले ही होते हैं।
जरा सोचिए, अभी तो 'मेरा भारत महान' विकासशील देश है, पर जब यह पूर्ण विकसित हो जाएगा, तब सड़क पर झाड़ू लगाते सफाई कर्मी, खेत में आधी धोती पहनकर हल चलाते किसान, फटी लंगोटी वाले भिखारी, सब टाई वाले ही होंगे। घरों में झाड़ू–पोंछा करने वाली महिलाएं और गलियों में फेरी लगाकर फल–सब्जी बेचने वाले इसे लगाकर आएंगे। टाई वाले चालक की रिक्शा में बैठकर लगेगा मानो पूरा ब्रिटेन आपकी गुलामी कर रहा है। दूध वाला अपने साथ–साथ भैंस के गले में भी इसे लटका देगा।
सचमुच मैं उस दिन की कल्पना से बहुत प्रफुल्लित हूं। पता नहीं, वह दिन मैं देख पाऊंगा या नहीं, पर टाई के आधार पर प्रगति का आकलन कोई भी कर सकता है। इसके लिए अर्थ या अनर्थशास्त्री होना आवश्यक नहीं है।
बस, उसी शुभ दिन की प्रतीक्षा में मैं जीवित हूं।
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