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सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति को हरी झंडी दिए जाने के बाद राज्य सरकार का यह कहना कि वह सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को जल्द लागू करेगी, मोदी सरकार की मंशा को साफ कर देता है कि वह राज्य में लोकायुक्त की नियुक्ति के विरुद्ध नहीं थी, बल्कि जिस तरह राज्यपाल ने राज्य मंत्रिमंडल से सलाह–मशविरा किए बिना लोकायुक्त की नियुक्ति की घोषणा कर दी, उस दुर्भावनापूर्ण मनमानी पर उसे आपत्ति थी। सर्वोच्च न्यायालय ने भी राज्यपाल के इस कदम को संविधान की भावना के प्रतिकूल मानते हुए कहा है कि राज्य सरकार की सलाह के बगैर लोकायुक्त की नियुक्ति कर राज्यपाल ने अपने भूमिका को समझने में चूक की। राज्यपाल को मंत्रिमंडल की सलाह से काम करना चाहिए था। हालांकि गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सलाह से नियुक्ति किए जाने को सर्वोच्च न्यायालय ने उचित ठहराया है। इसे यदि सेकुलर मीडिया, कांग्रेस और कथित मानवाधिकारवादी, जो नरेन्द्र मोदी को कोसने का कोई मौका नहीं चूकते, मोदी को 'तगड़ा झटका' मान रहे हैं तो यह मोदी की गुजरात विधानसभा चुनावों में तीसरी बार शानदार जीत से उपजी उनकी बौखलाहट ही है, जिसे वह 'तगड़े झटके' के रूप में दुष्प्रचारित कर रहे हैं कि मानो मोदी लोकायुक्त की नियुक्ति के ही खिलाफ थे। कांग्रेस तो इस फैसले को आधार बनाकर कह रही है कि भाजपा की भ्रष्टाचार से मुकाबला करने में कोई दिलचस्पी नहीं है।
भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी संप्रग सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस किस मुंह से ऐसा कह रही है? वस्तुत: वह अपनी राजनीतिक कुटिलता व विद्वेषपूर्ण राजनीतिक सोच पर पर्दा डालने के लिए ऐसा कह रही है, क्योंकि कांग्रेस का इतिहास राज्यपाल पद का दुरुपयोग कर अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने का रहा है। कर्नाटक में राज्यपाल के सहारे कांग्रेस ने भाजपा सरकार को अस्थिर करने के कितने प्रयास किए, यह उसका सबसे ताजा उदाहरण है। वहां तो राज्यपाल ने एक सप्ताह के भीतर दो बार राज्य सरकार से विश्वास मत साबित करवाया और सारी संवैधानिक मान्यताओं को धता बता दी। भारत की स्वातंत्र्योत्तर राजनीति का इतिहास कांग्रेस की ऐसी अलोकतांत्रिक व असंवैधानिक करतूतों से भरा पड़ा है। कांग्रेस सवाल खड़ा कर रही है कि मोदी सरकार लोकायुक्त की नियुक्ति का विरोध क्यों कर रही थी? जबकि लोकायुक्त न्यायमूर्ति आर.ए.मेहता मोदी सरकार के रवैये को लोकायुक्त के कामकाज में बाधा नहीं मान रहे हैं। क्योंकि वास्तव में मोदी सरकार की मंशा लोकायुक्त की नियुक्ति के खिलाफ नहीं थी, बल्कि राज्य सरकार की असंवैधानिक अनदेखी कर राज्यपाल द्वारा मनमाने तरीके से यह नियुक्ति किए जाने के खिलाफ थी, जो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से भी साफ हो गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने तो गुजरात उच्च न्यायालय की उस टिप्पणी पर भी नाराजगी जताई है जिसमें राज्यपाल के फैसले के विरुद्ध राज्य सरकार के उच्च न्यायालय में जाने को द्वेषपूर्ण कृत्य और संविधान को संकट पहुंचाने वाला कदम बताया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि अदालतों को गंभीरता व संयम का परिचय देना चाहिए और न्यायाधीशों को किसी के भी खिलाफ सख्त व चुभने वाली बातें तथा प्रतिष्ठा को हानि पहुंचाने वाली टिप्पणियां नहीं करनी चाहिए। जाहिर है मोदी सरकार ने इस नियुक्ति को लेकर जो तर्क दिया था, सर्वोच्च न्यायालय ने उन तकर्ों को खारिज नहीं किया है, तब 'झटके' वाली बात कहां से आ गई? वास्तव में कांग्रेस और उसके इशारे पर नाचने वाले तीस्ता सीतलवाड़ जैसे सेकुलर व कथित मानवाधिकारवादी मोदी की जबर्दस्त जीत को पचा नहीं पा रहे और एक बार फिर उनके विरुद्ध दुष्प्रचार में जुट गए हैं।
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