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प्रिय बच्चो!
तेज बफर्ीली हवाएं, कड़ाके की ठण्ड में तुम तो कोट, पैन्ट, स्वेटर, टोपे, मोजे दस्तानों से अपने को ढके रहते हो। रजाई-कम्बल में घुसे रहते हो। आग तापते हो, हीटर या वातानुकूलित कमरों में आराम फरमाते रहते हो। चाय काफी पीते रहते हो। पर क्या तुम्हें मालूम है कि इस कड़ाके की सर्दी में पशु-पक्षी, कीट अपनी रक्षा कैसे करते हैं? अगर तुम्हें विज्ञान में रुचि है तो तुम्हें मालूम होगा कि मेढक, सांप, कछुए, छिपकली, बीम, केंचुए, कुछ मछलियां, जमीन के अन्दर घुसकर शीत निन्द्रा में चली जाती हैं और सर्दियां खत्म होने पर इनकी नींद खुलती है। केंचुआ 5-7 फुट जमीन के नीचे जाकर सोता है। काला भालू भी गुफा में जाड़े भर सोता रहता है। शीत निन्द्रा लेने से पहले ये जीव भर पेट खा-पी लेते हैं और शरीर में वसा जमा कर लेते हैं। इसी तरह कीट पेड़ों की छालों के नीचे तथा छिपकलियां मकान की दराजों में जाकर सो जाती हैं। वैज्ञानिक भाषा में इस क्रिया को 'हाइबरनेशन' कहा जाता है।
कुछ पक्षी तो सर्दियों से अनुकूलन करके सर्दी में बने रहते हैं किन्तु कुछ पक्षी अधिक सर्दी वाले इलाकों से उड़कर कम शीत वाले क्षेत्रों में आ जाते हैं। इनमें खंजन, कोयल, साइबेरियन सारस, जांघिल आदि हजारों मील से उड़कर भारत आते हैं। उत्तरी ध्रुव में पाई जाने वाली चिड़िया आर्कटिक टर्न तो शीत शुरू होते ही उड़ चलती है और आधी पृथ्वी पार कर दक्षिण ध्रुव में रहती है। चमगादड़, कैरिबू भी कम सर्दी वाले प्रदेशों में चले जाते हैं। उत्तरी अमरीका में पाई जाने वाली कुछ तितलियां तो उड़कर मैक्सिको चली जाती हैं। कुछ पक्षी अपने खून को जाड़ों में गर्म व सर्दियों में ठण्डा करके मौसम की मार से बचते हैं। इनके पंजों के रोएं व बाल भी इन्हें सर्दी से बचाते हैं। इसे उत्प्रवास (माइग्रेशन) तथा अनुकूलन (एडाप्टेशन) कहते हैं। छछूंदर, ऊदबिलाव, खरगोश आदि बिलों में अपने खाने का पर्याप्त सामान जमाकर सर्दियों भर दुबके रहते हैं। भेंड़ों, बकरियों के लम्बे घने बाल उनके लिए कम्बल का काम करते हैं तो कुत्ते, लोमड़ियां तथा बन्दर ठिठुरते रहते हैं। सियार- हुआ-हुआ, लोमड़ी- खो-खो-खो-खो तथा कुत्ते- कूं कूं कर शीत की रात बिताते हैं। हरदम धमाचौकड़ी मचाने वाली गिलहरी अपने गुदड़नुमा घोंसले में दुबकी रहती है और धूप निकलने पर धूप सेंकने बाहर निकलती है। पेड़-पौधों व फूलों को भी सर्दी लगती है। पाला या बर्फ पड़ने पर पौधे सूख जाते हैं व फूल मुरझाने लगते हैं। शिवचरण चौहान
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