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दिल्ली की हड्डियों को कंपकंपाती ठंड के बावजूद प्रदर्शनकारियों का हौसला पस्त नहीं हुआ है। एक 23 वर्षीय छात्रा का बर्बरतापूर्वक शील भंग किए जाने के बाद उसकी मृत्यु ने जो असह्य दर्द देशवासियों के दिलों में भर दिया है, उससे उपजे आक्रोश की ऊष्मा उन्हें ताकत दे रही है, जंतर-मंतर पर अभी भी उनकी उपस्थिति सिर्फ दावे करने और जनभावनाओं से खिलवाड़ करने वाली संवेदनहीन सरकार के सामने एक बड़ा सवाल बनकर खड़ी है कि आखिर सीता-सावित्री के इस देश में, जहां नारी भोग्या नहीं, पूज्या मानी जाती रही, कब तक उसके साथ ऐसी दरिंदगी होती रहेगी और कब तक लचर कानून-व्यवस्था व शासन-प्रशासन की उदासीनता के चलते उनके सपनों को विकृत मानसिकता वाले मनचलों द्वारा निर्ममतापूर्वक रौंदा जाता रहेगा? यह दर्द एक तूफान बनकर हर देशवासी, क्या वकील, क्या छात्र, क्या गृहणियां, क्या बच्चे, क्या नौकरीपेशा, क्या आमजन सभी को बेचैन किए हुए है। एक प्रदर्शनकारी छात्रा भावना, जो पहले दिन से ही प्रदर्शन में शामिल है, कहती है कि आज (3 जनवरी) ठंड के बाद भी लोगों की बढ़ती संख्या को देखकर लग रहा है कि हम अपने उद्देश्यों में सफल होंगे। सोशल नेटवर्क साइटों पर लगातार यह अभियान जोर पकड़ रहा है, फेसबुक पर तो 'क्रांति' नाम से एक अलग पेज बना दिया गया है। इस बेचैनी का सर्वोच्च न्यायालय ने भी संज्ञान लिया है और केन्द्र व राज्य सरकारों को महिलाओं को सुरक्षा दिए जाने के प्रबंधों की जानकारी चार सप्ताह के अंदर देने को कहा है। यही वह बेचैनी है जिसके कारण पुणे से देवाधिदेव महादेव के दर्शन करने काशी आए हजारों तीर्थयात्री भी गंगाघाट पर उस युवती को श्रद्धांजलि देते हुए एक साथ मोमबत्तियां जलाकर अपनी मंगलकामनाएं भूल उसके दर्द से जुड़ जाते हैं और चाहते हैं कि यह रोशनी उस अंधकार को चीर दे जो काली छाया बनकर हर वक्त, हर जगह अबोध बच्चियों से लेकर युवतियों व महिलाओं के सिर पर खतरा बनकर मंडराती रहती है।
अनुत्तरित न रहें सवाल
यह उसी दर्द की छटपटाहट है कि एक प्रदर्शनकारी नौकरीपेशा युवती मनीषा कहती है कि मैं पहले दिन से ही प्रदर्शन में शामिल हूं और आगे भी रहूंगी। अगर सरकार को लगता है कि वह हमें रोक सकती है तो वह गलत है। ऐसे युवाओं की कतार लम्बी है, उनका हौसला जबर्दस्त है, लेकिन उन्हें पूरे समाज व सरकार का साथ चाहिए ताकि उनके मन को मथ रहे सवाल अनुत्तरित न रहें। दिल्ली के तिलकनगर के मनमोहन का यह आक्रोश भी जवाब चाहता है कि प्रदर्शनकारी महिलाओं पर बिना किसी वजह के लाठियां चलाई जाती हैं और उसके बाद इन्हें ही उपद्रवी समझा जाता है। यह सिर्फ इसी देश में हो सकता है। एक और प्रदर्शनकारी छात्र सलिल का यह कहना कि, हमें इस मामले पर कड़े कानून चाहिए और हम बगैर इसके नहीं रुकने वाले। पुलिस चाहे जो करे, हम अपनी मां-बहन-बेटियों को सुरक्षित माहौल देकर ही रहेंगे, उस संकल्प की लौ की तपिश का अहसास कराता है जो आज देश के करोड़ों युवाओं के दिलों में है, दिल्ली से लेकर मणिपुर तक और लखनऊ से लेकर मुम्बई तक। यह वह वक्त है जब हमें उस कुत्सित और वीभत्स मानसिकता पर कड़ा प्रहार करना पड़ेगा जो स्त्रियों को अपने छद्म मोहजाल में फंसाने या जबरन भोग की वस्तु समझती है। घर-परिवार और विद्यालयों में स्त्री सम्मान के ऐसे संस्कारों व विचारों की पौध रोपनी होगी जिससे ऐसी मानसिकता पनप ही न पाए। एक प्रदर्शनकारी मेडीकल छात्रा रेणुका कहती है कि प्रदर्शन सिर्फ अपराध के खिलाफ नहीं, बल्कि बीमार मानसिकता के खिलाफ भी है। लेकिन सरकार इस सच्चाई से मुंह मोड़कर या तो जनभावनाओं को कुचलने की निर्ममता दिखा रही है अथवा प्रदर्शनकारियों के समानांतर प्रायोजित रैली निकालने का ढोंग कर रही है। यही कारण है कि देश भर में उबाल के बावजूद दुराचारियों को कोई कड़ा संदेश नहीं जा पा रहा और दिल्ली, उ.प्र., पंजाब, हरियाणा, असम, प.बंगाल में इन्हीं दिनों लगातार ऐसी शर्मनाक घटनाएं हो रही हैं।
दिल्ली में इंडिया गेट पर धारा 144 लगाकर सरकार प्रदर्शनकारियों को रोकने का षड्यंत्र करती है, जिसके लिए दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी सरकार को फटकार लगाई है। इस बीच भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर की तीखी टिप्पणी सामने आई है कि 'प्रशासन चुस्त होता तो रेपकांड टल सकता था। सर्वोच्च न्यायालय के दिशानिर्देशों के बावजूद काले शीशे वाले वाहनों पर लगाम नहीं कसी गई और ऐसी घटना हुई। इस पर जनता का रोष जायज है।' यह सब सरकार और प्रशासन के गैर जिम्मेदार तौर-तरीकों व जनता के दुख:दर्द के प्रति संवेदनहीनता को ही दर्शाता है। केन्द्र सरकार के एक मंत्री द्वारा पीड़ित युवती की पहचान को लेकर खड़ा किया विवाद भी इसी श्रेणी में आता है, दिखावे के लिए कांग्रेस को भी उसकी आलोचना करनी पड़ी। इससे आहत मृत छात्रा के भाई को भी कहना पड़ा 'मेरी बहन को तमाशा न बनाया जाए।' इन पंक्तियों के लिखे जाने तक जंतर-मंतर पर बरेली के राजेश गंगवार 12 दिनों से अनशन पर हैं, अन्न त्याग कर चुके गंगवार की तबीयत काफी बिगड़ चुकी है, लेकिन वे अपने संकल्प पर अडिग हैं और कहते हैं कि हमें आश्वासन नहीं चाहिए, सरकार की तरफ से ठोस जवाब चाहिए, जिससे भरोसा हो कि सरकार वाकई कुछ करना चाहती है।
विफल सरकार, क्रूर व्यवहार
आर्थिक नीतियों, सामाजिक खुशहाली और राष्ट्रीय व आंतरिक सुरक्षा के मोर्चों पर सब प्रकार से विफल रही, भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी सरकार के विरुद्ध लगातार जनाक्रोश पनप रहा था, बाबा रामदेव व अण्णा हजारे के आंदोलनों ने उसे मुखर किया, लेकिन बसंत विहार सामूहिक बलात्कार कांड ने तो मानो देशवासियों के सब्र का बांध ही तोड़ दिया और बिना किसी औपचारिक नेतृत्व के देशभर में दर्द का तूफान सा उठ खड़ा हुआ जो सरकार की क्रूरता के बाद भी थमने का नाम नहीं ले रहा। बलात्कारियों व नारी सम्मान को ठेस पहुंचाने वालों के लिए कड़ी सजा और त्वरित न्यायिक प्रक्रिया के लिए आक्रोशित जनता की मांग पर सरकार बगलें झांक रही है और जैसे-तैसे कुछ घोषणाएं करके अपना पिंड छुड़ाना चाहती है। लेकिन यह प्रश्न सिर्फ दिल्ली का नहीं है, जहां दो-दो सरकारों की नाक के नीचे भी ऐसे वीभत्स कांड होते हैं, बल्कि देश के गांवों-कस्बों और दूरदराज इलाकों तक एक आश्वस्तिपरक संदेश देने का है। इसके प्रति सरकार कतई ईमानदार नहीं दिखती, इसीलिए उसने संसद का विशेष सत्र बुलाकर कानून बनाने की मांग ठुकरा दी। इसलिए जनता को आत्मरक्षा और आत्मसम्मान की यह लड़ाई सरकार से लड़नी ही पड़ेगी, सामाजिक स्तर पर भी कुछ विचारणीय बिन्दुओं पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। समाज के उस वातावरण के प्रति भी हमें अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी, जहां आधुनिकता व मनोरंजन के नाम पर अश्लीलता को परोसा जा रहा है और बाजार ने उपभोगवाद की सारी सीमाएं तोड़ दी हैं, विशेषकर स्त्री को लेकर एक विकृत और भोगवादी सोच को बेतहाशा बढ़ाया है। पिछले दिनों एक रैप गायक के गाने 'मैं बलात्कारी' को लेकर उसके विरुद्ध मामला दायर किया जाना व उसके 'शो' का बहिष्कार आज इस आंदोलनात्मक माहौल में से उपजी प्रतिक्रिया मानी जा सकती है, लेकिन वह व्यक्ति वर्षों से इस गाने को गा-गाकर लोगों का मनोरंजन कर रहा है, पैसा बटोर रहा है और श्रोता झूम-झूमकर नाच रहे हैं! क्यों यह समझ में नहीं आया कि मस्ती और मनोरंजन के नाम पर एक मानसिक विकृति को किस तरह सरेआम बढ़ाया जा रहा है? विज्ञापनों में स्त्री देह को दिखाकर 'बिन छुए रहा न जाए' जैसे कितने ही कुत्सित और कुंठित मनोवृत्ति को दर्शाने वाले दृश्य और 'जुमले' दिखाए-सुनाए जाते हैं। हम कैसे यह सब बर्दाश्त करते हैं? इनकी ओर से आंखें मूंद लेने और सामूहिक विरोध व्यक्त न किए जाने का ही परिणाम है कि समाज में दबे पांव खौफनाक विकृतियां हावी होती चली जाती हैं और जब उनका वीभत्स विकराल रूप सामने आता है तब हम चेतते हैं। बस में, सड़क पर या अन्य किसी सार्वजनिक स्थल पर, पड़ोस में कहीं कुछ भी गलत हो रहा है तो हम बचकर चलते हैं या आंखें फेर कर बैठते हैं कि कौन झंझट में पड़े, तब अपराधी, असामाजिक व गलत तत्वों का हौसला बढ़ता है। हमारी यही कमजोरी, हमारा डर उन्हें ताकत देता है और वे रक्तबीज की तरह चारों तरफ छा जाने को आतुर रहते हैं। कानून अपनी जगह है, लेकिन समाज में बुराई के विरुद्ध सजगता व उसके विरुद्ध खड़े होने की सामूहिक हिम्मत बहुत जरूरी है। इसके प्रति उदासीन रहकर हम समाज को कैसे बदलेंगे?
चरित्र निर्माण है समाधान
शिक्षा का सेकुलरीकरण अच्छे समाज के निर्माण में एक बड़ी बाधा बनकर उभरा है, जिसने भारत के जीवन मूल्यों, धर्म, संस्कृति, नैतिकता व महापुरुषों की गुण सम्पदा को न केवल साम्प्रदायिकता के कटघरे में खड़ा कर दिया है, बल्कि धीरे-धीरे पाठ्यक्रम से ही बाहर करा दिया है। यहां तक कि विद्यालयों में सरस्वती वंदना को साम्प्रदायिक बताकर पाबंदी लगाने की मांग तक की जाती है। अब तो अधिकांश विद्यालयों में ऐसी सामूहिक प्रार्थना का चलन ही बंद हो रहा है। ऐसे में शिक्षा का मूल उद्देश्य चरित्र निर्माण, व्यक्तित्व विकास व बच्चों में सोए देवत्व को जगाना तो दूर की कौड़ी हो गया। तब ईमानदारी, सेवा व परस्पर बंधुत्व का भाव, स्त्रियों का सम्मान, सत्य के प्रति दृढ़ता, बुराई के प्रति चिढ़ जैसे संस्कार बाल व युवा मन में कैसे जगेंगे? स्वतंत्र भारत में सेकुलर राजनीति की इस विकृत देन ने हमारा सामाजिक संकट बहुत बढ़ाया है। इससे उबर कर चरित्र निर्माण की प्रक्रिया घर-परिवार व विद्यालयों में तेजी से विकसित करने की आवश्यकता है। यह दर्द का चीत्कार शायद हमें इस ओर भी सजग करे तो उस अनाम युवती का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा।द
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