अपने आदर्शों से दूर होते राजनीतिक दल-डा.सतीश चन्द्र मित्तल
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अपने आदर्शों से दूर होते राजनीतिक दल-डा.सतीश चन्द्र मित्तल

by
Feb 9, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Feb 2013 17:00:32

यदि भारत के कुछ राजनीतिक दलों के नेतृत्व की चर्चा करें तो यह कहना अनुचित न होगा कि वे न केवल राष्ट्र निर्माण के प्रति भ्रमित हैं बल्कि अपनी पार्टी के उद्देश्यों के प्रति भी असमंजस में हैं। उन दलों में न केवल चेहरे बदले हैं बल्कि उनका चरित्र भी बदल गया है। सत्ता की महत्वाकांक्षा ने उनकी आंखों पर स्वार्थ की पट्टी बांध दी है। जो लोकतंत्र के प्रसिद्ध सिद्धांत- 'सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय' की बात कहते थे अब 'स्वत: सुखाय, पार्टी हिताय' की बात करने लगे हैं। गांधी जी की कांग्रेस पहले इंदिरा कांग्रेस बनी तथा अब सोनिया कांग्रेस बन गई है। गांधी जी अपने को पक्का हिन्दू कहने में गौरव अनुभव करते थे तो नेहरू तथा उनका वंश हिन्दू कहलाने से ही कसमसाता है। अब तो इस वंश के चाटुकार फिसलती जुबान से कभी हिन्दू संगठनों को आतंकवादी अथवा लश्करे तोएबा से भी बड़ा खतरा कहते नहीं सकुचाते।

स्पष्ट है कि कि जहां कांग्रेस ने गांधी जी के सिद्धांतों को तिलांजलि दे दी वहीं वर्तमान समाजवादी पार्टी ने जयप्रकाश नारायण तथा राम मनोहर लोहिया के चिंतन को बौना बना दिया। 'सोशल वैरिएशन' पर शोध करने वाला समग्र क्रांतिवान संघर्षकर्त्ता तथा इंदिरा गांधी से जूझने वाला जयप्रकाश नारायण जैसा नेता यदि आज होता तो क्या सोचता? राम मनोहर लोहिया, जो समाज में और देश के आर्थिक अंतर को बर्दाश्त करने को तैयार न थे, क्या समाजवादी दल के वर्तमान दृष्टिकोण से संतुष्ट होते? सत्ता प्रेरित राजनीति नेताओं को कहां पहुंचा देती है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण दिखाई दिया खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेश निवेश के संदर्भ में समाजवादी दल के व्यवहार से। राम मनोहर लोहिया का 'हिमालय बचाओ अभियान' उनके राष्ट्रबोध का द्योतक है। वे हिन्दुत्व के स्वाभिमान से परिपूर्ण थे। वे राम, कृष्ण और शिव को भारत में पूर्णता के तीन महान स्वरूप के रूप में मानते थे। पर आज समाजवादियों को हिन्दुत्व में साम्प्रदायिकता की बू आने लगी। वे भी कांग्रेस की भांति मुस्लिम तुष्टिकरण से चुनावी वोट बैंक बनाने को आतुर हैं। लोहिया जी, जो 1939 से ही मार्क्सवाद के विरोधी थे तथा राजनीति को भारतीय संस्कृति से जोड़ने वाले थे, आज समाजवादियों को सत्ता के लिए उन मार्क्सवादियों को गले लगाने से कोई परहेज नहीं लगता।

इसी भांति बहुजन समाज पार्टी, जिसका निर्माण स्वतंत्रता के पश्चात हुआ, जिसने पिछड़े वर्गों के लिए महत्वपूर्ण कार्य भी किए, सत्तालोलुपता ने उसने भी दिशाहीन तथा दोहरी राजनीति का मार्ग अपना लिया है। खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश के संबंध में कोई भी उसके व्यवहार को तर्कसंगत नहीं मानेगा। बहुजन समाज पार्टी भी देश के महान विद्वान भारतरत्न डा.बी.आर.अम्बेडकर को अत्यधिक सम्मान देती है परंतु उनके मौलिक चिंतन से दूर होती जा रही है। डा.अम्बेडकर एक महान हिन्दुत्ववादी, राष्ट्रचिंतक, मुस्लिम तुष्टीकरण के विरोधी तथा कम्युनिस्टों के तो शत्रु समान थे। वे भारत के विभाजन से लेकर संविधान निर्माण तक सदैव मुस्लिम विरोधी रहे। उन्होंने तीन- चार बार संविधान सभा में 'सेकुलर' शब्द की चर्चा होने पर भी उसे संविधान में कोई स्थान नहीं दिया। उन्होंने इस्लाम को मतांध, अहिष्णुतावादी तथा गैरसेकुलरवादी बताया। वे भारत राष्ट्र की एकता का आधार हिन्दू संस्कृति को मानते थे। वे कम्युनिस्टों की पोंगापंथी प्रवृत्ति से क्षुब्ध थे। भारतीय कम्युनिस्ट भी उन पर देशद्रोही, ब्रिटिश एजेंट, साम्राज्यवादी जैसे झूठे आरोप लगाते रहते थे। डा.अम्बेडकर अपने राष्ट्रजीवन में सर्वदा नैतिकता को प्रमुख स्थान देते थे तथा मानव मात्र के भाईचारे को मानवीय नैतिकता का दूसरा रूप बतलाते थे। जहां तक भारतीय कम्युनिस्टों का प्रश्न है, उनके बारे में चर्चा करना उपयोगी न होगा क्योंकि वे पहले से संस्कृति तथा धर्मविरोधी, नकारात्मक राष्ट्रवाद के पोषक हैं। वे तो अन्तरराष्ट्रीयवादी हैं, राष्ट्रवादी नहीं।

कैसा हो नेतृत्व?

भारत विश्व का प्राचीनतम राष्ट्र है। भारत के ऋषियों-मुनियों ने राष्ट्र के नेतृत्वकर्ता के गुणों का विस्तृत वर्णन ऋग्वेद में बार-बार किया है। ऋग्वेद व अन्य वेदों में राजा, प्रशासक, सेनापति के साथ ग्राम सभाओं से लेकर राष्ट्र की सभा के कर्तव्यों तथा गुणों का बोध कराया गया है। स्वतंत्रता के कालखण्ड में भी देश के विद्वानों ने राष्ट्र के नेतृत्व के संबंध में आगामी पीढ़ियों को अनेक मार्गदर्शक तत्वों तथा विशिष्ट गुणों से परिचित कराया। काशी विश्वविद्यालय की स्थापना के पीछे का उद्देश्य देश को राष्ट्रीय नेतृत्व प्रदान करना ही था। विश्वविद्यालय के स्थापना दिवस पर इसके संस्थापक पं. मदन मोहन मालवीय ने कहा था, 'ज्योति और जीवन का यह केन्द्र, जो अस्तित्व में आ रहा है, उन विद्यार्थियों को तैयार करेगा जो ज्ञान में संसार के दूसरे भाग के विद्यार्थियों के समान ही नहीं होंगे वरन् अपना जीवन बिताने में ईश्वरभक्ति, देशप्रेम और निष्ठा में भी प्रशिक्षित होंगे।' स्वामी श्रद्धानंद ने गुरुकुल कांगड़ी (हरिद्वार) स्थापित करते हुए अपना उद्देश्य देश के नवयुवकों में देशभक्ति की भावना जगाना बताया था। स्वामी विवेकानंद ने चरित्र निर्माण एवं मनुष्य निर्माण को शिक्षा का उद्देश्य बताते हुए ऐसे पढ़े- लिखे, विश्वविद्यालयी उपाधि प्राप्त नवयुवकों को, जो गरीबों के पैसे से पले, उनकी चिंता न करने वाले को, देशद्रोही तक कहा था। महाकवि रवीन्द्र नाथ टैगोर ने जहां मानवीय दृष्टि की बात कही वहीं भारत के पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कई बार विश्वविद्यालयों की शिक्षा का उद्देश्य ऐसे नवयुवकों का निर्माण करना बताया जो राष्ट्र को भावी दिशा दे सकें। विचारणीय विषय यह है कि देश के अनेक विद्वानों-नेताओं के परिश्रम से स्थापित ये विश्वविद्यालय क्या राष्ट्र को वास्तविक नेतृत्व प्रदान कर रहे हैं? क्या ये ऐसी पीढ़ियों का निर्माण कर रहे हैं जो व्यक्तिगत जीवन में नैतिक, आदर्शों से परिपूर्ण, समाज समर्पित तथा राष्ट्रमना हों? आज का परिदृश्य तो यही दिख रहा है कि विश्वविद्यालयों के छात्र संघ चुनावों में गुटबंदी, धन तथा अन्य अवैध संसाधनों का उपयोग बढ़ता जा रहा है, नैतिकता गौण हो रही है, लक्ष्य दूर होता जा रहा है।

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