लोकपाल पर फिर रार
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लोकपाल पर फिर रार

by
Feb 2, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Feb 2013 14:16:35

एक बार फिर सरकार ने यह साबित कर दिया है कि वह सशक्त लोकपाल के पक्ष में नहीं है, क्योंकि जो सरकार घोटालों का रिकार्ड बना चुकी हो, जिसके मंत्रियों व सांसदों को भ्रष्टाचार के आरोपों में न केवल पद छोड़ना पड़ा हो बल्कि जेल की हवा भी खानी पड़ी हो, वह सरकार लोकपाल के जरिये अपने चेहरे का नकाब और क्यों उतरवाना चाहेगी? लोकपाल संबंधी जिस विधेयक को सरकार लोकसभा में पारित कराके अपनी पीठ थपथपा रही थी, वह राज्यसभा में पारित नहीं हो सका और राज्यसभा की प्रवर समिति को सौंप दिया गया। प्रवर समिति की सिफारिशों पर विचार करने के बाद सरकार ने जिस प्रारूप को मंजूरी दी है, वह न तो लोकपाल के लिए जबर्दस्त आंदोलन चलाने वाले अण्णा हजारे को पसंद आ रहा है, और प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी को भी उस पर आपत्ति है। देश में भ्रष्टाचार एक गंभीर ही नहीं, विकराल रूप धारण कर चुका है, तब उस पर कड़े कानूनी प्रावधानों द्वारा अंकुश लगाने को पूरा देश लालायित है, अण्णा आंदोलन में देश के इस उबाल को देखा जा चुका है, सरकार उसके प्रति कतई गंभीर नहीं दिखती। इसका सीधा अर्थ है कि यह सरकार न तो जनाकांक्षाओं का सम्मान करना चाहती है और न साफ–सुथरा व भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने में उसकी कोई रुचि है। परिणामत: सरकारी खजाने की खुली लूट करने की पूरी छूट इस सरकार ने अपने संरक्षण में दे रखी है।

राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला और कोयला खदान घोटाले में तो अब तक के भ्रष्टाचार के सारे रिकार्ड तोड़ दिए गए। इसके बावजूद प्रधानमंत्री व उनका कार्यालय न केवल मौन बने रहे, बल्कि घोटालेबाजों को बचाने की भी पूरी जुगत उन्होंने की। उनके सिपहसालार तो घोटालों को नगण्य बताने पर तुले रहे, उल्टे नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक पर ही कीचड़ उछालते रहे। यह बेहद शर्मनाक था। यहां तक कि भ्रष्टाचार निरोधक सर्वोच्च संस्था केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति में भी चयन समिति की सदस्य नेता-प्रतिपक्ष की आपत्तियों को खारिज करके एक दागी व्यक्ति को उस पद पर बैठा दिया, जिसे बाद में सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद मजबूरन हटाया गया। तो ऐसी सरकार से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं? प्रवर समिति की दो प्रमुख सिफारिशों, आरोपित सरकारी अधिकारियों पर सीधी कार्रवाई किए जाने व किसी मामले की जांच कर रहे सीबीआई अधिकारी के तबादलों से पूर्व लोकपाल की मंजूरी लिए जाने को तो माना ही नहीं गया, सीबीआई को भी यह कहकर लोकपाल के दायरे से बाहर रखा गया है कि इससे सीबीआई की स्वायत्तता प्रभावित होगी। जबकि सब जानते हैं कि केन्द्र सरकार के द्वारा सीबीआई का राजनीतिक इस्तेमाल किए जाने से वास्तव में उसकी कोई स्वायत्तता बची ही नहीं है। यह सरकार अपनी सुविधा व सत्ता-स्वार्थों के हिसाब से तय करती है कि किसके खिलाफ कब सीबीआई जांच शुरू करानी चाहिए और कब बंद करा देनी चाहिए। इस सरकार को बाहर से समर्थन दे रहीं समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी के नेता इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। इस तरह यदि बिना नख-दंत का लोकपाल सरकार ने खड़ा कर भी दिया तो उससे हासिल क्या होगा, सिवाय इसके कि सरकार जनता के सामने अपनी पीठ थपथपाए कि देखिए, हमने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक कारगर कदम उठाते हुए लोकपाल का गठन कर दिया? यह जनता के साथ धोखे के सिवाय और कुछ नहीं है।

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