प्रेम और सेवा-भाव से ही सम्पन्न और सुदृढ़ बनेगा भारत-डा. मुरली मनोहर जोशी

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दिंनाक: 21 Jan 2013 13:19:00

भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष डा.मुरली मनोहर जोशी सिर्फ एक राजनेता ही नहीं बल्कि भारतीय अध्यात्म, संस्कृति, विचार और दर्शन के गहन अध्येता भी हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.एससी. करने के पश्चात 'स्पेक्ट्रोस्कोपी' विषय पर अपना शोध पत्र हिन्दी में प्रस्तुत करने वाले वे देश के पहले 'डाक्टरेट' हैं। डा.जोशी ने 1991 में कन्याकुमारी स्थित स्वामी विवेकानंद के शिला स्मारक से यात्रा प्रारंभ कर कश्मीर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने का साहस दिखाया और देश की एकात्मता का संदेश दिया। राजग सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री रहते उन्होंने भारतीय संस्कृति और संस्कारों के अनुकूल आधुनिक शिक्षा व्यवस्था के लिए अनेक प्रयत्न प्रयोग किए। शिक्षा प्राप्त करने हेतु बच्चे स्कूल आएं और स्वस्थ रहें, इस हेतु मध्यान्ह भोजन, अन्नपूर्णा योजना उन्हीं की परिकल्पना थी। भारत की नई पीढ़ी स्वस्थ हो, सुशिक्षित हो, सुदृढ़ होयह दृष्टि उन्हें स्वामी विवेकानंद के विचार दर्शन से ही प्राप्त हुई। विवेकानंद सार्द्ध शती के अवसर पर पाञ्चजन्य प्रतिनिधि जितेन्द्र तिवारी ने उनसे जो विस्तृत वार्ता की, उस पर आधारित आलेख यहां प्रस्तुत है

डा. मुरली मनोहर जोशी

स्वामी विवेकानंद का दर्शन जितना उनके जीवनकाल में सार्थक था, आज उससे कहीं अधिक सार्थक है। स्वामी विवेकानंद भारत में पैदा हुए, उनकी पृष्ठभूमि भारत की थी, उनका दर्शन वेदांत था, एक संत के सान्निध्य से निकलकर वे उसी परम्परा पर चल रहे थे, पर वास्तव में वे इस पूरी सृष्टि के मानव मात्र को सम्बोधित कर रहे थे। अपने सम्बोधन में जब भी वे अपनी जाति, अपने धर्म, अपने देश की बात करते हैं, तब भी उनका चिंतन सीमित नहीं होता, उसका व्यापक अर्थ होता है। जैसे, उस समय स्वामी विवेकानंद ने एक बात कही थी कि सृष्टि में कहीं भी एक परमाणु हिलता है तो उसके साथ पूरा ब्रह्मांड हिलता है। 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में उन्होंने जब यह बात कही तब किसी भी वैज्ञानिक के सामने यह कल्पना नहीं थी। उस काल के वैज्ञानिक-विद्वान कहा करते थे कि ऐसा कैसे हो सकता है। लेकिन आज विज्ञान इस बात को कहने लगा है कि सृष्टि के सारे कण एक-दूसरे के साथ पूरी तरह संपृक्त हैं, और इस प्रकार से संपृक्त हैं, संबद्ध हैं कि हमें एक गहरे स्तर पर जाकर मानना पड़ेगा कि उनमें अन्तर्भूत एकता है। स्वामी विवेकानंद ने एक सदी पूर्व जो बात कही, और जिसका आज प्रतिपादन हो रहा है, उससे समझना चाहिए कि उनकी वेदांत की दृष्टि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी परिपूर्ण थी।

स्वामी विवेकानंद जी ने जो कुछ भी कहा वह सम्पूर्ण मानव जाति के लिए कहा। उस मानव जाति के उद्वार- उत्थान के लिए, वैश्विक स्तर पर एक अच्छा संसार बनाने के लिए वे सर्वत्र भारत की भूमिका को व्याख्यायित करते रहे। भारत समृद्ध होना चाहिए, भारत बलवान होना चाहिए, भारत अनुशासित होना चाहिए- भारत संगठित होना चाहिए इसलिए उन्होंने कहा 'गर्व से कहो हम हिन्दू हैं।' यह उन्होंने इसलिए नहीं कहा कि वे मुसलमानों के खिलाफ थे या ईसाइयों के खिलाफ थे। बल्कि इसलिए कहा कि जो अपने को हिन्दू कहते हैं, उन्होंने विश्व को ऐसा दर्शन दिया जो व्यापक है, वैश्विक है, जो संकीर्ण नहीं है, जो सम्पूर्ण ब्रह्मांड को आच्छादित करता है। उस दर्शन को देने वाला जो समाज है, जिसे हिन्दू कहा जाता है, उसे इस पर गर्व होना चाहिए। पर आज जब कोई कहता है कि 'गर्व से कहो हम हिन्दू हैं' तो उसे साम्प्रदायिक, संकीर्ण, किसी के विरोध के रूप में प्रचारित किया जाता है।

झोपड़ी से भारत का उदय

स्वामी विवेकानन्द की यह अवधारणा थी कि यदि भारत दुर्बल रहेगा, निर्बल रहेगा तो वह विश्व का मार्गदर्शन नहीं कर सकता। यह उनकी आस्था थी कि भारत के पास जो कुछ भी है वह उसे विश्व को देना है। इसके साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि समृद्ध और सशक्त भारत कहां से उदय होगा- ऐसा भारत अमराइयों से उदय होगा। ʅअमराइयोंʆ का अर्थ है छोटी झोपड़ियां। उन्होंने कहा कि जब तक उन छोटी झोपड़ियों का आदमी आगे नहीं आएगा, सम्पन्न, समृद्ध, बलशाली और विद्वान-ज्ञानवान नहीं होगा-भारत कैसे आगे बढ़ेगा। इसलिए वे कहते थे कि भारत को झोपड़ियों से उदय होने दो। ऐसा कहते समय वास्तव में वे भारतीय दर्शन को ही प्रस्तुत कर रहे थे, जिसमें कहा गया है कि यह समूचा जगत एक ब्रह्म है और हम सब उस एक ब्रह्म के अंश हैं, तो कोई अगर गरीब है, भूखा-नंगा पड़ा है, दुर्बल है, तो हम सबल कैसे हो सकते हैं। उस समय सामाजिक संरचना को सुदृढ़ करने के लिए उन्होंने यह दृष्टिकोण दिया। आज हम देखते हैं कि दीनदयाल जी ने अपने आर्थिक चिंतन में अन्त्योदय की ही दिशा दिखाई। यह उसी विचार का परिचायक है जो स्वामी विवेकानंद ने व्यक्त किया था। स्पष्ट है कि राजनीतिक क्षेत्र में काम न करते हुए भी उन्होंने एक दिशा दी कि यदि आपके पास कभी इस देश का शासन आता है, यदि आप इसके सूत्रधार बनते हैं, संचालनकर्त्ता बनते हैं तो आपकी नजर सबसे पहले झोपड़ी की ओर जानी चाहिए, समाज के सबसे कमजोर वर्ग की ओर जानी चाहिए।

सबल और सुदृढ़ बनो

स्वामी विवेकानंद हमेशा कहा करते थे कि शरीर को सुदृढ़ करो। इसका स्पष्ट अर्थ है स्वास्थ्य और अच्छा भोजन। आज जितनी बड़ी संख्या में हमारे देश में कुपोषित बच्चे हैं वह स्वामी विवेकानंद को कभी स्वीकार नहीं था। इसीलिए वे बार-बार कहते थे पहले स्वास्थ्य बनाओ। गीता पढ़ने से अच्छा है, फुटबाल खेलो। क्यों, क्योंकि आप कमजोर होंगे, स्वस्थ नहीं होंगे, तो गीता में दिए गए आदर्श का पालन कैसे कर सकेंगे। गीता में दिए गए कर्म के सिद्धांत 'योग: कर्मषु कौशलम्' का पालन कैसे करेंगे जब कर्म करने की शक्ति और बुद्धि ही नहीं होगी। एक स्वस्थ शरीर और समृद्ध समाज के बिना भारत आगे नहीं बढ़ पाएगा, स्वामी विवेकानंद का यह स्पष्ट दर्शन है। और भारत को किसलिए आगे जाना है, इसलिए आगे जाना है कि भारत के पास ऐसी विचारधारा, ऐसा दर्शन है जो विश्व भर में एकत्व की कल्पना करता है। जब वे विदेश यात्रा के बाद वापस भारत लौटे तो उतरते ही जमीन पर लोटपोट हो गए। क्यों, वह उनका राष्ट्रवाद तो है ही, भारत माता के प्रति- अपनी मातृभूमि के प्रति अपनत्व भी है, उसे बढ़कर यह भाव भी उदय होता है कि मेरी यह मातृभूमि उतनी कंगाल क्यों है? है, होने दो, पर मेरी मां है। इसीलिए उन्होंने कहा कि मां अगर बूढ़ी है तो क्या हम उसे छोड़ देंगे? मां काली है तो क्या हम उसे छोड़ देंगे? दुनिया का वैभव देखकर लौटे स्वामी विवेकानंद अपनी दीन- हीन मातृभूमि की दशा देखकर द्रवित थे और उस परिदृश्य को बदलना चाहते थे। इस बदलाव की दार्शनिक कल्पना वे लोगों को दे रहे थे, चेतना पैदा कर रहे थे।

दिखावे की संवेदना असरहीन

स्वामी विवेकानंद की भारत के प्रति कल्पना, अन्त्योदय, गरीबी उन्मूलन, शिक्षा के साथ सुदृढ़ व सामर्थ्यशाली भारत बनाने के लिए उन्होंने जो मार्ग दिखाया था, वस्तुत: हम उस पर चल नहीं रहे हैं, चलने का दिखावा कर रहे हैं। सत्ता द्वारा गरीबी उन्मूलन या सबसे कमजोर वर्ग के लिए जो योजनाएं बनायीं जाती हैं, उसे मैं सिर्फ दिखावे की संवेदना ही कहूंगा। कुछ योजनाओं को छोड़ दें तो अधिकांश योजनाओं का वास्तविक उद्देश्य उस वर्ग को सुदृढ़ करना, उसका उद्धार करना नहीं होता बल्कि सत्ता में बने रहने की चाह होती है। यह सब तभी सफल हो सकता है जब हृदय की गहराई से और पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ किया जाए। ऊपरी तौर पर तो पूरी दुनिया में कहा जा रहा है गरीबी मिटाओ-मिटी तो नहीं। भूख मिटाओ-मिटी तो नहीं। बीमारी मिटाओ-मिटी तो नहीं। यहां देखना यह है कि आप यह सब सतही तौर पर कह रहे हैं या यह कहने के पीछे आपकी पूरी संवेदना और निष्ठा है।

स्वामी विवेकानंद ने अपने जीवनकाल में इस हेतु प्रयोग नहीं किए, योजनाएं नहीं बनाई, क्योंकि वे योजक नहीं थे, मार्गदर्शक थे। वैसे भी वे अत्यंत अल्पायु में, मात्र 39 वर्ष की आयु में संसार से विदा ले गए। पर उन्होंने वे सूत्र बताए जो क्रियान्वित किये जा सकते हैं, क्योंकि वैसा ही वेदांत भी कहता है। ब्रह्मांड में एकत्व है, इसी आधार पर वे कुरीतियों के बहुत खिलाफ थे। समाज की जो रीतियां मनुष्य-मनुष्य में भेद करती हैं, ऊंच-नीच का भाव पैदा करती हैं, स्वामी जी ने सदैव उनका विरोध किया। वे कहते हैं प्रेम और सेवा- यही दो बाते हैं जिन पर चलकर हम अपने समाज को आगे ले जा सकते हैं। प्रेम को ईश्वरीय देन के रूप में व्याख्यायित करते हुए उन्होंने कहा कि हमें सम्पूर्ण मानव समाज से  प्रेम करना है, प्राणी मात्र से प्रेम करना है। आप कह सकते हैं कि राजनीतिक लाभ-हानि के चलते समाज में प्रेम और सेवा का भाव कम हो रहा है। पर प्रेम और सेवा का भाव चुटकी बजाते ही पैदा नहीं हो जाता, यह बड़े लम्बे प्रयास से पैदा होता है। यह भाव पैदा करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है पारिवारिक संस्कार, शिक्षा, फिर राज्य का संचालन करने वालों की भूमिका। अगर राजनीतिक दल चुनाव ही जाति, ऊंच-नीच, सम्प्रदाय, धन के आधार पर जीत जाएं तो उनसे प्रेम और सेवा की आशा करना ही व्यर्थ है। इसीलिए राजनीतिक चेतना, सामाजिक चेतना, शिक्षा और पारिवारिक संस्कार अर्थात चौतरफा प्रयत्नों की जरूरत होती है, सिर्फ कानून बनाने से ही काम नहीं होता। हमारे संविधान में अस्पृश्यता निवारण की बात है, कानून भी है, पर अस्पृश्यता समाप्त हुई नहीं। यह इसलिए कि हम उस बात को समझे ही नहीं कि हम सभी एक ही आत्म तत्व के अंग हैं, मनुष्य-मनुष्य में भेद नहीं है। तब हमने संविधान में अश्पृश्यता निवारण के लिए लिखा, उसके लिए कानून बनाए, पर उस अनुरूप शिक्षा व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था के स्तंभ खड़े नहीं किए, इसलिए सफलता नहीं मिली।

लक्ष्य क्या हो?

स्वामी विवेकानंद की यह सार्द्ध शती इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि उनका यह जो विचार और दर्शन है, वह वर्तमान पीढ़ी, युवा पीढ़ी तक पहुंचे, जिससे वह सर्वथा अनभिज्ञ है। वस्तुत: सेकुलरवाद के चलते और विवेकानंद जी के नाम के साथ 'स्वामी' जुड़ा होने के कारण वर्तमान पीढ़ी के सामने उनका वास्तविक स्वरूप ही प्रकट नहीं हो पाया है। एक युगान्तरकारी महापुरुष, जिसकी रचनात्मक परिकल्पना समग्रता को समेटे हुए है, का समाज और नई पीढ़ी के युवकों और युवतियों को बोध कराना बहुत आवश्यक है, इस दृष्टि से इस सार्द्ध शती में होने वाले आयोजन बहुत महत्व रखते हैं। विवेकानंद जी का एक दर्शन है, जिसके अनुरूप हमें कार्यक्रम बनाने हैं, दिशा तय करनी है, लक्ष्य निर्धारित करना है। मन में तय करना है कि लक्ष्य यही रखना है। मंजिल यदि एकत्व की भाव भूमि पर आधारित एक नए विश्व का निर्माण करना और उसके लिए भारत को सशक्त, समृद्ध और सामर्थ्यशाली बनाना है तो उसके लिए सत्ता एक छोटा सोपान है, अंतिम सोपान नहीं है। वर्तमान राजनीति उस उच्च सोपान की ओर नहीं जा रही है, उसने अपना लक्ष्य बहुत सीमित कर लिया है, वह सत्ता पाने तक सिमट कर रह गयी है।

स्वामी विवेकानंद जी जब देश की सीमा लांघ कर अमरीका गए, वहां शिकागो सम्मेलन में भारतीय संस्कृति और मूल्यों की जैसी प्रतिष्ठा स्थापित की और सम्पूर्ण विश्व की भारत की ओर देखने की दृष्टि को बदला, तब उसकी महती आवश्यकता थी। उस समय लोगों की सोच यह थी कि यहां के साधु-संन्यासी बेकार हैं और भारत साधुओं और सांपों का, मदारियों का देश है। उस समय साधुवेश में विदेश की धरती पर जाकर उन्होंने जो कहा और किया, उससे लोगों को बिजली का एक झटका सा लगा। तब विश्व के लोगों का भारत की ओर देखने का दृष्टिकोण बदला, विशेषकर अमरीका में भारत को लेकर जो भ्रांतियां थीं, वे तिरोहित हो गयीं। उस दृष्टि से आज की तुलना करें तो वैश्विक स्तर पर भारत का अनेक क्षेत्रों में सम्मान और गौरव स्थापित हुआ है। जब भारत ने दोबारा परमाणु विस्फोट किया तब भी भारत का गौरव बढ़ा, सबको लगा कि इस देश में इच्छाशक्ति है। आर्थिक प्रतिबंधों के बावजूद भारत जिस दृढ़ता से खड़ा रहा, उससे भी मान बढ़ा। लेकिन आज हम यह नहीं कह रहे हैं अमरीका के भाईयो और बहनो! आज हम कह रहे हैं अमरीका के व्यापारियो, वैज्ञानिको, उद्योगपतियो। यानी आज हमारा सम्मान उस पर टिका है कि हम उनके साथ कैसा और कितना व्यापार करते हैं। उनके व्यापार में कितना सहयोग करते हैं। विश्व के किन-किन देशों से किन-किन क्षेत्रों में हम व्यापार कर रहे हैं, आयात-निर्यात कर रहे हैं, उस दृष्टि से भारत का एक स्थान है। स्वामी विवेकानंद ने जब सम्बोधन किया -भाईयो और बहनो, तब उनकी वैश्विक दृष्टि एक परिवार की थी, आज हमारी दृष्टि बाजार की है। उस बाजारीकरण के नाते वैश्विक जगत में हमें जितना सम्मान मिलना चाहिए, उतना है।

बात नहीं, व्यवहार

जहां तक स्वामी विवेकानंद के दर्शन की राजनीतिक क्षेत्र में प्रासंगिकता और सार्द्ध शती के महत्व का प्रश्न है तो मैं पुन:कहूंगा कि केवल विचार-विचार-विचार का प्रचार करने से कुछ प्राप्त नहीं होगा। कोई भी राजनीतिक दल हो, देखना यह है कि वे उन विचारों और दर्शन को कितना व्यावहारिक मानते हैं। जब आप उन्हें व्यावहारिक मानेंगे तभी तो उस पर आचरण करेंगे। यदि आप सिर्फ दर्शन मानेंगे तो उसका केवल उच्चारण होगा, वाचन होगा। जरूरी यह है कि हम उनके विचारों पर चिंतन-मनन करें, फिर उसमें से कितना आज आपके लिए व्यावहारिक है, जितना आज की दृष्टि से सार्थक अंश है, वह तो व्यवहार में आना ही चाहिए, अपने निजी जीवन में भी और राजनीतिक आचरण में भी। उस दृष्टि से देखें तो आज की राजनीति सेवा-प्रेम पर आधारित है क्या? न तो राजनीतिक दलों में सेवा भावना दिखती है और न ही प्रेम, तो बात बनेगी कैसे? उसमें तो सिर्फ जाति, पंथ, भेद हैं, जो तय करते हैं कि वोट मिलेंगे या नहीं मिलेंगे।

महापुरुषों के जन्म शताब्दी समारोह हमारे लिए सिर्फ प्रतीकात्मक बनकर न रह जाएं। गांधी जी की शती मनी, टैगोर की मनी, मालवीय जी की शती मनाने की भी घोषणा हुई, पर देश और समाज पर उसका कोई परिणाम दिखा क्या? स्वामी विवेकानंद जी की यह सार्द्ध शती भी उसी श्रृंखला में शामिल न हो इसलिए जरूरी यह है कि उनके सार्वकालिक चिंतन, दर्शन और उद्बोधन में से वर्तमान संदर्भों में आचरणीय कुछ सूत्र ढूंढें, उन पर चिंतन-मनन करें, उसको सब तक पहुंचाए और सबसे जरूरी है उन्हें व्यवहार में लाएं।

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