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दिल्ली में चलती बस में एक युवती के साथ बलात्कार की दुर्घटना ने पूरे देश को हिला कर रख दिया। केवल दिल्ली की सड़कों पर ही नहीं अपितु देश के सभी प्रमुख स्थानों पर युवा लड़के-लड़कियां, छात्र-छात्राएं तथा आमजन क्रुद्ध दिखाई दे रहे हैं, प्रदर्शन कर रहे हैं, संसद से सड़क तक अपराधियों को फांसी देने की सशक्त आवाज उठी है। अतीत साक्षी है कि संसद सत्र समाप्त होते ही हमारे नेतागण सब कुछ भूलने का प्रयास करते हैं। देखना है कि अब जो कैमरों के सामने संसद में भावुकता और संवेदना दिखाई दी, वह कितने दिन चलेगी।
इससे पूर्व जब गुवाहाटी की सड़क पर एक युवती को गुंडों के समूह ने ही अपमानित किया था तब भी उत्तर-पूर्व से उत्तर-पश्चिम तक, पूरा देश आक्रोशित हुआ था। उसके बाद पता ही नहीं चला कि उन अपराधियों को दंड क्या मिला। अपने देश में अपराध तो दिखाया जाता है, लेकिन दंडित होते अपराधियों को नहीं दिखाया जाता। कारण संभवत: यह है कि न्याय प्रक्रिया पूरी होने के बाद दंड मिलने में इतना समय बीत जाता है कि तब तक अन्य बहुत सी दुर्घटनाएं हो जाती हैं।
डरावने आंकड़े
प्रश्न यह है कि हम पतीले में उबाल की तरह कभी-कभी क्यों क्रोधित होते दिखाई देते हैं? यह सरकारी सच है कि एक घंटे में तीन महिलाएं अपने देश में बलात्कार की तथा अन्य यौन अपराधों की शिकार होती हैं। सच यह भी है कि वर्ष 2011-12 में भारत की लगभग चौबीस हजार से ज्यादा बेटियों के बलात्कारियों द्वारा अपमानित होने के मामले दर्ज हुए। ध्यान देना होगा कि इतने तो मामले दर्ज हुए हैं और ये भी विभिन्न संस्थाओं के शोध के पश्चात मिले आंकड़े हैं। लेकिन बलात्कार के 80 प्रतिशत मामले पुलिस और कानून के सामने आते ही नहीं। इसके पीछे पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक कई प्रकार के कारण होते हैं।
चिंता तो यह करनी चाहिए कि कहां कमी रह गई, जो नारी को देवी का स्थान देने वाले देश में, वर्ष में दो बार कन्या पूजन करने वाले भारत में, हर पवित्र वस्तु की नारी रूप में पूजा करने वाले देश में बेटियों का इतना शोषण और अपमान होता है? भारत में आज भी कुछ परिवार, कुछ पंचायतें, कुछ संस्थाएं और अधिकतर पुरुष समाज बेटियों को प्रतिमा समझकर ही उनके संबंध में निर्णय लेते हैं। घर से कितना निकलना है, शिक्षा कहां तक पानी है, शादी किस आयु में होनी है, नौकरी करनी है या नहीं, बुरका अथवा घूंघट ओढ़ना है या नहीं, मोबाइल का प्रयोग वर्जित होगा या नहीं आदि विषयों पर परिवार के पुरुषों का मत ही प्रभावी रहता है। आतंकवाद के दिनों में पंजाब की महिलाओं पर भी आतंकवादियों ने एक विशेष प्रकार और विशेष रंग के कपड़े पहनने का काला हुक्म जारी किया था। कश्मीर में भी ऐसा ही हुआ, पर वह तो आतंकवाद का दौर था। आज भी कई स्थानों पर वैसा ही 'सामाजिक आतंकवाद' हमारी बेटियों को सहना पड़ता है। ऐसे नियम प्रतिमाओं पर ही लागू हो सकते हैं, उन देवियों पर नहीं जिनका इतिहास यह है कि शेर की सवारी करके राक्षसों का संहार करती थीं।
जिम्मेदारी समझें राजनेता
जिस दिन दिल्ली में वह दुर्घटना हुई उसी दिन से मीडिया द्वारा यह दिखाया और सुनाया जा रहा है कि देश शर्मिंदा हुआ। यह भी लिखा गया कि सारा देश शर्मसार हो गया। मैं सोचती हूं कि काश! सारा देश शर्मसार हो जाता। भारत के राजनेता जब तक एक स्वर से बुराई का विरोध नहीं करेंगे, बुराई समाप्त नहीं होगी। आज की स्थिति तो यह है कि जिस पार्टी द्वारा शासित राज्य में महिलाओं के विरुद्ध अथवा अन्य किसी प्रकार का अपराध बढ़ता है, वहां विपक्ष ज्यादा शोर मचाता है और सत्तापक्ष उसे ढकने का प्रयास करता है। हरियाणा और पंजाब में इसके प्रत्यक्ष उदाहरण पिछले दिनों सुनने-देखने को मिले हैं।
मेरा यह विश्वास है कि अब जब स्थिति इतनी विषम हो गई है, जिसमें प्रतिदिन देश में किसी न किसी बेटी का शील भंग किया जाता है, ऐसे वातावरण में माताओं को कमान संभालनी होगी। इस देश की माताओं को याद रखना होगा कि शकुंतला, मदालसा, सुमित्रा, जीजाबाई आदि माताओं ने संकल्प लिया था कि उन्होंने अपनी संतान को कैसे संस्कारों से युक्त करना है। कौन नहीं जानता कि जीजाबाई ने तो विवाह से पूर्व ही मन में यह धारण कर लिया था कि जब वह मां बनेंगी, उनका पुत्र देश-धर्म का रक्षक ही नहीं बनेगा, अपितु भारत की हर बेटी के सम्मान की रक्षा करेगा। शकुंतला ने अपने बेटे को शेरों से खेलना सिखाया था और मदालसा तो संकल्प के साथ अपनी संतान को संन्यास और राष्ट्र धर्म की दीक्षा दे देती थी।
माताएं लें संकल्प
भारत की आम महिला शैक्षणिक योग्यता में कम-ज्यादा हो सकती है, पर वह भारत की धर्म-संस्कृति को अच्छी तरह समझती है। जिस दिन हर मां बेटे-बेटियों को चरित्रवान बनाने का प्रण ले लेगी और रोटी के एक-एक निवाले के साथ अपनी संतान को संस्कारित करने का प्रयास करेगी उसी दिन से इन अपराधों में कमी आ जाएगी। आज की आवश्यकता यह है कि माता-पिता, बहन-भाई जब भी परिवार में इकट्ठे हों तो इस विषय पर चर्चा की जाए और घर-घर में इन बुराइयों के विरुद्ध एक सशक्त मत तैयार किया जाए। आवश्यकता यह भी है कि ऐसा अपराध सड़क पर होते देखकर किसी भी भय से खामोश न रहा जाए, यथाशक्ति उसका विरोध किया जाए। जो व्यापारी, उद्योगपति, फिल्म और विज्ञापन की दुनिया वाले महिलाओं को अर्द्धनग्न रूप में प्रस्तुत करके देश की बेटियों का अपमान करते हैं उनके विरुद्ध सड़कों पर उतरा जाए। वैसे यह काम सरकार का है, इसे रोकने के लिए कानून भी है, पर जब सरकारें देखकर भी न देखें, सुनकर भी न सुनें, कर्तव्यविमुख हो जाएं तो लोकतंत्र के प्रहरियों को ही मुखर होना होगा।
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