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Jan 19, 2013, 12:00 am IST
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आध्यात्मिक भी, प्रगतिशील भी

दिंनाक: 19 Jan 2013 09:43:00

 बालेन्दु शर्मा 'दाधीच'

उठो! जागो! और तब तक मत रुको जब तक कि लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता।' स्वामी विवेकानंद का सर्वाधिक प्रसिद्ध उद्धरण है यह। जितनी बार भी पढ़ें, दस-बारह शब्दों का यह छोटा सा वाक्य हर बार आपको जोश और ऊर्जा से भर देता है और इसीलिए युवाओं के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय उद्धरणों में शामिल है यह। विवेकानंद भारत की धार्मिक-सांस्कृतिक परंपरा के उन चुनिंदा महापुरुषों में से एक हैं, जो समाज के लिए श्रद्धा के पात्र होने के साथ-साथ युवाओं के लिए 'रोल मॉडल' बन गए। धर्म-संस्कृति और परंपरा के बारे में गहरी अंतरदृष्टि रखने वाले स्वामीजी किस तरह अपने समय, परिवेश और पृष्ठभूमि से बहुत आगे तक सोच सके वह कौतूहल का विषय तो है ही, उनकी बेमिसाल मेधा और दूरदृष्टि को भी जाहिर करता है।

परम्परा–आधुनिकता का तालमेल

विवेकानंद अकेले आध्यात्मिक महापुरुष हैं जो यह मानने पर मजबूर करते हैं कि परंपरा और आधुनिकता के बीच तालमेल संभव है।  धर्म-संस्कार और तरक्की के बीच वैसा विरोधाभास नहीं है, जैसा बहुत से लोग मानते हैं। संभव है यह धारणा रखने वालों ने धर्म के मर्म को न समझा हो। अच्छे बनो और अच्छा करो, यही धर्म है।

डेढ़ सौ साल पहले कोलकाता में नरेंद्र नाथ दत्त के रूप में जन्म लेने वाले स्वामी विवेकानंद की सोच, उनका दर्शन और धार्मिक व्याख्याएं चौंकाने की हद तक आधुनिक और स्पष्ट हैं। इक्कीसवीं सदी के भौतिकतावादी, अर्थ-प्रधान, पेशेवराना माहौल में उनको पढ़ना उस तरह असहज नहीं लगता जैसे सौ-दो सौ साल पुराने दौर के दूसरे धार्मिक व्यक्तित्वों का अध्ययन लगता है। पृष्ठभूमि धार्मिक होते हुए भी उनकी सोच प्रगतिशील और भविष्य की ओर देखने वाली है। प्रासंगिक तो वे हैं ही, सूचना प्रौद्योगिकी से लेकर राजनीति और कारोबार से लेकर विज्ञान के क्षेत्र में सक्रिय युवा को भी वे पंक्तियां बहुत कुछ सिखाएंगी जिन्हें स्वामी जी ने सौ-सवा सौ साल पहले लिखा या बोला था। स्वामी विवेकानंद के धार्मिक और सामाजिक पक्ष पर बहुत लिखा गया है। लेकिन अपने व्याख्यानों, धार्मिक चर्चाओं और लेखन के दौरान जिस तरह वे नेतृत्व क्षमता, नवाचार (इनोवेशन), प्रबंधन, सफलता और वैज्ञानिक सोच के पाठ पढ़ा गए, उन्हें जानना जरूरी है। स्वामी जी की कई शिक्षाएं बड़े बिजनेस स्कूलों में पढ़ाने वाले आधुनिक मैनेजमेंट गुरुओं की याद दिला देती हैं। किसी आध्यात्मिक, दार्शनिक व्यक्तित्व में इस तरह का पहलू अद्भुत ही नहीं, दुर्लभ भी है।

युवाओं की राजनीति करने वाले राहुल गांधी, अखिलेश यादव और दूसरे नेताओं को भारत की जमीनी हकीकतों को जानने के लिए विवेकानंद की जीवन दृष्टि को समझना चाहिए। जून 1894 में मैसूर के महाराजा को लिखे पत्र में उन्होंने लिखा था कि 'भारत में बुराइयों की जड़ गरीबों की हालत में निहित है। हमारे निम्न वर्गों को ऊपर उठाने के लिए सबसे जरूरी है उन्हें शिक्षित करना और उनकी खोई हुई निजता को बहाल करना। धार्मिक-राजनीतिक ताकतों और विदेशी राजसत्ता ने सदियों से उनका इतना दमन किया है कि भारत के गरीब भूल गए हैं कि वे भी इंसान हैं।' अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार जीतने वाले अमर्त्य सेन शिक्षा के बारे में स्वामीजी के विचार से परोक्ष सहमति जताते हैं- 'भारतीय अर्थव्यवस्था छह-सात, यहां तक कि 8-9 फीसदी की सालाना दर से भी विकसित हो सकती है। लेकिन उदारीकरण का लाभ तब तक आम लोगों से दूर ही रहेगा जब तक कि उन्हें बुनियादी शिक्षा मुहैया नहीं कराई जाती। आधारभूत स्तर पर मजबूत शिक्षा तंत्र के बिना भारत के लिए उदारीकरण की रफ्तार के साथ तालमेल बिठाना मुश्किल होगा।' दोनों बयानों की तारीखों में सौ साल से भी अधिक का अंतर है। दोनों के संदर्भ अलग-अलग हैं, लेकिन संदेश एक, जिसे स्वामी जी ने अपनी दूरदृष्टि से इतना पहले परख लिया था।

नेतृत्व की सार्थकता

नेतृत्व क्या है? उसकी सार्थकता क्या है यदि वह आम आदमी के जीवन को बेहतर न बना सके? स्वामी जी का हर शब्द समाज में दिखती विषम परिस्थितियों का प्रतिकार करता प्रतीत होता है- 'जब तक करोड़ों लोग गरीबी और असहाय स्थिति में हैं, मैं ऐसे हर शख्स को गद्दार मानकर चलता हूं जिसने उनकी कीमत पर शिक्षा पाई लेकिन उनकी न्यूनतम सुध भी नहीं ली'। इतने प्रबल विचारों वाला व्यक्ति संन्यासी न होता तो क्या होता? शायद एक महान क्रांतिकारी, अद्भुत नेता, विलक्षण 'स्टेट्समैन'! नए दौर के नेता उनसे नेतृत्व का ककहरा सीख सकते हैं।

अपने समय की वास्तविकताओं की समझ रखे बिना कोई नेतृत्व सार्थकता प्राप्त नहीं कर सकता। भारत की आधी आबादी युवाओं की है और इतनी बड़ी शक्ति की बदौलत किसी भी देश का कायाकल्प संभव है। लेकिन तभी जब इन युवाओं के सामने स्पष्ट उद्देश्य तथा दिशा मौजूद हो और उन्हें अपने दायित्वों का अहसास हो। स्वामी जी युवकों के आदर्श इसलिए बने क्योंकि उन्होंने उन्हें यही उद्देश्यपरकता प्रदान की। व्यक्ति, राष्ट्र, विश्व और धर्म के संदर्भ में उनकी प्राथमिकताएं इतनी स्पष्ट थीं कि लगता है वे कोई समाजशास्त्री हों। स्वामी जी ने कहा- 'व्यावहारिक देशभक्ति सिर्फ एक भावना या मातृभूमि के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है। देशभक्ति का अर्थ है अपने साथी देशवासियों की सेवा करने का जज्बा।' किंतु वे मन से एक विश्व मानव थे, जिनकी आकांक्षा पूरे विश्व को एक परिवार के रूप में देखने की थी। यह स्वामी जी की यात्राओं से भी स्पष्ट है जो हिंदुत्व के प्रति समझबूझ का प्रसार करने के लिए तो थी हीं, वैश्विकता के अन्वेषक के रूप में भी थीं। देशभक्ति और वैश्विकता के बीच भी उनके विचारों में कहीं कोई भ्रम नहीं दिखता- 'आवश्यकता पड़े तो उस एक भावना के लिए हर चीज का बलिदान कर देना चाहिए, जिसे वैश्विकता कहते हैं।' राष्ट्र और विश्व के संदर्भ में उनके अलग-अलग, किंतु बहुत स्पष्ट विचार थे।

सूचना प्रौद्योगिकी की प्रधानता के युग में भौगोलिक सीमाएं धूमिल होती चली जा रही हैं। स्वामी विवेकानंद तो प्रकृति से ही अन्वेषक थे और दूसरों के प्रति खुले विचार रखते थे। आईटी, सेवा उद्योग, आयात-निर्यात और पर्यटन जैसे क्षेत्रों को ध्यान में रखें तो उनका यह कथन कितना प्रासंगिक लगता है- 'हमें यात्रा अवश्य करनी चाहिए, हमें विदेशी भूमियों पर जाना चाहिए। हमें देखना चाहिए कि दूसरे देशों में सामाजिक तौर-तरीके और परिपाटियां क्या हैं। दूसरे देश किस दिशा में सोच रहे हैं, यह जानने के लिए हमें उनके साथ मुक्त और खुले संवाद से झिझकना नहीं चाहिए।' आपको याद होगा कि जब गांधीजी विदेश जा रहे थे तो परिवार में इसका विरोध हुआ था। जयपुर के महाराजा तो जब लंदन गए तब गंगा जल से भरे चांदी के दो विशाल कलश साथ लेकर गए थे ताकि विदेशी पानी पीकर भ्रष्ट न हों। लेकिन अपने समय की सोच से कितने आगे थे स्वामी विवेकानंद!

नए दौर के युवकों को शायद विश्वास न हो कि विज्ञान से कोई सीधा संबंध न रखने वाले विवेकानन्द युवकों से कहा करते थे कि- 'कोई विचार (आइडिया) लो और फिर उसी को अपने जीवन का मकसद बना लो। उसी का सपना देखो, उसी को जियो। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नाड़ियों और शरीर के हर भाग को उस विचार से भर लो। दूसरे सभी विचारों को अलग छोड़ दो। सफलता का यही रास्ता है और इसी रास्ते ने महान आध्यात्मिक विभूतियों को जन्म दिया है। बाकी सब तो बात करती हुई मशीनें मात्र हैं।' कितने शक्तिशाली और अद्भुत विचार हैं! क्या ऐसे विचारों की प्रासंगिकता कभी भी समाप्त हो सकती है? हर सफल इंसान, हर कामयाब हस्ती इसकी सार्थकता की निशानदेही करेगी। मानव मस्तिष्क अपरिमित शक्तियों से भरा है और उससे उद्भूत एक अनूठा विचार, एक नई अवधारणा कालविभाजक परिवर्तनों का माध्यम बन सकती है। आखिरकार गांधी जी का 'भारत छोड़ो' एक विचार ही तो था और 'स्वदेशी' भी। 'चांद पर मानव' को भेजने का जॉन एफ. कैनेडी का सपना हो या फिर मिस्र की जनक्रांति, सब एक विचार से ही शुरू होते हैं। एक अण्णा हजारे 'जन लोकपाल' के शक्तिशाली विचार को लेकर आते हैं और छा जाते हैं।

आध्यात्मिक व्यक्तित्वों के संदर्भ में विचार की जिस शक्ति की ओर स्वामी विवेकानंद इशारा करते हैं वह विज्ञान, कारोबार, मनोरंजन, रचनाकर्म और राजनीति जैसे क्षेत्रों का भी कायाकल्प करने में सक्षम है। लेकिन तभी, जब उसके प्रति एकमेव समर्पण मौजूद हो। नैपोलियन ने कहा था- 'विजयश्री उसी को मिलती है जो डटा रहता है'। स्वामी जी तो कहते ही हैं कि 'महान उपलब्धियों का मार्ग सदा ही कांटों से भरा होता है। लेकिन इन कष्टों से जूझना सार्थक है क्योंकि दुनिया में सफल ही अपनी छाप छोड़ पाते हैं और यही लोग याद रखे जाते हैं।' स्वामी जी ने एक स्थान पर लिखा है कि 'विश्व का उपभोग नायक ही करते हैं- यह एक अडिग सत्य है। एक नायक बनो और हमेशा कहो- मुझे कोई डर नहीं है। कड़ी मेहनत और संकल्प से ही सफलता प्राप्त होती है'। तो क्या यदि सफलता की राह में आप बार-बार नाकाम हो जाएं। 'अपने लक्ष्य को एक हजार बार सामने रखकर चलो। अगर तुम एक हजार बार परास्त हो जाते हो तो एक बार फिर प्रयास करो'। एक आध्यात्मिक व्यक्तित्व होकर भी वे समाज से कटे हुए नहीं थे। उसके प्रति अपने दायित्वों से विमुख नहीं थे। उसकी विसंगतियां, पिछड़ापन और चारों तरफ फैले दु:ख-दर्द उन्हें व्यथित करते थे लेकिन यह व्यथा हताशा नहीं थी। देश के समाज-राजनीतिक हालात में बदलाव जरूरी है, यह वे जानते थे और इसके लिए युवाओं में आवश्यक संकल्प भरने के लिए उन्होंने अपने प्रबल विचारों का प्रयोग किया। चाहे आप देश के लिए कुछ करना चाहते हों, अपने संगठन के लिए या फिर खुद ही तरक्की के 'फार्मूले' की तलाश में हों, स्वामी विवेकानंद के शब्द आपका मार्गदर्शन अवश्य करेंगे।

विवेकानंद युवाओं को अपील करते हैं क्योंकि वे धर्म का पुरातनपंथी चेहरा सामने नहीं रखते, बल्कि उसमें एक प्रगतिशील उद्वेलन पैदा करने वाली शक्ति के रूप में सामने आते हैं। प्रबंधन से जुड़े अहम सिद्धांत वे बातों ही बातों में सिखा जाते हैं, जैसे- अनुभव सबसे बड़ा शिक्षक है। या विश्व का इतिहास उन चंद लोगों का इतिहास है, जिन्हें अपने आप में विश्वास था।

धर्म को उन्होंने संस्कारों से जोड़कर देखा और उसके बारे में फैले भ्रमों को दूर करने में अपने जीवन का बड़ा भाग लगा दिया। वे नहीं चाहते थे कि आंख मूंदकर कोई भी बात स्वीकार कर ली जाए, भले ही वह धार्मिक ग्रंथों में ही क्यों न लिखी हो। उन्होंने आध्यात्मिक अवधारणाओं की व्याख्याएं उन प्रबल, सरल किंतु तर्कपूर्ण शब्दों में कीं जो वैज्ञानिक दृष्टि से सोचने वालों को समझ में आते थे। वे एक वैज्ञानिक की तरह तर्क-वितर्क, शोध, मनन और विश्लेषण के बाद तथ्यों को स्वीकार करने वाले थे और यह नियम दूसरों पर भी लागू करते थे।

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