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भारत के धुर दक्षिणी छोर पर कन्याकुमारी के सामने, तीन सागरों के संगम स्थल पर समुद्र के भीतर स्थित एक विशाल शिलाखंड पर नवनिर्मित स्वामी विवेकानंद शिला स्मारक हमारी राष्ट्रीय एकता का एक नवीन तीर्थ बन गया है। इस तीर्थ के निर्माण के पूर्व आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार धामों (बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम् एवं द्वारिका) की यात्रा ही भारत परिक्रमा का संतोष प्रदान करती थी, किन्तु रामेश्वरम और द्वारका के दक्षिण में भारत भूमि का बड़ा भू-भाग इस परिक्रमा से बाहर रह जाता था। स्वामी विवेकानंद के जन्मशताब्दी वर्ष (1963) में इस शिला स्मारक के निर्माण का संकल्प लेकर बीसवीं शताब्दी के भारत ने शंकराचार्य जी के चार धामों में यह पांचवा धाम जोड़कर न केवल राष्ट्रीय एकता के भौगोलिक अधिष्ठान को पूर्णता प्रदान की अपितु स्थापत्य कला का समूचे विश्व को आकर्षित करने वाला एक अद्भुत चमत्कार प्रगट कर दिखाया।
समुद्र तट से पचास फुट ऊंचाई पर निर्मित यह भव्य और विशाल प्रस्तर कृति विश्व के पर्यटन मानचित्र पर एक महत्वपूर्ण आकर्षण केन्द्र बनकर उभर आई है। उसकी भव्यता और विशालता का अनुमान इससे ही लग सकता है कि उसे बनाने के लिए लगभग 73 हजार विशाल प्रस्तर खंडों को समुद्र तट पर स्थित कार्यशाला में कलाकृतियों से सज्जित करके समुद्री मार्ग से शिला पर पहुंचाया गया। इनमें कितने ही प्रस्तर खंडों का भार 13 टन तक था। स्मारक के विशाल फर्श के लिए प्रयुक्त प्रस्तर खंडों के आंकड़े इसके अतिरिक्त हैं। इस स्मारक के निर्माण में लगभग 650 कारीगरों ने 2081 दिनों तक रात-दिन श्रमदान किया। कुल मिलाकर 78 लाख मानव घंटे इस तीर्थ की प्रस्तर काया को आकार देने में लगे। 2 सितम्बर, 1970 को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डा.वी.वी.गिरि ने तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री करुणानिधि की अध्यक्षता में आयोजित एक विराट समारोह में भारत के उस नवीन तीर्थ को विश्व की धरोहर बना दिया। स्वामी विवेकानंद के जन्म शताब्दी वर्ष में जन्मा वह राष्ट्रीय संकल्प केवल सात साल में ही साकार रूप धारण कर गया, अनेक दिशाओं से विरोध की कई मंजिलों को पार करके, साधनों के अभाव से जूझते हुए। स्मारक निर्माण का वह अभियान स्वयं में राष्ट्र जागरण का महान यज्ञ बन गया। उस यज्ञ ने भारत की बाह्य विविधता और विघटनात्मक राजनीति के अंतस्तल में प्रवाहमान राष्ट्रीय चेतना और राष्ट्रीय एकात्मता की अजस्र धारा का विश्व को साक्षात्कार कराया और उस साक्षात्कार का निमित्त बना स्वामी विवेकानंद का 39वर्ष का अल्प जीवन और भारतीय चेतना को युगों-युगों तक झंकृत करने वाली उनकी ओजस्वी वाणी।
नरेन्द्र से विवेकानन्द
12 जनवरी, 1863 को जन्मे नरेन्द्र को नियति 1880 में रामकृष्ण परमहंस के अध्यात्मिक प्रभामंडल में खींच ले गयी और 1886 में रामकृष्ण परमहंस के शरीरांत के साथ ही 23 वर्षीय नरेन्द्र ने अपने कंधों पर अपने गुरु भाइयों की छोटी-सी टुकड़ी का नेतृत्व करने और अपने गुरु के आध्यात्मिक संदेश को युगानुकूल भाषा में विश्व भर में गुंजित करने तथा धर्म की नवीन व व्यावहारिक व्याख्या करके भारत के मूर्छित प्राणों में नवजीवन का संचार करने का गुरुतर भार पाया। चार वर्षों में अपने गुरु भाइयों को संन्यास पथ पर अडिग करके 1890 में नरेन्द्र अकेले ही परिव्राजक वेष धारण कर भारत माता के अंतरंग का साक्षात्कार करने के लिए निकल पड़े। इस भ्रमण में भारत भूमि पर व्याप्त द्रारिद्र्य, छुआछूत, ऊंच-नीच, अंधविश्वास, कूप मंडूक, अर्थहीन पूजा- उपासना, घोर स्वार्थ, क्षुद्र ईर्ष्या और द्वेष से कुंठित-मूर्छित कर्म चेतना को अपनी आंखों से देखकर नरेन्द्र का अंत:करण तड़प उठा और मातृभूमि के पुनरुद्धार का उपाय खोजने लगा। इस यात्रा के अंत में वे कन्याकुमारी पहुंचे, वहां देवी का दर्शन करने के पश्चात कोई अदृश्य शक्ति उन्हें समुद्र तैरकर शिला पर ले गयी और वहां देवी के पदचिन्हों का दर्शन करते ही वे ध्यान की स्थिति में पहुंच गये। ध्यान मुद्रा में आसेतु हिमाचल भारत माता का चित्र उनकी आंखों में उभरा और मन में भारत तथा भारत के माध्यम से पूरी मानव जाति का उद्धार करने की एक योजना उभरी। इसी योजना का पहला चरण था अमरीका में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने का निश्चय। इस धर्म सम्मेलन ने ही नरेन्द्र को एक अज्ञात संन्यासी से विश्व प्रसिद्ध स्वामी विवेकानंद में रूपांतरित कर दिया। उनकी वाणी को वह शक्ति प्रदान की जिससे वह अनेक पीढ़ियों को अनुप्राणित व स्पंदित करने वाली अक्षय प्रेरणास्रोत बन गयी। स्वामी विवेकानंद के जन्मशताब्दी वर्ष (1963) में इस शिला पर स्वामी जी के स्मारक निर्माण का संकल्प कुंडलिनी जागरण का माध्यम बन गया। इस स्मारक में देवी के श्रीचरणों पर दृष्टि गड़ाए, ‘SÉ®èú´ÉäÊiÉ की सिंह ¨ÉÖpùÉ’ में खड़ी स्वामी जी की विशाल प्रतिमा भारतीय आध्यात्म, धर्म और जीवन दृष्टि का उद्घोष कर रही है।
प्रारंभिक चरण और विरोध
भारतीय समाज उत्सवधर्मी है। आचरण के धरातल पर निष्क्रिय रहते हुए भी शाब्दिक प्रदर्शन के धरातल पर महापुरुषों की जयंतियां मनाने का उसे भारी शौक है। 1963 में स्वामी जी की जन्मशताब्दी को भी वर्ष भर मनाने का तुमुलनाद प्रारंभ हो गया। तभी तमिलनाडु में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रांत प्रचारक दत्ताजी डिडोलकर की प्रेरणा से तमिलनाडु के मन में इस शिला का नाम ‘Ê´É´ÉäEòÉxÉÆnù ʶɱÉÉ’ घोषित करके वहां स्वामी जी की प्रतिमा स्थापित करने का विचार पैदा हुआ। कन्याकुमारी के प्रतिष्ठित नागरिकों की एक स्थानीय समिति भी गठित हो गई। रामकृष्ण मिशन के एक प्रभावशाली संन्यासी स्वामी चिद्भवानंद, जो तमिलनाडु में ‘®úɨÉEÞò¹hÉ iÉ{ÉÉä´ÉxɨÉÂ’ नामक एक स्वतंत्र आश्रम के प्रतिष्ठाता थे, इस मांग के पीछे खड़े हो गये। किन्तु तमिलनाडु के हिन्दुओं की यह योजना प्रकाश में आते ही कैथोलिक चर्च उसके विरोध में खड़ा हो गया। उसके लम्बे प्रयासों के फलस्वरूप कन्याकुमारी क्षेत्र की जनसंख्या का बड़ा भाग ईसाई मत स्वीकार कर चुका था। इस बहुसंख्या के बल पर चर्च ने उस शिला को विवेकानंद शिला की बजाय ‘ºÉå]õ जेवियर ʶɱÉÉ’ जैसा नाम दे दिया। चर्च ने मिथक गढ़ा कि सोलहवीं शताब्दी में सेंट जेवियर इस शिला पर आये थे। शिला पर अपना अधिकार सिद्ध करने के लिए चर्च ने वहां चर्च के प्रतीक चिन्ह 'क्रास' की एक प्रस्तर प्रतिमा भी स्थापित कर दी। चर्च के प्रभाव के कारण कन्याकुमारी के मतांतरित ईसाई नाविकों ने हिन्दू कार्यकर्ताओं को समुद्र तट से शिला तक ले जाने से मना कर दिया। इस बहिष्कार का सामना करने के लिए बालन और लक्ष्मणन जैसे अनेक वीर नाविक स्वयंसेवक कन्याकुमारी पहुंच गए। इस तनावपूर्ण वातावरण में एक रात वह 'क्रास' समुद्र में विलीन हो गया। पूरे जिले में संघर्ष की तनाव भरी स्थिति पैदा हो गयी और तमिलनाडु की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने 2 अक्तूबर, 1962 को कन्याकुमारी में धारा 144 घोषित करके सार्वजनिक आंदोलन के दरवाजे बंद कर दिये। उन दिनों तमिलनाडु के कांग्रेसी मुख्यमंत्री भक्त वत्सलम् धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। वे कांची कामकोटि पीठ्म के परमाचार्य श्री चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती जी के प्रति अगाध श्रद्धा रखते थे, किन्तु ईसाई वोट बैंक के लालच में, संकुचित दलीय स्वार्थ के लिए वे चर्च को नाराज नहीं करना चाहते थे। इस स्थिति का सामना करने के लिए दत्ता जी डिडोलकर की प्रेरणा से नवम्बर, 1962 में कन्याकुमारी जिला समिति का विस्तार करके केरल के शीर्ष नायर नेता श्री मन्मथ पद्मनाभन की अध्यक्षता में अखिल भारतीय विवेकानंद शिला स्मारक समिति का गठन हो गया। इस समिति ने घोषणा कर दी कि 12 जनवरी, 1963 से आरंभ होने वाले स्वामी विवेकानंद जन्म शताब्दी वर्ष की 12 जनवरी, 1964 को पूर्णाहुति होने तक वे शिला पर उनकी प्रतिमा की स्थापना कर देंगे। यह पूरी योजना छह लाख रुपयों की थी। उन्होंने सरकार से मांग की कि वह इसे ‘Ê´É´ÉäEòÉxÉÆnù ʶɱÉÉ’ घोषित करे। इस आशय की एक प्रस्तर पट्टिका शिला पर स्थापित करने की अनुमति भी मांगी। मुख्यमंत्री भक्त वत्सलम् ने इस आंदोलन को भ्रमित करने के लिए विवेकानंद शिला नामकरण तो स्वीकार कर लिया और उस शिला पर स्वामी जी के आगमन व समाधि के सत्य की घोषणा करने वाली एक पट्टिका स्थापित करने की अनुमति भी दे दी, किन्तु शिला पर कोई स्मारक निर्माण न होने देने के अपने निर्णय पर डटे रहे। उनके इस निर्णय के सामने झुककर स्वामी चिदभवानंद जी ने शिला के सामने मुख्य तट पर केवल 15न्15 फीट आकार का एक स्मारक, जिसमें स्वामी जी ध्यान मुद्रा में बैठे हुए हैं और लोहे के सीखचों से घिरे हुए हैं, निर्माण करना स्वीकार कर लिया और वह अभी भी वहां विद्यमान है। इधर अ.भा. विवेकानंद शिला स्मारक समिति ने मुख्यमंत्री के आश्वासन पर 17 जनवरी, 1963 को शिला पर एक प्रस्तर पट्टी स्थापित कर दी। किन्तु 16 मई, 1963 को इस पट्टिका को रात के अंधेरे में तोड़कर समुद्र में फेंक दिया गया। स्थिति फिर बहुत तनावपूर्ण हो गयी। चर्च और तमिलनाडु की सरकार के संयुक्त विरोध का स्थानीय साधनों से सामना कर पाना शिला स्मारक समिति को बहुत कठिन लगा। मुख्यमंत्री भक्त वत्सलम् का कहना था कि केन्द्र सरकार भी शिला पर किसी स्मारक के निर्माण के पक्ष में नहीं है। तमिलनाडु सरकार उसकी सहमति के बिना कुछ नहीं कर सकती। इस स्थिति में दत्ता जी डिडोलकर और स्मारक समिति को लगा कि अब इस गतिरोध को अखिल भारतीय प्रयत्नों से ही तोड़ा जा सकता है। किन्तु इस अखिल भारतीय प्रयास का नेतृत्व कौन करे, उसके साधन कौन जुटा सकेगा? सबकी दृष्टि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और स्वामी विवेकानंद के प्रति अगाध श्रद्धा रखने वाले उसके सरसंघचालक श्रीगुरुजी पर गयी। पर नियति इसके लिए पहले से ही आधारभूमि तैयार कर रही थी।
रामकृष्ण मिशन और एकनाथ जी
मार्च, 1962 में संघ के एक शीर्ष कार्यकर्ता श्री एकनाथ रानाडे को सरकार्यवाह पद से मुक्त करके अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख का दायित्व दिया गया, साथ ही स्वामी विवेकानंद के जन्म शताब्दी वर्ष में संघ के योगदान के रूप में उनके विचारों का एक संकलन तैयार करने का काम भी उन्हें सौंपा गया। यह कार्य एकनाथ जी को बहुत भाया। वे विद्यालय जीवन में विवेकानंद साहित्य का पारायण कर चुके थे। उस साहित्य ने उनके मानस को गढ़ा था। अत: श्री गुरुजी की ओर से यह निर्देश आते ही उन्होंने उसे सहर्ष शिरोधार्य कर लिया और कलकत्ता जाकर वे विवेकानंद वाङ्मय में डूब गये। चार-पांच माह श्री रामकृष्ण मिशन के बेलूर मठ में रहकर वे उनके सम्पूर्ण वाङ्मय का तीन-चार बार पारायण कर गये। इस मंथन में से जो नवनीत उन्होंने बाहर निकाला वह अंग्रेजी में 'राइजिंग काल टू हिन्दू नेशन' और हिन्दी में 'उत्तिष्ठत् जाग्रत' शीर्षक से प्रकाशित किया गया। मुझे भी उस मूल कृति का हिन्दी अनुवाद तैयार करने का सौभाग्य मिला था।
16 मई, 1963 को शिला पर स्थित प्रस्तर पट्टिका के ध्वंस से आहत शिला स्मारक समिति के अनेक प्रमुख सदस्य दत्ताजी डिडोलकर के साथ नागपुर में श्री गुरुजी से मिले। श्री गुरुजी की आंखें इस समस्या को सुलझाने में समर्थ पात्र को खोजने लगीं। और यह संयोग नहीं , नियति की योजना ही थी कि उसने उसी समय किसी निमित्त एकनाथ जी को नागपुर पहुंचा दिया। एकनाथ जी उसी दोपहर नागपुर से बाहर जाने वाले थे कि श्री गुरुजी ने शिला स्मारक समिति की समस्या उन्हें बतायी और पूछा कि क्या वे यह दायित्व लेना चाहेंगे? एकनाथ जी तो विवेकानंद में आकंठ डूबे हुए ही थे। उन्होंने हां कर दी और सर्वप्रथम बेलूर मठ आकर रामकृष्ण मिशन के तत्कालीन अध्यक्ष स्वामी माधवानंद जी का आशीर्वाद मांगा। स्वामी माधवानंद से उनका स्नेह संबंध बहुत पुराना था। 17 जनवरी, 1963 को विवेकानंद के विचार संकलन की पहली प्रति भी उन्होंने स्वामी माधवानंद को ही भेंट की थी। अत: अब भी, जुलाई, 1963 में यह नया दायित्व मिलने पर एकनाथ जी सबसे पहले स्वामी माधवानंद जी का आशीर्वाद लेने पहुंचे। स्वामी माधवानंद जी ने कहा, ‘ªÉ½þ पुण्य कार्य है, तुम हाथ में लो। मेरा क्या, स्वयं ठाकुर रामकृष्ण परमहंस एवं स्वामी जी का आशीर्वाद तुम्हारे साथ ®ú½äMÉÉ*’ एकनाथ जी का यह कदम बहुत ही दूरदर्शितापूर्ण था। रामकृष्ण मिशन का आशीर्वाद लिए बिना यदि वे शिला स्मारक निर्माण के कार्य में कूद पड़ते और यदि किसी पत्रकार के पूछने पर मिशन इस बारे में अनभिज्ञता प्रगट कर देता तो अभियान की प्रामाणिकता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता।
राजनीतिक अड़चनें
रामकृष्ण मिशन का आशीर्वाद प्राप्त कर एकनाथ जी मद्रास पहुंचे। उन्होंने इस विवाद से संबंधित सब फाइलों का सूक्ष्म अध्ययन किया। उनमें उन्हें भक्त वत्सलम् के विरोध के मुख्य सूत्र मिल गये। भक्त वत्सलम् का मुख्य तर्क था कि केन्द्रीय सरकार के संस्कृति मंत्री श्री हुमायूं कबीर शिला पर स्मारक निर्माण के विरुद्ध हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि से इस स्मारक के निर्माण से उस क्षेत्र का नैसर्गिक सौंदर्य नष्ट हो जाएगा। कबीर के इस तर्क को प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने शिला पर स्मारक निर्माण के विरोध का मुख्य आधार बना लिया था। एकनाथ जी ने अनुभव किया कि स्मारक निर्माण के लिए तमिलनाडु सरकार की अनुमति पाने से पहले केन्द्र सरकार की सहमति प्राप्त करना आवश्यक है, और इसके लिए हुमायूं कबीर की ओर से हो रहे विरोध को पहले निर्मूल करना होगा। समस्या के गहरे अध्ययन से एकनाथ जी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि स्वामी विवेकानंद शिला स्मारक समिति में कोई औपचारिक पद ग्रहण किये बिना तमिलनाडु और केन्द्र सरकार की ओर से आ रहे विरोध को समाप्त नहीं किया जा सकता। इसलिए उन्होंने समिति की पूर्व रचना को छेड़े बिना 13 अगस्त, 1963 को अ.भा. विवेकानंद शिला स्मारक समिति के प्रथम संगठन मंत्री का पद अंगीकार किया।
कन्याकुमारी में शिला के नैसर्गिक परिवेश का अध्ययन करके उन्होंने केन्द्रीय संस्कृति मंत्री हुमायूं कबीर से भेंट का समय मांगा। कबीर ने उन्हें भेंट का समय नहीं दिया इसलिए एकनाथ जी पुन: कलकत्ता गये, स्वामी माधवानंद जी एवं अन्य लोगों से परामर्श किया। उनकी सहायता से वे कलकत्ता के सभी प्रमुख संपादकों से मिले। सभी का मत था कि स्मारक निर्माण में मुख्य बाधा हुमायूं कबीर हैं। कन्याकुमारी में स्वामी जी का स्मारक बनाने के लिए पूरा बंगाल लालायित था। बंगाल ही हुमायूं कबीर का अपना राजनीतिक क्षेत्र था। इसलिए सर्वप्रथम हुमायूं कबीर के विरोध को समाप्त करना आवश्यक था। व्यक्तिगत भेंटों के द्वारा अनुकूल मन तैयार करके एकनाथ जी ने कलकत्ता में एक पत्रकार वार्ता बुलाकर हुमायूं कबीर की विरोध की भूमिका को सार्वजनिक कर दिया। अगले दिन सभी समाचार पत्रों में समाचारों, लेखों और सम्पादकीय टिप्पणियों में कबीर का व्यापक विरोध आरंभ हो गया। प्रचार की इस आंधी से कबीर हतप्रभ रह गये। उन्होंने एकनाथ जी को दिल्ली आकर भेंट करने का न्योता दिया। एकनाथ जी उनसे मिले। लम्बी वार्ता करके उन्हें शिला स्मारक के विरोध से परावृत्त करने में सफल हुए। इस भेंट की विशेषता यह रही कि भेंट के बाद एकनाथ जी ने कबीर के साथ हुए अपने मौखिक वार्तालाप को अक्षरश: लिपिबद्ध करके उन्हें तुरंत भेंट किया। एकनाथ जी की असामान्य स्मरणशक्ति को देखकर हुमायूं कबीर चमत्कृत रह गए।
राष्ट्रीय प्रयास
हुमायूं कबीर की बाधा हटाने के पश्चात एकनाथ जी प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू की अनुकूलता पाने के उपाय खोजने लगे। नेहरू जी की सहमति के बिना तमिलनाडु के मुख्यमंत्री भक्त वत्सलम् की अनुमति प्राप्त होना असंभव था। नेहरू जी की दृष्टि में चर्च विरोध के कारण यह समस्या साम्प्रदायिक बन चुकी थी। स्वामी विवेकानंद के प्रति व्यक्तिगत श्रद्धाभाव रखते हुए भी नेहरू जी का हिन्दुत्व विरोध जगजाहिर था। वे स्मारक निर्माण के लिए सहमति देकर अपने ऊपर साम्प्रदायिकता का ठप्पा नहीं लगने देना चाहते थे। कुछ ही दिनों बाद उनकी भक्त वत्सलम् से भेंट होने वाली थी। उनका एक शब्द भी भक्त वत्सलम् को अनुकूल बनाने के लिए पर्याप्त था, किन्तु नेहरू जी तक पहुंचा कैसे जाए? एकनाथ जी की दृष्टि नेहरू जी के विश्वस्त लाल बहादुर शास्त्री की ओर गयी। वे उनसे मिले। शास्त्री जी स्मारक निर्माण के पक्ष में थे। उन्होंने एकनाथ जी को पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया किन्तु कहा कि मेरा कद छोटा है इसलिए मैं अपने ढंग और अपनी गति से सहयोग दूंगा। कुछ दिन प्रतीक्षा करके एकनाथ जी ने शास्त्री जी से पूछा कि यदि कुछ संसद सदस्यों के हस्ताक्षरों से युक्त प्रतिवेदन नेहरू जी को प्रस्तुत किया जाए तो क्या आपका काम सरल होगा? शास्त्री जी ने कहा कि यदि यह कर पाओ तो बहुत अच्छा होगा। बस, एकनाथ जी ने संसद के सत्र के समय दिल्ली में डेरा डाल दिया और विभिन्न दलों के सांसदों से अलग-अलग भेंट आरंभ कर दी। तब एकनाथ जी ने पाया कि सभी विचारधाराओं और दलों के सांसद स्वामी जी के प्रति अगाध श्रद्धा रखते हैं। उन्होंने भी युवावस्था में स्वामी जी के विचारों और जीवन से देशभक्ति की प्रेरणा प्राप्त की थी। इस अनुकूलता का परिणाम हुआ कि 24,25,26 दिसम्बर, 1963 के केवल तीन दिनों में शिला स्मारक के निर्माण के पक्ष में एकनाथ जी 323 सांसदों के हस्ताक्षर प्राप्त करने में सफल हो गये। समाजवादी सांसदों के हस्ताक्षर लेने में डा.राममनोहर लोहिया ने सहायता की, तो कम्युनिस्ट सांसदों के हस्ताक्षर लेने में रेणु चक्रवर्ती ने पहल की। उस ज्ञापन पर सभी दलों, सभी राज्यों, यहां तक मुस्लिम और ईसाई सांसदों के भी हस्ताक्षर थे। एकनाथ जी इन हस्ताक्षरों को लेकर जब शास्त्री जी से मिले तो वे चकित रह गये। उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि एकनाथ जी जैसा गैरराजनीतिक, अप्रसिद्ध व्यक्ति इतने कम समय में इतने अधिक सांसदों के हस्ताक्षर बटोर सकता है। उनके मुख से निकल गया- ‘CªÉÉ ये हस्ताक्षर सच्चे ½éþ?’ एकनाथ जी का उत्तर था आप किसी भी सांसद को फोन करके सत्य की जांच कर लीजिए। शास्त्री जी ने भाव विभोर होकर कहा कि, ‘+¤É तुम निश्चिंत बैठो। आगे का काम मैं Eò°ÆüMÉÉ*’ शास्त्री जी का संकेत आने पर एकनाथ जी ने संसद के वरिष्ठतम सदस्य श्री बापू अणे के द्वारा वह हस्ताक्षरित ज्ञापन नेहरू जी को औपचारिक तौर पर भेंट कर दिया। इस ज्ञापन का नेहरू जी पर भारी प्रभाव पड़ा और उन्होंने अगली भेंट में भक्त वत्सलम् को अपनी सहमति सूचित कर दी।
इस हस्ताक्षर संग्रह अभियान ने एकनाथ जी का यह विश्वास दृढ़ कर दिया कि दलीय राजनीति ही हमारे समाज को विखंडित कर रही है और स्वामी विवेकानंद जैसे सांस्कृतिक व्यक्तित्व ही इस विखण्डन को पाटने में समर्थ है। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि राजनीति हमें तोड़ती है तो संस्कृति जोड़ती है।
एकनाथ जी : कल्पना और यथार्थ
323 सांसदों के हस्ताक्षर एवं पं.नेहरू के कथन से प्रभावित भक्त वत्सलम् ने 5 फरवरी, 1964 को कुछ संवाददाताओं को बता दिया कि राज्य सरकार विवेकानंद शिला पर स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा की स्थापना के लिए तैयार है, किन्तु यह प्रतिमा छोटे आकार की और एक सुरक्षित बाड़े में बंद होनी चाहिए। भक्त वत्सलम् का यह निर्णय अगले दिन 6 फरवरी के समाचार पत्रों में छप गया। परंतु एकनाथ जी भक्त वत्सलम् के हठी स्वभाव को पहचान चुके थे। अत: उन्होंने पूरी विनम्रता के साथ 13 फरवरी को भक्त वत्सलम् से प्रत्यक्ष भेंट करके शिला पर प्रतिमा स्थापना के लिए उनके प्रति कृतज्ञता प्रगट की और उनकी धर्मनिष्ठा व स्वामी जी के प्रति भक्ति की प्रशंसा की। शिला स्मारक के लिए केन्द्र सरकार की सहमति और तमिलनाडु सरकार की अनुमति पाकर एकनाथ जी ने स्मारक निर्माण के मार्ग में विरोध की पहली मंजिल को पार कर लिया। किन्तु स्मारक के स्वरूप और आकार के बारे में भक्त वत्सलम् और एकनाथ जी के कल्पना-चित्रों में आकाश-पाताल का अंतर था। भक्त वत्सलम् 15न्15 फीट आकार के स्मारक के निर्माण पर अड़े हुए थे जबकि एकनाथ जी की कल्पना में एक भव्य और विशाल स्मारक का चित्र घूम रहा था। तमिलनाडु सरकार की अनुमति के बिना उस चित्र को साकार नहीं किया जा सकता था। अत: एकनाथ जी ने भी भक्त वत्सलम् के साथ बहुत ही धैर्य और नीतिमत्ता के साथ व्यवहार किया। उनके साथ अपनी मतभिन्नता को उन्होंने एक बार भी खुले शब्दों में व्यक्त नहीं किया। स्वामी विवेकानन्द जी के प्रति भक्ति और उनके स्मारक निर्माण के बिन्दुओं पर दोनों की एकमतता को ही हमेशा सामने रखा। इसी के साथ एकनाथ जी स्मारक के अपने कल्पना चित्र के लिए भक्त वत्सलम् की सहमति पाने की दिशा में प्रयत्नशील हो गये। उन्होंने भक्त वत्सलम् के सामने प्रस्ताव रखा कि क्यों न देश के मूर्धन्य स्थापत्यकारों के द्वारा स्मारक की रूपरेखा तैयार करायी जाए और उस पर देश के पांच-छह शीर्ष पुरुषों का मत आमंत्रित किया जाए। भक्त वत्सलम् ने पूछा कौन होंगे वे 5-6 शीर्ष पुरुष। एकनाथ जी ने नाम गिनाये- प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, गृहमंत्री लालबहादुर शास्त्री, राष्ट्रपति डा.एस.राधाकृष्णन, नये संस्कृति मंत्री मुहम्मद करीम छागला, रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष स्वामी माधवानंद और अंत में उन्होंने कांची कामकोटि पीठम् के परमाचार्य चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती का नाम लिया। परमाचार्य के प्रति भक्त वत्सलम् की अगाध श्रद्धा थी, इस तथ्य को एकनाथ जी जानते थे। उनका नाम लेते ही भक्त वत्सलम् उछल पड़े। बोले कि ठीक है तुम स्मारक का स्थापत्य मानचित्र बनवाकर उस पर परमाचार्य का मत मुझे बताओ। एकनाथ जी तुरंत परमाचार्य से मिले। सुखद संयोग था कि परमाचार्य ने स्मारक के निर्माण में गहरी रुचि दिखाई और एकनाथ जी द्वारा चयनित परम्परागत शैली के उत्कृष्ट वास्तुकार श्री एस.के.अचारी को अपने साथ बैठाकर स्मारक की रूपरेखा पर विस्तार से चर्चा की व आवश्यक दिशा-निर्देश दिये। उनके दिशा-निर्देशों से सज्जित होकर एकनाथ जी भक्त वत्सलम् से मिले। वत्सलम् परमाचार्य द्वारा स्वीकृत स्थापत्य चित्र को देखने के लिए आतुर थे। एकनाथ जी ने उन्हें वह चित्र दिखाया, पर उसके आकारों का उल्लेख न करने की सावधानी बरती। भक्त वत्सलम् ने तुरंत परमाचार्य द्वारा स्वीकृत मानचित्र पर काम करने का आदेश दे दिया। तब एकनाथ जी ने झिझकते हुए कहा कि एक कठिनाई है कि परमाचार्य द्वारा स्वीकृत स्मारक का आकार थोड़ा बड़ा होगा। भक्त वत्सलम् ने कहा कि कोई चिंता की बात नहीं है। तुम स्मारक निर्माण का कार्य आरंभ करो, आकार की समस्या को बाद में देखेंगे। बेचारे भक्त वत्सलम् उस समय शायद यह नहीं समझ पाए कि वह थोड़ा-सा बड़ा आकार 15न्15 फीट से बढ़कर स्वामी जी की प्रतिमा वाले सभा मण्डपम् में ही 130न्56 फीट तक पहुंच जाएगा।
स्मारक निर्माण में तमिलनाडु सरकार से आने वाले अवरोधों की पराजय की आखिरी मंजिल एकनाथ जी पार कर चुके थे। स्मारक के आकार का लगातार विस्तार होता जा रहा था। सभा मण्डपम् के साथ देवी के चरणों पर श्रीपाद मण्डपम् और शिला पर एक गहरे गढ्ढे पर 'ओम' की प्रतिमा के साथ एक ध्यान मण्डपम् बनाने जैसी कल्पनाएं एकनाथ जी के मन में उभरने लगी थीं। इन कल्पनाओं के लिए वे किश्तों में तमिलनाडु सरकार की औपचारिक अनुमति प्राप्त करते जा रहे थे। इस प्रकार 11 अगस्त, 1963 को विवेकानंद शिला स्मारक समिति के संगठन मंत्री का पद संभालने से सितम्बर, 1964 तक पूरा एक वर्ष स्मारक निर्माण के लिए सरकारी अनुमति प्राप्त करने में चला गया। किन्तु स्मारक के वर्तमान चित्र को साकार करने के लिए तमिलनाडु सरकार की अनुमति प्राप्त करने का कार्य अनेक किश्तों में स्मारक निर्माण के अंतिम चरण तक चलता रहा। पूरा चित्र एक साथ प्रस्तुत कर तमिलनाडु सरकार के डगमगाने की स्थिति कभी पैदा नहीं होने दी गयी। यहां भावुक उत्साह से अधिक एकनाथ जी की प्रगल्भ नीतिमत्ता और कुशल रणनीति का योगदान रहा।
कुशल संगठक व योजक
अनुमति तो मिल गयी, स्मारक निर्माण का रास्ता भी खुल गया। पर अब एकनाथ जी के सामने स्मारक के कल्पना चित्र को साकार रूप देने की चुनौती खड़ी थी। इस चुनौती ने एकनाथ जी की प्रतिभा, कल्पनाशक्ति, योजना कुशलता, साधन संग्राहकर्ता, एक प्रस्तर स्मारक के निर्माण कार्य को राष्ट्र जागरण और राष्ट्रीय एकता के देशव्यापी आंदोलन को खड़ा करने की अपूर्व क्षमता को प्रगट किया। एकनाथ जी अकेले नहीं थे। स्वामी विवेकानंद के जीवन लक्ष्य और आदर्शों के प्रति समर्पित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पूरे देश में फैला हुआ विशाल संगठन इस कार्य में उनके पीछे खड़ा था। स्वामी विवेकानन्द जी के प्रति देश के अचेतन मानस में गहरी श्रद्धा एवं भावना व्याप्त थी। अनेक दलों में बिखरा नेतृत्व उन्हें अपना प्रेरणा पुरुष मानता था। लेकिन इस पूरी पूंजी को जोड़कर एक दिशा में प्रवाहित करने के लिए अपूर्व कल्पनाशक्ति, योजकता एवं संगठन कौशल की आवश्यकता थी, जो नियति ने एकनाथ जी में प्रगट की। वे एक साथ अनेक प्रश्नों का उत्तर खोजने में जुट गये। शिला स्मारक का अंतिम चित्र क्या होगा? श्रीपाद मण्डपम्, ध्यान मण्डपम् और प्रतिमा की स्थापना के साथ मुख्य सभा मण्डपम् का स्वरूप क्या होगा? कहां किस रंग का कौन-सा पत्थर प्रयोग किया जाएगा, वह पत्थर कहां से प्राप्त होंगे, कैसे लाये जाएंगे, किस आकार का कौन-सा पत्थर कहां लगेगा? उन पर कौन-सी कलाकृतियां उत्कीर्ण होंगी? इन विशाल प्रस्तर खंडों को समुद्र के बीच शिला तक कैसे पहुंचाया जाएगा? निर्माण के समय पानी की आवश्यकता कैसे पूरी होगी? स्मारक दर्शन के लिए आने वाले यात्रियों एवं कारीगरों के पीने के लिए शुद्ध जल की व्यवस्था कहां-कहां से कैसे होगी? शिला तक आने-जाने और सामग्री को ढोने के लिए नौका व्यवस्था कैसे होगी? पत्थरों की गढ़ाई व कलात्मक सज्जा के लिए मुख्य तट पर कार्यशाला कहां बनेगी? यात्रियों एवं कारीगरों के ठहरने की क्या व्यवस्था होगी? स्मारक निर्माण का समयबद्ध कार्यक्रम क्या होगा? उसे कैसे निभाया जाएगा? उसके लिए आवश्यक विशेषज्ञ और कारीगर कहां से जुटाए जाएंगे? स्वामी जी की वहां स्थापित होने वाली प्रतिमा की क्या मुद्रा हो? क्या वे ध्यान मुद्रा में हों या सर्वाधिक प्रचलित पगड़ीधारी वक्ता की मुद्रा में दिखाए जाएं? एकनाथ जी ने उनकी परिव्राजक रूप में कर्म पथ का आह्वान करने वाली मुद्रा की कल्पना की। फिर प्रश्न उठा कि उस प्रतिमा की ऊंचाई कितनी हो? एकनाथ जी उन्हें भगवान के रूप में नहीं, कर्म पथ पर बढ़ने का आह्वान करते हुए एक धर्मयोद्धा के रूप में प्रस्तुत करना चाहते थे, जिसकी अपनी दृष्टि देवी के चरणों पर केन्द्रित हो, आदि-आदि अनेक कल्पना चित्र उनकी आंखों में उभरने लगे। पत्थरों की खोज, इंजीनियरों, कारीगरों एवं विशेषज्ञों की खोज, परम्परागत वास्तुकला में निष्णात स्थापत्यकारों की खोज, स्वामी जी का चित्र एवं बाद में उस चित्र के आधार पर कांस्य प्रतिमा बनाने वाले श्रेष्ठतम चित्रकार एवं मूर्तिकार की खोज, और सबसे बड़ा प्रश्न था इस समयबद्ध विशाल यज्ञ को पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधनों की खोज और इस खोज कार्य को राष्ट्र जागरण और राष्ट्रीय एकता की प्रक्रिया में परिणत करना। एकनाथ जी एक साथ सब दिशाओं में सक्रिय हो गये। उन्होंने मुख्यतट पर एक कार्यशाला स्थापित की, विवेकानंदपुरम् नामक विशाल परिसर के लिए भूमि जुटाने का प्रयास शुरू किया।
सबके साथ, सबका साथ
2 सितम्बर, 1970 को शिला स्मारक के विधिवत उद्घाटन के एक मास बाद 8 अक्तूबर, 1970 को दिल्ली में उनसे भेंट होने पर जब मैंने पूछा कि 'एकनाथ जी, इतना बड़ा चमत्कार कर दिखाने के बाद अब आप कैसा अनुभव कर रहे ½éþ?’ तो उनका उत्तर था, 'यह चमत्कार मैंने नहीं, भारत की उस जाग्रत चेतना ने कर दिखाया जो ऊपर से मूर्च्छित-सी प्रतीत होती है, किन्तु जो अंदर ही अंदर बड़ी सशक्त और जीवंत है। आज जब मैं विगत सात वर्षों के तूफानी जीवन पर दृष्टिपात करता हूं तो मुझे स्वयं आश्चर्य होता है कि किस महाशक्ति ने मुझे अपना हस्तक बनाकर मेरे हाथों यह महाकार्य सम्पन्न करा लिया? मुझे तो संघ- कार्य के अलावा किसी अन्य पद्धति से सार्वजनिक कार्य करने का अनुभव नहीं था। स्थापत्य कला, वास्तुकला, प्रचार कला आदि से मेरा दूर का भी संबंध नहीं था। किन्तु इन सात वर्षों में कोई अदृश्य शक्ति मुझे घुमाती रही और मैं घूमता रहा। (पाञ्चजन्य 26 अक्तूबर, 1970)
उन सात वर्षों में एकनाथ जी की कर्मसाधना के एक-एक बिन्दु पर एक लम्बा स्वतंत्र अध्याय लिखा जा सकता है। किन्तु यहां हम केवल एकाध बिन्दु को ही संक्षेप में प्रस्तुत करेंगे। स्मारक निर्माण के आर्थिक पक्ष को ही लें। शिला स्मारक का आर्थिक बजट कन्याकुमारी जिला समिति के 40,000 रुपयों से फैलते-फैलते एक करोड़ पैंतीस लाख रुपयों पर जाकर रुका। यह विशाल धनराशि जुटाना सरल कार्य नहीं था। 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध एवं रुपये के अवमूल्यन के कारण देश गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा था। कभी- कभी अर्थाभाव के कारण कारीगरों को अल्प वेतन भी देना संभव नहीं होता था। ऐसा लगता था कि कारीगरों को बनाये रखना संभव नहीं होगा। किन्तु एकनाथ जी की निस्वार्थ साधना और शिला स्मारक में से प्रस्फुटित अध्यात्म चेतना से प्रेरित होकर कारीगरों ने स्वयं कहा कि हमने अपने परिवार गांवों में भेज दिये हैं, उनकी वहां थोड़ी-बहुत व्यवस्था हो जाएगी, आप यहां हमारे पेट को भरने मात्र की व्यवस्था कर दीजिए, हम काम करते रहेंगे। जब आपके पास धन आ जाए तब हमें दे दीजिएगा। धन संग्रह के अभियान को एकनाथ जी ने राष्ट्रीय यज्ञ का रूप प्रदान कर दिया। उन्होंने राज्य स्तर पर शिला स्मारक समितियों का गठन आरंभ किया, जिनमें उस राज्य में सभी विचारधाराओं के प्रभावशाली प्रतिनिधियों को सम्मिलित करने की कोशिश थी। तमिलनाडु राज्य समिति में द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम के नेता सी.एन.अन्ना दुरै सम्मिलित हुए तो कम्युनिस्ट नेता कल्याण सुंदरम भी एकनाथ जी के आगमन की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे। कम्युनिस्ट नेता ज्योति बसु और वासव पुनैया जैसे कम्युनिस्ट नेताओं ने भी कन्याकुमारी जाकर शिला निर्माण के उद्यम को देखा। एकनाथ जी ने प्रत्येक राज्य सरकार को इस स्मारक के लिए न्यूनतम एक लाख रुपये की राशि देने के लिए मना लिया। नागालैण्ड, सिक्किम जैसे छोटे राज्यों और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला से भी उन्होंने यह राशि प्राप्त की। महाराष्ट्र की राज्य समिति का अध्यक्ष कांग्रेसी नेता एस.के.पाटिल को बनाया तो उत्तर प्रदेश समिति में चन्द्रभानु गुप्त को अपनाया। राज्य और जिला समितियों की निर्माण प्रक्रिया में एकनाथ जी ने भारत की बाहरी विविधता और विखंडित राजनीति के गर्भ में विद्यमान सांस्कृतिक एकता और धर्मनिष्ठा का प्रत्यक्ष साक्षात्कार किया। राज्य सरकारों के साथ एकनाथ जी ने धन संग्रह के लिए देश के बड़े उद्योगपतियों का भी सहयोग प्राप्त किया। सबसे पहले उन्होंने प्रसिद्ध उद्योगपति श्री जुगल किशोर के सामने हाथ फैलाया। उनसे एक लाख रुपये की मांग की। तब उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि एकनाथ जी जैसा अज्ञात और साधारण व्यक्ति इतनी बड़ी योजना को पूरा कर पाएगा। इसलिए एकनाथ जी के बहुत आग्रह करने पर वे प्रारंभ में पचास हजार रुपये देने को ही तैयार हुए, शेष राशि उन्होंने बाद में दी। किन्तु एकनाथ जी धन संग्रह अभियान को केवल राज्य सरकारों एवं धनिक वर्ग तक सीमित नहीं रखना चाहते थे। वे इस स्मारक के निर्माण में जन-जन का सहयोग चाहते थे। वे इसे एक राष्ट्रीय प्रयास के रूप में विश्व के सामने प्रस्तुत करना चाहते थे। इसलिए जनता के बीच जाकर धन संग्रह के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विशाल स्वयंसेवक वर्ग पूरी शक्ति के साथ कूद पड़ा। कर्नाटक प्रांत ने एक और दो रुपये के कूपनों की सहायता से धन संग्रह का रास्ता दिखाया। 25 दिसम्बर, 1966 को मैसूर राज्य समिति ने एकनाथ जी को साढ़े चार लाख रुपये का चेक भेंट करके उनका आर्थिक बोझ हल्का कर दिया। एकनाथ जी ने इस धन संग्रह के लिए इन कूपनों को इतना आकर्षक रूप प्रदान किया कि इन कूपनों को स्मृति चिन्ह की तरह संजोकर रखने की कामना जन-जन के हृदय में जाग्रत हो गयी। स्मारक के लिए एकत्रित एक करोड़ पैंतीस लाख की कुल धनराशि में से 85लाख रुपये इन कूपनों के माध्यम से प्राप्त हुए। अकेले महाराष्ट्र प्रांत से 21 लाख रुपये एकत्र किये गए। पूरे देश में तीस लाख अर्थात एक प्रतिशत लोगों ने इस स्मारक के निर्माण में अपनी आर्थिक आहुति दी।
हर विरोध परास्त
एक ओर स्मारक निर्माण की प्रक्रिया आगे बढ़ रही थी तो दूसरी ओर देश की राजनीति क्षेत्रवाद और जातिवाद के भंवर में धंसती जा रही थी। तमिलनाडु में दक्षिण बनाम उत्तर का विवाद जोर पकड़ रहा था। इन क्षेत्रवादियों ने इस स्मारक के बारे में उत्तर बनाम दक्षिण का विवाद खड़ा करने की कोशिश की, उन्होंने शोर मचाया कि तमिलनाडु में उत्तर भारत के विवेकानंद की प्रतिमा क्यों स्थापित हो और दक्षिण भारत के वंदनीय संत तिरुवल्लुवर की क्यों न हो? इस क्षेत्रवादी आंदोलन से अ.भा.शिला स्मारक समिति के उस समय के तमिलनाडुवासी अध्यक्ष श्री राजन भी प्रभावित हो गए। उन्होंने समिति पर दबाव डाला कि शिला पर विवेकानंद के साथ तिरुवल्लुवर की प्रतिमा भी अवश्य स्थापित होनी चाहिए। एकनाथ जी के सामने भारी धर्मसंकट खड़ा हो गया। एक ओर उन्होंने श्री राजन को त्यागपत्र देने से रोका, दूसरी ओर वे द्रमुक नेता करुणानिधि को शिला पर ले गए। करुणानिधि में कलाकार की दृष्टि है। इस दृष्टि से उन्होंने शिला का सूक्ष्म अवलोकन कर राय दी कि उस शिला पर दो महापुरुषों की प्रतिमाएं स्थापित करना संभव नहीं है। अत: तिरुवल्लुवर की प्रतिमा के लिए कोई दूसरा स्थान खोजना होगा। 1967 के चुनावों में कांग्रेस को हराकर द्रमुक तमिलनाडु में सत्ता में आ गयी थी। द्रमुक के पहले मुख्यमंत्री श्री अन्ना दुरै की मृत्यु के बाद करुणानिधि मुख्यमंत्री बने और इस नाते 2 सितम्बर, 1970 को शिला स्मारक के औपचारिक उद्घाटन कार्यक्रम की उन्होंने अध्यक्षता की। स्मारक का निर्माण हो जाने के पश्चात जब वे उसे देखने आए तो गद्गद् हो गये। बोले, 'मुझे पता ही नहीं था कि मेरे राज्य में स्थापत्य कला का इतना भव्य नमूना खड़ा हो गया ½èþ*’ 2 सितम्बर के उद्घाटन समारोह में बोलते हुए उन्होंने कहा कि 'मैं इस मंच से घोषणा करना चाहता हूं कि मैं, मेरा दल और उसकी सरकार स्वामी जी के जीवन आदर्शों के प्रति पूर्णतया समर्पित है।'
8 अक्तूबर, 1970 को दिल्ली की भेंट वार्ता में जब हमने यह विषय उठाया तो उनका उत्तर था, 'मैं नहीं चाहता कि आज इस कटुता के इतिहास को दोहराकर इस स्मारक के निर्माण से राष्ट्रीय एकता की जो चेतना बढ़ी है, उसे दुर्बल करूं। भेदों का स्मरण करने से भेद बढ़ते हैं। उन्हें भूलने से वे समाप्त होते हैं। बीस-पच्चीस वर्ष के बाद जब इसका केवल ऐतिहासिक महत्व रह जाएगा, तब उसकी गवेषणा करके हम जान सकेंगे कि किस प्रकार क्षुद्र तात्कालिक स्वार्थों के लिए हम लोग बड़े बड़े राष्ट्रीय कार्यों में अड़ंगे खड़े करते रहे हैं। कैसे क्षणिक स्वार्थ मनुष्य की उदात्त प्रेरणाओं पर हावी हो जाते हैं। तब हम उनसे कुछ रचनात्मक निष्कर्ष निकाल सकेंगे, उसी साक्षात्कार में एकनाथ जी ने बताया कि, 'इस संबंध में जिस जिससे जो कुछ वार्ता हुई, पत्र व्यवहार हुआ, गतिविधियां रहीं, वे सब लिपिबद्ध रूप में सुरक्षित हैं। मैंने प्रयत्न किया कि मौखिक वार्तालाप को भी तुरंत लिपिबद्ध कर दूं और इस प्रकार स्मारक निर्माण के एक-एक दिन के इतिहास की मूल सामग्री सुरक्षित है। बीस-पच्चीस वर्ष बाद यदि किसी को ऐतिहासिक गवेषणा का शौक हो तो वह इस सामग्री का उपयोग कर सकता है।' (पाञ्चजन्य 26 अक्तूबर, 1970)
एक संगठक, नीतिज्ञ व योजक की देन
एकनाथ जी के पत्र लेखन और ‘Ê®úEòÉbÇ÷ EòÒË{ÉMÉ’ का अनुभव मुझे तब आया जब शिला स्मारक के उद्घाटन के अवसर पर एकनाथ जी ने 'विश्व संस्कृति एवं चिंतन को भारत का योगदान' शीर्षक से एक बड़ा स्मृति ग्रंथ आयोजित करने के लिए चार सदस्यों के सम्पादक मंडल का अंग बनने का सौभाग्य मुझे प्रदान किया। उस स्मृति ग्रंथ के संबंध में विद्वानों के साथ जो भी पत्राचार होता था, उसकी वे छह प्रतियां तैयार करवाते थे। एक-एक प्रति चारों संपादकों को, एक प्रति अपने यात्रा-कार्यालय और एक प्रति स्मृति ग्रंथ के दिल्ली कार्यालय में भेज दी जाती थी। इस प्रकार उस पत्राचार की एक फाइल मेरे पास आज भी सुरक्षित है। जब उस ग्रंथ का सम्पादन कार्य पूर्ण हो गया और वह मुद्रण की स्थिति में पहुंच गया तो सम्पादक मंडल की बैठक में एकनाथ जी ने पूछा कि इसकी कितनी प्रतियां छापेंगे? संपादक मंडल के अध्यक्ष डा.लोकेश चन्द्र ने उत्तर दिया, 'अधिक से अधिक पांच सौ |ÉÊiɪÉÉÆ*’ एकनाथ जी ने आश्चर्य की मुद्रा में कहा, ‘CªÉÉ इतने वर्षों की यह महंगी दौड़- धूप केवल पांच सौ प्रतियां छापने के लिए हुई। मैं दौरा करके लौटता हूं तब तक आप प्रतीक्षा Eò®åú*’ लौटकर उन्होंने दस हजार प्रतियां छापने का आदेश दिया। उस स्मृति ग्रंथ को सबसे आधुनिक प्रेस में छपाया और उसका मूल्य 1970 में डेढ़ सौ रुपये प्रति रखा। इतना ही नहीं, उस स्मृति ग्रंथ ने प्रत्येक पृष्ठ के नीचे एक पंक्ति का विज्ञापन देने के लिए उद्योगपतियों से दानराशि प्राप्त की। फलस्वरूप वह स्मृति ग्रंथ घाटे का सौदा होने के बजाय स्मारक समिति को कई लाख रुपये की सहायता राशि देने में समर्थ हो गया।
यह सत्य है कि इतने अल्पकाल में इतने भव्य और विशाल स्मारक के निर्माण कार्य में जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के देशव्यापी संगठन का भारी योगदान है, वहीं यह संगठन शक्ति भी एकनाथ जी की कल्पना शक्ति, नीतिमत्ता और योजना कुशलता के बिना सफल नहीं हो पाती। एकनाथ जी की योजना-कुशलता का परिचय शिला स्मारक के उद्घाटन समारोह के आयोजन में भी प्रगट हुआ। निर्माण कार्य की प्रक्रिया में इस शिला स्मारक का देश भर में प्रचार हो चुका था, वह असंख्य लोगों की भावनाओं से जुड़ गया था, अत: राष्ट्रपति द्वारा उसके उद्घाटन समारोह में देश भर से हजारों लोगों के पहुंचने की संभावना थी। एकनाथ जी स्वयं भी चाहते थे कि राज्य व जिला स्मारक समितियों के सब सदस्य उसे अपनी आंखों से देख लें। किंतु कन्याकुमारी में इतनी बड़ी संख्या को एक साथ समाने का सामर्थ्य ही नहीं था। उन दिनों कन्याकुमारी की जनसंख्या केवल 7000 थी। बाहर के यात्रियों को ठहराने के लिए होटल, विश्रामगृह या धर्मशालाओं का पूर्ण अभाव था। अत: एकनाथ जी ने योजना बनाई कि उद्घाटन समारोह पूरे दो महीने चलेगा। प्रत्येक क्षेत्र के लिए अलग-अलग दिन निर्धारित कर दिये और इन दो महीनों में देश के महत्वपूर्ण व्यक्तियों के कन्याकुमारी आगमन का भी एक सुनिश्चित कार्यक्रम तैयार कर लिया। इस प्रकार कन्याकुमारी के सीमित साधनों के भीतर लाखों देशवासियों के स्मारक दर्शन की रूपरेखा तैयार कर दी।
सबसे बड़ी बात यह है कि एकनाथ जी की कल्पना की उड़ान केवल पत्थर के स्मारक निर्माण तक सीमित नहीं थी। वे इस स्मारक के माध्यम से रामकृष्ण मिशन के संन्यासी मिशन के पूरक के रूप में विवेकानंद जी के नाम पर एक गैरसंन्यासी समाजसेवियों की श्रृंखला खड़ी करने की योजना अपने मन में बनाने लगे। यही योजना 9 जनवरी, 1972 में विवेकानंद केन्द्र के नाम से प्रकाश में आयी। एकनाथ जी की इस योजना की सफलता-असफलता का विस्तृत विवेचन फिर कभी।
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