|
मृदुला सिन्हा
गांवों में पूजा पाठ हो या उपनयन संस्कार, या फिर शादी-ब्याह का अवसर, घर के सदस्य ही नहीं, पूरा गांव सक्रिय हो जाता रहा है। गांव में जितनी भी जातियां होती हैं वे आपस में एक दूसरे की पूरक होती आई हैं। एक घर के आयोजन में सभी लोगों की भूमिका रहती आई है। सबकी छोटी या बड़ी भूमिका निर्धारित रहती है। छोटी से छोटी भूमिका के लिए उस जाति के किसी सदस्य का उपस्थित होना आवश्यक माना जाता रहा है। उस जाति का सदस्य उपस्थित नहीं हो तो रस्म ही पूरी न हो। कभी-कभी तो अपने गांव में उस जाति का परिवार न हो, तो दूसरे गांव से बुलवाया जाता था।
सब जातियों की रस्म अल्पकालिक होती थी, पर पंडित जी और नाई की भूमिका यज्ञ प्रारंभ होने से लेकर अंतिम समय तक । सभी संस्कारों और पूजा-यज्ञ में भी दोनों साथ-साथ रहते हैं। पंडित का अंतरंग सहयोगी होता है नाई। बेटी के विवाह के लिए वर ढूंढ़ने जाने के लिए भी बेटी का पिता या परिवार के अन्य सदस्य नहीं जाते थे। सर्वप्रथम नाई ही गांव-गांव में ढूंढ़ता था। लड़की का रूप-रंग, क्षमता और घर का संस्कार मिलाकर वर और घर ढूंढ़ता था। उसे पसन्द आ जाए तो बेटी वाले को सूचना देता था। बेटी के परिवार को पसन्द आए तो पंडित को भेजा जाता था। पंडित कभी अकेले नहीं चलते। नाई तो उनका स्थायी सहयोगी होता है। पंडित जी और नाई दोनों घर-वर देखने जाते हैं, पर नाई घर के आगे-पीछे, इतिहास, भूगोल और सही आर्थिक स्थिति का पता लगा लेता था। वह 'वर' ब्याहने वाले लड़के को भी उठा-बैठा और बुलवा कर देखता था। कहीं कोई कमी या खोट न रहे। नाई अपने मालिक का भी विश्वास पात्र होता था।
गांव के लोग (बेटी के परिजन) नाई की बात पर पूरा विश्वास करते थे। वह उनके परिवार का हितैषी ही समझा जाता था। किसी गांव की आबादी के अनुसार अन्य जातियों के परिवारों की संख्या कम भी हो तो चलता था, पर नाई की संख्या उपयुक्त होनी चाहिए थी। क्योंकि नाई को पूरे गांवों के सुख-दु:ख में खड़ा रहकर प्रमुख भूमिका निभानी पड़ती थी।
मुझे अपने गांव का वह प्रसंग याद है। मेरे गांव में नाई का एक ही परिवार था। उस परिवार में भी एक ही बेटा। गांव बड़ा था। कभी-कभी एक ही दिन दो-चार बारात गांव में आ जातीं। नाई का बेटा परेशान-परेशान हो जाए। यज्ञ वाले परिवारों से उसकी खींचतान होती। वह अक्सर बोलते सुना जाता-'टांग चीर लें क्या? मेरा एक ही शरीर है। चार टुकड़ा करके ले जाइए। आप लोग अपना काम चला लीजिए। मैं अकेला क्या-क्या करूं? कहां-कहां दौडूं।' मेरी दादी को उस पर दया आती थी। उन्होंने अपने मायके से अपने बड़े भाई को बुलवाया। उनके गांव में नाई के कई परिवार थे। दादी ने कहा- 'आप एक पति-पत्नी हमारे गांव के लिए दे दीजिए।' उनके भाई मान गए। गांव वालों ने मिलकर उस नाई दम्पत्ति के लिए एक कमरे की झोपड़ी बनवाई। गांव में उनके प्रवेश करने पर घर-घर खुशियां मनाईं गईं। देखते-देखते उस दम्पत्ति के छ: बेटे हुए। मेरी दादी उसके एक-एक बेटे के जन्म पर बहुत खुश होती। कहतीं- 'अब गांव में एक साथ पांच-छ: बारात भी आ जाएं तो काम सुचारु रूप से चलेगा। नाई की टांग नहीं खिंचाएगी।'
बहुत खुश होते गांव वाले। नाई उनकी जरूरत था। पंडित जी और नाई मिलकर ही वर ढंूढ़ने जाते थे। तिलक का बर्तन और रुपए वही ले जाते थे। इसलिए जब दुल्हा मंडप में आता था, उसकी सुन्दरता में कमी हो या उम्र ज्यादा हो तो महिलाएं ब्राह्मण और नाई को ही कोसती थीं।
बारात के साथ भी नाई आता था। वर और कन्या पक्ष के नाइयों के बीच खूब नोक-झोंक और नेग के सामान और पैसे के बंटवारे के लिए लड़ाई-झगड़ा भी होता था। दोनों अपने योगदान को अधिक जानकर मनवाने की कोशिश भी करते थे। उनकी नोक-झोंक से दूसरे लोगों का मनोरंजन होता था।
पंडित जी और नाई की जोड़ी भी अनोखी होती थी। हर रस्म के लिए पंडित जी, नाई पर निर्भर करते थे। नाई ही सारी सामग्री इकट्ठी करके देता था। रस्म प्रारंभ होने से पूर्व सामग्री तैयार रखता था। कभी-कभी तो पंडित के नये होने पर नाई सब कुछ सिखलाता था। पंडित के साथ रहते-रहते अनपढ़ नाई को भी मंत्र याद हो जाते थे। दोनों एक दूसरे के पूरक थे।
जब तिलक के बर्तन, रुपए और कपड़े लेकर पंडित जी व नाई वर के घर जाते थे, नाई सारा सामान आंगन में सजा देता था, पंडित जी लड़के के सिर पर अक्षत डालते थे। महिलाएं उनके साथ छेड़छाड़ करती थीं-
'अकलेल बभना बकलेल बभना
कलशा ले अयले पुरान बभना
टांग ध पटक देवो मांझ अंगना।'
लेकिन अपने वर के लिए शुभ की कामना करते हुए वही महिलाएं सर्वप्रथम ब्राह्मण और नाई का ही नाम लेती हैं-
'शुभे बोलू ब्राह्मण, शुभे बोलू नाई शुभे हो शुभे
शुभे नगरी के लोगवा शुभे हो शुभे।
शुभ–शुभ के लगनमा शुभे हो शुभे।'
ग्रामीण संस्कृति में नाई और ब्राह्मण के ऊपर ही यज्ञ की सफलता का दारोमदार था। अब बहुत कुछ बदल गया। सब ठेकेदारी और अब 'इवेंट मैनेजर' पर निर्भर करता है। गांवों में आज भी पुरानी स्थिति है पुरानी स्थितियों के क्षरण होने के कारण आयोजन तो बड़े-बड़े होते हैं, पर अपनापन नहीं दिखता। काज-परोजन मात्र घर वालों का होकर रह जाता है। भोज-भात, नाच-गाना, भड़कीले पहनावे पर विशेष जोर होता है। विवाह, उपनयन संस्कार और श्राद्ध की रस्म-रिवाज पर सबसे कम समय लगाया जाता है। अजीब विडम्बना है कि आधुनिक आंडबरों के नीचे रस्म रिवाजों को आडंवर कहकर दबा दिया जाता है। रस्म रिवाज ही नहीं तो पंडित और नाई को कौन पूछे? भारत की वर्ण व्यवस्था हमारी सामाजिक समरसता का बेजोड़ नमूना है जिसमें कहीं कोई ऊंच-नीच या जातिगत भेदभाव नहीं, उसमें कर्म की ही प्रधानता थी।
टिप्पणियाँ