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समकालीन हिन्दी गीति-काव्य के महनीय हस्ताक्षर कविवर रामस्वरूप सिन्दूर का पिछले दिनों अवसान हो गया। उनके एक प्रसिद्ध गीत की पंक्तियां हैं –
मैं अरुण–अभियान के अन्तिम चरण में हूं,
शब्द के कल्पान्त–व्यापी
संचरण में हूं।
सूर्य की शिखरान्त यात्रा पर चला हूं मैं
एक रक्षा–चक्र में नख–शिख ढला हूं मैं
मैं त्रिलोचन स्वप्नवाही जागरण में हूं ………
मैं प्रणय से प्रणव के हस्तान्तरण में हूं।
अन्तत: सावित्री-चेतना को समर्पित अरुण-अभियान का अन्तिम चरण पूर्ण हुआ और साकार प्रणय निराकार प्रणव में समाहित हो गया, शेष रह गई है दिगन्तव्यापिनी गीत-गूंज। उनके गीतों की अर्थ-गरिमा को शब्दायित करते हुए श्री नीलम श्रीवास्तव ने अपने एक आलेख में कहा था – सिन्दूर के गीतों का मर्म समझने के लिये वैदिक शब्दावली को सामने रखना होगा। …उन्होंने अपने बिम्ब-पद रचे हैं, मगर उन्हें खोलने के लिये वैदिक पारिभाषिक शब्दों और कबीर-विवेकानन्द-अरविन्द के बिम्ब-प्रतीकों की सहायता आवश्यक हो जाती है। सिन्दूर एक गीत में लिखते हैं –
भोग से योग में गये मिलन का क्षण हूं मैं
मधु से माधव हो गये सृजन का क्षण हूं मैं
मैं क्षर से जन्मा अक्षर हूं
कल्पानतमुक्त कल्पान्तर हूं
मेरे पथ में इति का कोई व्यवधान नहीं–
मैं जीवन हूं निर्वाण नहीं। ………
सिन्दूर जी ने मंचों की लोकप्रियता के स्वर्णिम वितान देखे तो जिन्दगी में एकाकी बनते जाने के बियाबान को भी जिया, शून्य के प्रवास और प्राकृत संन्यास के ध्रुववान्तों को गीतों में गाया और तमाम प्रयासों की असफलता के बाद अनायास प्रसाद रूप में प्राप्त होने वाली मुक्ति की अनिर्वचनीयता का भी आस्वाद लिया –
हम हिरण्यवास जी चुके
निर्जन–निर्वास भी जिये,
तन का इतिहास भी नहीं
मन का इतिहास भी जिये ……..
मुक्ति का प्रयास जी चुके,
मुक्ति अनायास भी जिये।
अपने अभावों को प्रभावों में परिणत कर लेना और बदनामी को मशहूरी के कंचन-सोपान पर प्रतिष्ठित कर देना किसी असामान्य कवियित्री प्रतिभा के द्वारा ही साध्य था, अपने यौवन के उन्मेश में सिन्दूर जी डूबकर गाया करते थे –
मेरा यह सौभाग्य कि मुझको
हर अभाव धनवान मिला है,
पीड़ा को बाहर जैसा ही
घर में भी सम्मान मिला है।
नाम कमाने की सीमा तक
हो बैठी बदनाम कहानी,
मैं प्रसंगवश कह बैठा हूं
तुमसे अपनी रामकहानी
किन्तु अपनी वृद्धावस्था में भी सिन्दूर जी ने जीवन के चशक को भरपूर पीने और चक्रव्यूहों में पूरी निष्ठा के साथ युद्ध को जीने का सन्देश दिया। आज उनके इसी सन्देश को रेखांकित करते हुए मृत्यु के सीमान्त में सजे हुए उनके रागारुण चैतन्य के सिन्दूर-स्वरूप को प्रणाम करता हूं –
रो–रो मरने से क्या होगा
हंसकर और जियो।
वृद्ध क्षणों को बाहुपाश में
कस कर और जियो।
रक्त दौड़ता अभी रगों में
इसे न जमने दो,
बाहर जो भी हो पर भीतर
लहर न थमने दो।
चक्रव्यूह टूटता नहीं तो
धंसकर और जियो!
सामयिक प्रतिक्रियाएं
दैनन्दिन जीवन की महत्वपूर्ण घटनाएं कवि के संवेदनशील चित्त में सहज स्फूर्त्त काव्यात्मक प्रतिक्रियाओं के रूप में प्रतिबिम्बित होती हैं और इतिहास एक समानान्तर भाव-रेखा के रूप में भी आकारित होता जाता है। ऐसी ही कुछ प्रतिक्रियाएं यहां प्रस्तुत हैं। दिल्ली में जिस युवती की त्रासदी ने सारे देश को हिला दिया उसे किसी ने निर्भया कहा, किसी ने दामिनी, किन्तु उसकी दिगन्तव्यापी कराह को राष्ट्रीय जागरण की प्रभाती के रूप में परिवर्तित होते सभी ने महसूस किया, कविता गा उठी –
इन्सानी दरिन्दगी के जबड़ों का ग्रास बनी वो
जवां देह पे गहरे जख्मों का अहसास बनी वो,
बच्चे–बच्चे में विप्लव के अंकुर उगा गई है
सोई है दामिनी मगर भारत को जगा गई है।
प्रणाम की इस भावना के विपरीत कविता का स्वर एकदम प्रहारात्मक हो उठा जब केन्द्रीय सत्ता के एक शीर्षस्थ स्वर ने भारतीय संस्कृति के संवाहक गैरिक रंग के प्रति धृष्टतापूर्ण शब्दावली का प्रयोग किया –
तप का परम प्रतीक जिन्हें
आतंकवाद लगता है,
भगवा रंग साम्प्रदायिकता का
निनाद लगता है –
उनके व्यक्तित्वों में बेशक
कोई बड़ी कमी है,
दर्शन पक्षाघातग्रस्त
दर्पन पे धूल जमी है।
आहत–सी तारीख उन्हें
निर्वाक् निहार रही है,
संस्कृति के अन्तस् की
हर धड़कन धिक्कार रही है!
यही भावना कुछ और भी गहरी होती है जब आतंकवादियों के प्रति सम्मानसूचक शब्दों का प्रयोग किया जाता है और राष्ट्रवासियों का जिक्र अवमानना के ढंग से किया जाता है। उस समय यह स्पष्ट कर देना आवश्यक हो जाता है कि भारत की राष्ट्रवादी चेतना अशफाक उल्ला और रामप्रसाद बिस्मिल के युग्म का पद-वन्दन करना भी जानती है और बाबरी बर्बरता का मानभंजन करना भी –
इक मुट्ठी में हिमकर
दूजी में दिनकर है,
भारत शिवशंकर है
भारत प्रलयंकर है।
बीजमन्त्र अशफाक यहां है
राष्ट्रभाव का,
हमलावर बाबर का उत्तर
सावरकर है।।
बेशक, ये कविताएं सम-सामायिक घटनाओं से उद्भूत हैं, अखबार की खबरों पर टिप्पणियों जैसी हैं, किन्तु इनमें विक्षुब्ध राष्ट्र के मानस की झंकृतियां हैं। कविता अगर शाश्वत जीवन-मूल्यों का कीर्ति-गान है तो वह सामयिक समस्याओं का प्रस्तुति-विधान और अपनी दृष्टि से उनका निदान भी है। इस आत्मविस्मृत देश की दुर्दशा को दूर करने के लिये तथाकथित पंथनिरपेक्षता की धुन नहीं, प्रखर राष्ट्रवाद के प्रचंड को दण्ड की अखण्ड टंकार चाहिये।
अभिव्यक्ति मुद्राएं
यातना के विधान जैसा है
विष के घूंटों के पान जैसा है,
गीत लिखना हो या गजल कहना
अग्नि–सरिता में स्नान जैसा है।
–चन्द्रसेन विराट
जगने लगीं हृदय में चिर सुप्त भावनाएं
सब मिट गईं विषैली कल्मशभरी कथाएं,
वह दिव्य रूप मेरे अन्तस् में यूं समाया
चिन्तन में कौंधती हैं अब वेद की ऋचाएं।
– जितेन्द्र जौहर
देखना फरमान ये जल्दी निकाला जायेगा,
जुर्म होते जिसने देखा मार डाला जायेगा।
– हरेराम समीपबाग
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