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पाकिस्तानी सेना और उसके लोकतांत्रिक रहनुमाओं के भारत के प्रति आचरण सम्बंधी हो रहे खुलासों के बाद एक ही निष्कर्ष निकलता है कि पाकिस्तान अपना चरित्र न बदल पाने के लिए प्रतिबद्ध है और हमारा नेतृत्व अपनी छवि न बदलने के लिए विवश। पिछले दिनों उपराष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी की तरफ से एक दलील दी गयी, जो हमारे नेतृत्व और बुद्धिजीवियों के एक खास वर्ग की तरफ से अक्सर दी जाती है, कि पड़ोसी बदले नहीं जा सकते। सवाल यह उठता है कि क्या पड़ोसी से रिश्ते भी बदले नहीं जा सकते? क्या उसके प्रति व्यवहार भी बदला नहीं जा सकता? अगर ऐसा नहीं हो सकता तो फिर दुनिया को यह बताना छोड़ दिया जाए कि हम एक उभरती हुयी ताकत हैं और एक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर हैं? क्या कम से कम पाकिस्तान के सम्बंध एक बार हम इस्रायल जैसी विदेश नीति नहीं अपना सकते?
आजकल भारत के प्रति पाकिस्तान के कारनामों की एक-एक कर कुछ ऐसी खबरें आ रही हैं जो यह बताती हैं कि पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्टो या जिया वाली विकृत सोच अभी भी जिंदा है। वे अभी भी भारत से एक हजार वर्षों तक लड़ना चाहते हैं। ध्यान रहे कि भुट्टो ने अपने आखिरी वसीयतानामे 'इफ आई एम असेसिनेटिड' में लिखा था कि वे भारत के कट्टर विरोधी हैं और भारत के खिलाफ हजार वर्षों तक लड़ना चाहते हैं। वे शायद भारत से लड़ना ही नहीं चाहते थे बल्कि उनकी मंशा इससे भी आगे तक की थी इसीलिए वे किसी भी कीमत पर परमाणु बम हासिल करना चाहते थे। वे कहते थे कि 'हम भले घास खाएंगे लेकिन परमाणु बम बनाकर रहेंगे।' सवाल यह उठता है कि क्या हमारे नेतृत्व ने अपनी उदार छवि को दुनिया के सामने पेश करने के कारण इन विकृतियों को बिल्कुल नहीं देखा? अगर देखा तो फिर इसे अनदेखा कर मित्रता के लिए बांहें फैलाने की जरूरत क्यों महसूस हुई? पाकिस्तान में जुल्फिकार अली के बाद कुछ भी बदला नहीं बल्कि वह सोच और अधिक विकृत तथा ताकतवर होती गयी।
साजिश के रचनाकार
पाकिस्तान के एक अवकाश प्राप्त लेफ्टिनेंट जनरल शाहिद अजीज ने जो खुलासे किये हैं, क्या उनसे कुछ सीखा जाएगा और क्या हम उस यूटोपियाई केंचुल को त्याग पाएंगे जो आज हमारे शरीर को शिथिल बनाए हुए है। आईएसआई की विश्लेषण शाखा के प्रमुख रहे शाहिद अजीज लिखते हैं कि कारगिल पर कब्जा करने का पाकिस्तानी सैनिकों का अभियान पूरी तरह जनरल परवेज मुशर्रफ के इशारे पर चलाया गया था और इस दुस्साहस के पीछे चार लोग थे। उनका कहना है कि 1999 में जब यह अभियान शुरू किया गया था तब इसके बारे में सिर्फ मुशर्रफ, चीफ आफ जनरल स्टाफ लेफ्टिनेंट जनरल मोहम्मद अजीज, उत्तरी इलाके में सेना कमान के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल जावेद हसन और 10वीं कोर कमांड के लेफ्टिनेंट जनरल महमूद अहमद जानते थे। महत्वपूर्ण बात यह है कि अभी तक भारतीय नेतृत्व यह प्रचारित कर रहा था कि पाकिस्तान का राजनीतिक नेतृत्व इससे अनभिज्ञ था। जबकि ऐसा था नहीं। अजीज का दावा है कि उन्होंने जो जानकारी एकत्र की थी, उसके अनुसार इस अभियान को लेकर नवाज शरीफ पूरी तरह अंधेरे में नहीं थे। हालांकि उनका कहना है कि मैं व्यक्तिगत तौर पर अवगत नहीं हूं कि शरीफ के साथ क्या जानकारी साझा की गई थी। लेकिन एक अन्य जनरल ने उन्हेंे बताया था कि एक अनौपचारिक चर्चा के दौरान शरीफ ने पूछा था, 'आप मुझे कश्मीर कब दे रहे हैं?' इससे लगता है कि शरीफ पूरी तरह से अंधेरे में नहीं थे।
अजीज के इस खुलासे में दो बातें और महत्वपूर्ण हैं। एक यह कि पाकिस्तानी सेना ने करगिल अभियान की योजना नहीं बनाई, क्योंकि जनरल मुशर्रफ इसे बड़े अभियान के रूप में नहीं देखते थे। और दूसरा यह कि कारगिल और द्रास की चोटियों पर कब्जा करने को लेकर भारत को मूर्ख बनाने के लिए मुशर्रफ की चौकड़ी ने कोई कोरकसर नहीं छोड़ी थी। इसे अफगानिस्तान के आतंकवादियों की कार्रवाई दिखाने के लिए सेना की ओर से पश्तो में वायरलैस संदेश भेजे जाते थे। इस अभियान का असल मकसद द्रास और कारगिल सेक्टर पर कब्जा करके 'सप्लाई लाइन' काट कर सियाचिन पर कब्जा करना था। मूर्ख बनाने की जो बात मुशर्रफ सोच रहे थे, क्या यह उनकी मूर्खता थी या फिर वे यह जान रहे थे कि भारतीय नेतृत्व इस बीमारी का शिकार है? मुझे लगता है कि ये दोनों ही विकल्प सही हैं। एक बात यह समझ में नहीं आती कि हमारा नेतृत्व पाकिस्तान से सम्बंधों को आगे बढ़ाने के लिए तत्पर होते समय यह क्यों भूल जाता है कि पाकिस्तान नाम के इस राष्ट्र का अर्थ है कट्टर इस्लामवाद जो कभी भी भारत के पंथनिरपेक्ष स्वरूप के अनुकूल नहीं बन सकता? भुट्टो की वितृष्णा को जानते हुए जरा जिया-उल-हक को देखें जिनका कहना था कि पाकिस्तान इस्रायल की तरह है। इस्रायल से यदि यहूदीवाद निकाल दें तो वह ताश के महल की तरह बिखर जाएगा। इसी तरह से पाकिस्तान से इस्लाम को निकाल दें और उसे पंथनिरपेक्ष बना दें तो वह ढह जाएगा। यही कारण है कि जिया वर्दी वाले मुल्ला बने और पाकिस्तान में मदरसा क्रांति सम्पन्न कर कट्टरवाद की पौध लगा दी। यही नहीं जिया उस समय पैगम्बरी से प्रेरित भी दिखे जब 1978 में उन्होंने देश को सूचित किया कि उन्हें एक सपाना आया, जिसमें एक आवाज ने उन्हें सुझाव दिया कि चुनाव गैर-इस्लामी हैं। उन्होंने भुट्टो की समाप्ति के बाद किए गये चुनाव के वादे को स्थगित करने के लिए इस्लाम का सहारा लिया। दरअसल वे जानते थे कि पाकिस्तान में स्वप्न सिद्धांत खूब चलते हैं।
विरासत में नफरत
जिन नवाज शरीफ को बहुत 'शरीफ' बताया जा रहा था वे स्वयं कभी 'टेस्टट्यूब बेबी आफ जिया' कहे जाते थे। इसका सीधा सा मतलब तो यही हुआ कि नवाज शरीफ में वे गुण मौजूद थे, जो जिया के चरित्र का हिस्सा थे या फिर जिन्हें जिया ने पैदा किया था। परवेज मुशर्रफ का तो जिहादियों से ही गठबंधन था। रही बात बेनजीर की तो उन्होंने अपने पिता की 'घास खाकर बम बनाने' वाली विरासत को ढोने का प्रयास किया। वर्तमान राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर के विधायकों के बीच कश्मीर के लिए 'एक हजार साल तक जंग करने' का आह्वान करते दिखे जो बेनजीर और जुल्फिकार अली के पैंतरेबाज भाषण का हिस्सा हुआ करता था। यही नहीं इमरान खान सरीखे अदने से नेता भी भारत को जहन्नुम में पहुंचा देने की धमकी देने में भय नहीं खाते।
खतरनाक सोच
हम सामान्य तौर पर तो यह कह सकते हैं कि पाकिस्तान कभी अमरीका के बूते भारत पर गुरर्ाता और उसे काटता रहा और अब चीन के दम पर वह यही करना चाहता है। लेकिन एक बात और भी है, जिसने पाकिस्तान के कट्टरवादियों से लेकर बुद्धिजीवियों और राजनीतिज्ञों में एक अहं ठूंस-ठूंस कर भर दिया है, वह है- एटम बमों की ताकत। पिछले दिनों खाड़ी देशों के एक अखबार के एक पाकिस्तानी स्तम्भकार ने लिखा था कि खतरे की प्रकृति अब बदल चुकी है इसलिए सशस्त्र सेनाओं के लिए जरूरी है कि वे अब अपनी कार्यशैली के लिए अपनी सोच और हैसियत दोनों ही बदल लें। आगे उन्होंने स्वयं से एक प्रश्न किया कि 'हमारे पास कितने एटम बम हैं?' उत्तर दिया, पचास! (हालांकि वास्तविक संख्या इससे लगभग दो गुनी है)। निष्कर्ष निकाला कि 'ये भारत की किसी भी कार्रवाई से सुरक्षित रखने के लिए पर्याप्त हैं। यह मुल्क के लिए चिंता से मुक्त होने का समय है इसलिए हमें इस सोच वाले पाकिस्तानी नजरिए से मोहब्बत करनी चाहिए कि भारत हमारा सनातन शत्रु है।' ऐसी विकृत पाकिस्तानी सोच से क्या भारत दोस्ती के सहारे लड़ेगा?
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