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एक देशभक्त और क्रांतिकारी संन्यासी-प्रो. सीताराम व्यास

by
Jan 28, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 28 Jan 2013 12:24:42

150 वर्ष पूर्व अवतरित हुए स्वामी विवेकानन्द की सार्द्ध शती देशभर में बड़े उत्साह के साथ मनाई जा रही है। इस महान युगपुरुष के स्मरण और विचारों के प्रचार एवं उस पर व्यवहार से राष्ट्र-जीवन में नवीन उत्साह का संचरण होगा। समूचा विश्व स्वामीजी को एक वेदान्ती के रूप में जानता है, पर वस्तुत: वे एक प्रखर देशभक्त, समाज-सुधारक और कुशल संगठनकर्ता थे। उन्होंने भारत के अतीत, वर्तमान और भविष्य का गहराई से चिन्तन किया। अभी तक के विचारकों ने स्वामीजी के आध्यात्मिक पक्ष का ही प्रतिपादन किया है, परन्तु उनके देश-भक्ति और स्वतन्त्रता- आन्दोलन के विचारों पर कम ही लेखन हुआ है।

क्रांतिकारियों के प्रेरणा पुरुष

स्वामी विवेकानंद बंगाल के अनेक क्रान्तिकारियों के प्रेरणास्रोत थे। हेमचन्द्र घोष बंगाल के ऐसे ही प्रसिद्ध क्रान्तिकारी थे। स्वामी पूर्णात्मानन्द जी ने उनका साक्षात्कार लिया था। हेमचन्द्र घोष बाल्यकाल में ही 'युगान्तर' संस्था के सम्पर्क में आ गये थे। उनका कहना था कि भारत के स्वतन्त्रता-आन्दोलन के सन्दर्भ में स्वामी विवेकानन्द के विचार आंखें खोल देने वाले थे। वे क्रान्तिकारी स्वामीजी के शाश्वत विचारों से प्रेरणा लेकर स्वतन्त्रता-संग्राम में ध्येय निष्ठा के साथ कूद पड़े थे। यह तथ्य इतिहास में अज्ञात है। हेमचन्द्र कहते हैं, 'स्वामीजी से मेरा प्रथम मिलन सन् 1901 में ढाका में हुआ। मैं उनकी प्रथम झलक देखकर आत्म-विभोर हो उठा। स्वामीजी को भीड़ ने घेर रखा था। ऐसा लगता था कि  ढाका की सारी जनता रेलवे स्टेशन पर उमड़ पड़ी हो। मुझे एक घटना विशेष रूप से प्रभावित करती रही कि भीड़ ने एक बार श्री रामकृष्ण परमहंस की जय बोली, फिर निरन्तर स्वामी विवेकानन्द की जय-जयकार निरन्तर करती रही। स्वामीजी ने तुरन्त ऊंची आवाज से कहा, 'मैं श्री रामकृष्ण देव का विनम्र सेवक हूं। आप जय-जयकार लगाना चाहते हैं तो उनके नाम का उद्घोष करो।' मेरे मन में विचार आया कि विश्व-विजेता स्वामीजी नाम और प्रसिद्धि से कितने दूर हैं, उनमें अहंकार लेश-मात्र भी नहीं है। मातृभूमि के सेवक को ऐसा ही होना चाहिये। वहीं मैंने देश का कार्य करने के लिए उनसे पहला सूत्र सीखा।' घोष आगे कहते हैं कि 'मैं तथा मेरे साथी स्वामीजी से समय-समय पर मिलते रहते थे तथा उनकी ओजस्वी वाणी से प्रेरणा लेते रहते थे। स्वामीजी ने अपने जीवन के अंतिम दो वर्ष स्वतन्त्रता-संग्राम में भाग लेने वाले युवकों में उत्साह और ध्येयवाद जगाने में ही लगाये। उनके व्याख्यानों तथा भाषणों ने बंगाल के नौजवानों को प्रेरित किया,  क्रान्तिकारियों के कमरों में साधारणतया उनके कोलम्बो से अल्मोड़ा तक के व्याख्यानों की प्रतियां पायी जाती थीं। उन्होंने लम्बे समय तक क्रान्तिकारियों को आध्यात्मिक भावना से अभिभूत किया। स्वामीजी को ब्रिटिश सरकार भी सन्देह की दृष्टि से देखने लगी थी।  स्वामीजी ने भांप लिया था कि भारत को विश्व-गुरु का दायित्व निभाने से पहले खोयी हुई राजनीतिक प्रभुसत्ता को पुन: प्राप्त करना आवश्यक है। ढाका प्रवास में उन्होंने देशवासियों को वेदान्त का उपदेश न देकर राष्ट्रवाद का सन्देश दिया। वे बोले, 'ओ भारतवासी! अपने को पहचानो, तुम अमृत-पुत्र हो। तुम्हें महान बनने से दुनिया की कोई शक्ति  नहीं रोक सकती। तुम अपने देश को ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्त कराओ। तब ही तुम दुनिया के आध्यात्मिक गुरु  बन सकोगे।' उनका कहना था कि तुम बंगाली, मद्रासी, पंजाबी, गुजराती से पहले भारतीय हो, तुम्हारी एक राष्ट्रीयता है। हम भारत माता के पुत्र, सहोदर भाई हैं। हमारे हाड़-मांस  में एक ही रक्त प्रवाहित है।

आध्यात्मिक नेतृत्व

स्वामीजी ने प्रसिद्ध क्रान्तिकारी ब्रह्मबान्धव उपाध्याय को भी स्वतन्त्रता-आन्दोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया था। सन् 1906 में ब्रह्मबान्धव उपाध्याय ने कहा था कि उन्होंने मुझे ध्येय का साक्षात्कार कराया। यद्यपि वे मेरे कालेज के सहपाठी थे, पर मैं उनको गुरु मानता था। मैं उनमें राष्ट्रवाद  की स्फुरित चिंगारी को देखता था। आज जो भी मैं हूं, वह स्वामीजी की देन है। ब्रह्मबान्धव उपाध्याय ने लिखा 'क्या यह कभी सम्भव है कि अटूट देशभक्ति का भाव साकार रूप धारण कर ले? यदि ऐसा है, तभी विवेकानन्द को समझा जा सकता है।' पं.जवाहर लाल नेहरू ने 'डिस्कवरी आफ इण्डिया' में लिखा कि आधुनिक राष्ट्रीय आन्दोलन तथा उसमें सक्रिय अधिकांश लोगों ने स्वामी विवेकानन्द से प्रेरणा प्राप्त की। सुभाष बाबू ने भी देशभक्ति का ज्ञान स्वामीजी से प्राप्त किया। वे लिखते हैं कि 'जब विवेकानन्द के भाषणों को पढ़ा तब मैंने भारत से प्रेम करना प्रारम्भ किया और भगिनी निवेदिता की पुस्तकों को पढ़कर विवेकानन्द को पहचाना।'

हमारे वीर-पुरुषों  ने देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए जो संघर्ष किया, उसके पीछे एक न एक आध्यात्मिक शक्ति की प्रेरणा रही है । जैसे, छत्रपति शिवाजी महाराज के पीछे समर्थ गुरु   रामदास, विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक हरिहर राय-बुक्का राय के पीछे स्वामी विद्यारण्य थे, उसी प्रकार स्वामीजी स्वतंत्रता आंदोलन के अनेक क्रान्तिकारियों के प्रेरणास्रोत थे। स्वामीजी की देशभक्ति का आधार भारतमाता थीं। उसके प्रति उनकी अविचल निष्ठा तथा अहैतुकी प्रेम था।

देश की दुर्दशा पर चिंतित

स्वामीजी देश की स्थिति से चिंतित रहते थे। उन्होंने देश की पराधीनता और अवनति का कारण संगठन-शक्ति का अभाव बताया, 'चार करोड़ अंग्रेज अपनी संगठित इच्छाशक्ति से तीस करोड़ लोगों पर शासन करते हैं। उनमें अनन्त शक्ति का भण्डार है, हम अपनी इच्छाशक्ति को एक दूसरे से पृथक्‌ किये रहते हैं। यही रहस्य है कि वे संख्या में कम होकर भी हम पर शासन करते हैं। अत: संघ में शक्ति है। भारत को महान बनना है तो इसके लिए आवश्यकता है बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र करना।' उन्होंने एक स्थान पर अथर्ववेद के मंत्र को उद्धृत करके कहा- 'तुम सब लोग एक मन हो जाओ, सब लोग एक ही विचार के बन जाओ…..यह समाज-संगठन का रहस्य है।' उन्होंने एक स्थान पर कहा, 'ब्राह्मण- अब्राह्मण जैसे तुच्छ विषयों को लेकर तू-तू, मैं-मैं करोगे, झगड़े, पारस्परिक विरोधाभाव को बढ़ाओगे,  तो समझ लो कि तुम उस शक्ति-संग्रह से दूर हटते जाओगे, जिसके द्वारा भारत का भविष्य बनने  जा रहा है।' जब स्वामीजी लाहौर प्रवास पर गये, वहां उनको जानकारी मिली कि आर्य समाज और सनातन मतावलम्बियों में झगड़ा है, तो वे बहुत दु:खी हुए। उन्होंने कहा कि आप विध्वंस नहीं, रचनात्मक कार्य करो। देश में अनेक पंथ हैं, जो आगे भी होंगे, पर साम्प्रदायिकता न रहे। हमारे प्राचीन शास्त्र भी घोषणा करते हैं कि सब भेद-भाव ऊपर का है। इन सब भेद-भावों को दूर करने वाले मनोहर सूत्र सहिष्णुता, शुचिता, ऋजुता हैं। हमारे राष्ट्र का प्राण धर्म है। भारत की बिखरी आध्यात्मिक शक्तियों को ढूंढकर निकालना है, उनको संगठित करके देश को एकता के सूत्र में पिरोना है। उनका सन्देश था- 'यदि तुम अपने देश का कल्याण चाहते हो, तो तुम में से प्रत्येक को गुरु गोविन्द सिंह  बनना होगा। भले ही तुम्हें अपने देशवासियों में सहस्र दोष दिखायी दें, पर ध्यान रखना कि उनमें हिन्दू रक्त है। वे तुम्हें हानि पहुंचाने के लिए सब कुछ करते हों, तब भी वे प्रथम देवता हैं, जिनका तुम्हें पूजन करना है …..आओ, हम अपने समस्त विवादों को समाप्त कर स्नेह की भाव-धारा को सर्वत्र प्रवाहित करें।'

युवाओं से आह्वान

स्वामी विवेकानन्द भारत की युवा शक्ति पर अटूट विश्वास और आस्था रखते थे। उनके मानस -पटल पर भारत का स्वर्णिम अतीत तो अंकित था ही, साथ ही वे अपने युग की पराधीनता की पीड़ा तथा उसके परिणामस्वरूप घटित  आर्थिक दुर्दशा, सामाजिक विघटन और सांस्कृतिक अध:पतन से भी चिन्तित थे। किन्तु वेदान्त दर्शन के सकारात्मक, आस्तिक और आशावादी चिन्तन ने उनके मन में भारत के उज्जवल भविष्य के बहुरंगी सपने संजो रखे थे। इसीलिए युवा पीढ़ी पर उन्हें बहुत भरोसा था। उन्हें  विश्वास था कि उनकी अनुगामी युवा पीढ़ी राष्ट्रीय और सांस्कृतिक जागरण के उनके सन्देशों से प्रेरित और प्रोत्साहित होकर राष्ट्र-मुक्ति और सामाजिक-सांस्कृतिक नव जागरण के पुनीत अभियान को निरन्तर आगे बढ़ायेगी और भारत माता के प्रति अपने धर्म का पूरा पालन करेगी। उन्होंने कहा, 'भारत की युवा-शक्ति देशहित को सर्वोपरि मानकर त्याग और सेवा के प्रति अपने को समर्पित कर दे, लक्षावधि युवक अपनी सुख-सुविधाओं को त्याग कर, करोड़ों दीन-दु:खी-पीड़ित भाइयों के उत्थान-कार्यो में जुट जायें, तभी भावी भारत का निर्माण होगा, आज नवयुवकों के कंधों पर देश का भार है।' स्वामी विवेकानन्द का आह्वान था, 'एक लाख नर-नारी पवित्रता की अग्नि में तपे हुए, भगवान में अटूट विश्वास से सम्पन्न और दीन-दलितों और पतितों के प्रति सहानुभूति, सिंहवत् साहस से युक्त सम्पूर्ण देश के एक कोने से दूसरे कोने तक मुक्ति का सन्देश, सेवा का सन्देश, सामाजिक उत्थान का सन्देश, समता का सन्देश फैलाएंगे।'

यक्ष प्रश्र है कि ऐसा सन्देश फैलाने वाले तरुण आज कहां हैं? इसका उत्तर ढूंढ़ना शेष है। आज भारत की युवा-शक्ति में परिश्रम, उत्साह तथा त्याग का भाव है, आवश्यकता है हम उनके लिए उचित वातावरण का निर्माण करें। हमने देखा कि दिल्ली में घटित हुए सामूहिक बलात्कार काण्ड ने देश की अस्मिता को झकझोर दिया। इस घृणित कार्य के विरोध में देश की तरुणाई स्वत:स्फूर्त होकर उठ खड़ी हुई। उनके अहिंसक एवं सात्चिक आक्रोश ने सत्ताधारियों की नींद उड़ा दी। सारा देश एक साथ विरोध में उठ खड़ा हुआ। ऐसा लगता है कि यह भारत के नवनिर्माण की बेला के पहले की सुगबुगाहट है। भारत के संक्रमण-काल का अंत होगा, सुबह का नया सूर्य उदित होगा। अत: देश में नया उन्मेष आने वाला है। हम स्वामीजी के सन्देशों  को लेकर घर-घर जाएं, उनके विचारों को साकार रूप दें। उनकी मर्मस्पर्शी उक्तियां आज भी भारत की राष्ट्रीय भावनाओं को गहराई तक आन्दोलित कर रही हैं। अत: नये युग के सूत्रपात के साथ उस देशभक्त संन्यासी का स्वप्न साकार होगा। (लेखक अवकाश प्राप्त प्राध्यापक हैं)

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