प्रेरक कहानीएक कुत्ते का स्वर्गारोहण
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प्रेरक कहानीएक कुत्ते का स्वर्गारोहण

by
Jan 5, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Jan 2013 16:05:27

युधिष्ठिर एक प्रतापी राजा और महान व्यक्ति थे। वे मनुष्यों और जानवरों को प्यार करते थे। उनके हृदय में सबके लिए अपार प्रेम था।

एक दिन युधिष्ठिर ने कुछ समाचार सुना, जिसने उन्हें बहुत उदास कर दिया- परम गुरु श्री कृष्ण ने लीला संवरण कर ली।

युधिष्ठिर ने बहुत दु:खित होकर कहा, 'कृष्ण मेरे सच्चे मित्र थे। उन्होंने सदा ही मुझे सही सलाह और सहायता दी। उनकी वाणी ज्ञान से परिपूर्ण रहती थी। कृष्ण संसार में नहीं हैं, मैं भी संसार में रहना नहीं चाहता। यदि कृष्ण स्वर्ग सिधार गये तो मैं भी स्वर्ग चला जाऊंगा।'

ऐसा निर्णय कर वे स्वर्ग की लम्बी और कठिन यात्रा पर चल पड़े। उनके साथ, उनके चारों भाई- भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव एवं पांचों भाइयों की पत्नी द्रौपदी भी चल पड़ी।

युधिष्ठिर का एक कुत्ता था, जो सब जगह युधिष्ठिर के साथ जाया करता था। अत: स्वर्ग के रास्ते पर भी वह युधिष्ठिर के पीछे-पीछे चल पड़ा।

युधिष्ठिर ने कुत्ते से कहा, 'तुम घर जाओ, हम सब लम्बी यात्रा पर जा रहे हैं। रास्ता ऊबड़-खाबड़ है। तुम थक जाओगे, अत: तुम वापस घर चले जाओ।'

कुत्ता चुपचाप खड़ा-खड़ा युधिष्ठिर को देखता रहा। युधिष्ठिर ने पुन: चलना प्रारंभ किया। कुत्ता भी उनके साथ-साथ जाने लगा।

रास्ता पहाड़ों पर से होकर जाता था और पथरीला और कठिन था। सब तरफ बर्फ ही बर्फ होने के कारण ठण्डक भी थी। हवा भी मानो सर्दी से नम हो गयी थी। युधिष्ठिर आगे बढ़ते ही गये, और वह कुत्ता भी लगातार उनके पीछे चलता ही गया।

वे दोनों पहाड़ के ऊंचे-नीचे बफर्ीले रास्तों पर चलते-चलते अन्त में मेरू पर्वत की घाटी में पहुंच गये। मेरू पर्वत की ऊंची चोटी पर उनके समक्ष ब्राह्म का नगर था। वहां गंगा नदी शहर के चारों ओर वृत्ताकार रूप में बह रही थी। युधिष्ठिर और उस कुत्ते ने उस पवित्र स्थान से आने वाली घण्टा ध्वनि को सुना। उन दोनों पर स्वर्ग से पुष्प-वृष्टि होने लगी।

अचानक एक गंभीर आवाज और तेज प्रकाश के साथ इन्द्र वहां आ विराजे। उन्होंने कहा, 'मैं तुम्हें अपने रथ पर स्वर्ग ले जाने आया हूं। आओ रथ पर चढ़ो। तुम ही एक व्यक्ति हो जिसे मैंने मनुष्य देह में ही स्वर्ग जाने की अनुमति प्रदान की है। बस रथ पर आ जाओ।'

युधिष्ठिर ने पूछा, 'मेरे भाई कहां हैं? मेरी रानी कहां है? रास्ते में उनकी मृत्यु होने के कारण मुझे उन्हें छोड़ देना पड़ा। पर वे हैं कहां? उनके बिना मैं स्वर्ग नहीं जा सकता।'

इन्द्र ने उत्तर दिया, 'वे तो पहले ही स्वर्ग पहुंच गये हैं। उनकी चिन्ता तुम्हें नहीं करनी होगी। वे तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।'

युधिष्ठिर ने आतुरता से पूछा, 'और कृष्ण? कृष्ण कहां हैं? क्या वे स्वर्ग में हैं?'

इन्द्र ने कहा, 'हां वे भी हैं। जिन्हें तुम प्यार करते हो वे सभी वहां तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।'

'सच! तब तो मैं अभी तुम्हारे साथ चलता हूं।' ऐसा कह कर युधिष्ठिर ने नीचे की ओर देखा और कुत्ते से कहा, 'चलो बेटा! तुम भी मेरे रथ पर चढ़ो।'

इन्द्र ने आक्रोश से कहा, 'क्या? एक कुत्ता मेरे रथ पर चढ़ेगा? एक कुत्ता स्वर्ग जायेगा? नहीं! स्वर्ग में कुत्तों के लिए कोई स्थान नहीं है। तुम उसे यहीं छोड़ कर मेरे रथ पर चढ़ो।'

युधिष्ठिर ने दृढ़ता से कहा, 'यह मैं कदापि नहीं कर सकता। इस भयंकर रास्ते पर खाइयों, गड्ढों में बफर्ीली चट्टानों पर केवल यही मेरा ईमानदार साथी रहा। मेरे भाई एक-एक करके मुझे छोड़ कर चले गये। मेरी पत्नी भी मुझे छोड़ गयी, पर इसने मेरा साथ नहीं छोड़ा। मैं उसकी आंखों में अपने प्रति प्यार देख रहा हूं, फिर मैं कैसे उसे अकेला छोड़ सकता हूं?'

'मैं उसके बिना स्वर्ग नहीं जाऊंगा', युधिष्ठिर ने बड़ी स्थिरता से जवाब दिया, 'वह मुझ पर ही आश्रित है, इसलिए जब तक मैं जीवित हूं, मैं उसकी देख-भाल करूंगा। मैं जो उचित होगा वही करूंगा, और उसे अभी छोड़ देना मेरे लिए उचित नहीं है। इन्द्र, मैं तुम्हें प्रसन्न करने के लिए भी उसे पीछे नहीं छोड़ सकता।'

इन्द्र ने कहा, 'एक क्षण के लिए फिर विचार कर लो, वह एक मांसाहारी कुत्ता है, क्या वह पापी नहीं है? वह एक दुष्ट कुत्ता है और वह नरक में जायेगा। हां, तुम तो स्वर्ग में जाओगे, परन्तु वह नर्क में ही जायेगा।'

'मैं उसके बिना स्वर्ग में नहीं जाऊंगा,' युधिष्ठिर ने दुबारा कहा।

'अच्छा ठीक है,' इन्द्र ने विचार करके उत्तर दिया। 'तुम उसे अपने साथ स्वर्ग में नहीं ले जा सकते परन्तु यदि तुम चाहो तो उसे अपने बदले स्वर्ग में भेज सकते हो, पर फिर तुम्हें नरक में जाना पड़ेगा।'

'मंजूर है,' युधिष्ठिर खुश होकर बोला। 'कुत्ते को स्वर्ग में ले जाइये, मैं नरक में चला जाऊंगा।'

जैसे ही युधिष्ठिर ने ये शब्द कहे, वैसे ही कुत्ते ने अचानक अपना स्वरूप बदल लिया। वह धर्म था, जो हमेशा उचित कर्म ही करता था।

धर्म ने कहा, 'राजन, तुम महान हो, तुम वास्तव में नि:स्वार्थी हो। तुम मनुष्य और पशु को समान भाव से स्नेह करते हो। तुम्हारा हृदय सबके लिये प्रेम से परिपूर्ण है।' (साभार:विवेकानन्द की मनोरम कहानियां)

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