भारतीय संस्कृतिके अनुरूप होसंविधान में संशोधन
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के अनुरूप हो
संविधान में संशोधन
डा.सतीश चन्द्र मित्तल
प्रत्येक देश का संविधान उस राष्ट्र के मूल चिन्तन, परम्परा, प्रवृत्ति तथा विचार का प्रतिबिम्ब होता है। यह उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत तथा भावी दिशा तथा व्यवस्था का मार्गदर्शक होता है। साथ ही संविधान उस देश की पहचान, चिंतन तथा नीति का बोधक होता है। स्वतंत्रता हेतु लम्बे संघर्ष के बाद ब्रिटिश राज के ही नेतृत्व में भारतीय संविधान की रचना प्रारम्भ हुई। वस्तुत: संविधान बनाने का चिंतन 1940 से ही प्रारम्भ हो गया था। 11 मार्च, 1942 के वक्तव्य में सर विन्सटन चर्चिल ने अल्पसंख्यकों की सुरक्षा तथा भारतीय रियासतों के साथ समझौतों की बात की थी। इसके बाद विधिवत् संवैधानिक प्रक्रिया 'कैबिनेट मिशन योजना' के अर्न्तगत शुरु की गई। संविधान सभा के लिए कोई चुनाव नहीं किए गए बल्कि पूर्व के चुनाव के आधार पर कुल 13 प्रतिशत लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले इसके सदस्य चुन लिए गए। सामान्यत: इसमें पढ़े-लिखे युवकों, दुकानदारों, व्यापारियों, किसानों और मजदूरों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं था। ध्यान देने योग्य है कि इसमें वे लोग भी थे जिनकी सहानुभूति पहले मुस्लिम लीग के साथ थी या वे द्विराष्ट्रवाद सिद्धांत से समर्थक थे। संविधान सभा के कुल सदस्यों की संख्या 296 थी, उनमें से 160 हिन्दू तथा 80 मुसलमान थे, शेष अन्य समुदायों के थे। संविधान सभा की कार्यवाही 9 दिसम्बर, 1946 से 26 नवम्बर, 1949 तक चली। कुल मिलाकर 12 अधिवेशनों में 165 बैठकें हुईं। संविधान सभा पर कुल खर्च 63, 96,729 रुपए आया।
ब्रिटिश तथा भारतीय राजनीतिज्ञों की दृष्टि
संविधान निर्माण के दौरान ब्रिटिश शासकों की दृष्टि सदैव इसकी कार्यवाही पर बनी रही। पहली बैठक में कुल 210 सदस्य उपस्थित थे लेकिन मुसलमानों की उपस्थिति कुल चार थी। इस पर इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री चर्चिल तथा विस्काउंट साइमन ने 'हाउस आफ कामन्स' तथा 'हाउस आफ लार्ड्स' में कड़ा विरोध किया। चर्चिल ने संविधान सभा में केवल बहुसंख्यकों (हिन्दुओं) के होने का आरोप लगाया तथा विस्कांउट साइमन ने इसे केवल 'हिन्दुओं की सभा' कहा। इस पर संविधान सभा के अध्यक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद ने कड़े शब्दों में प्रतिवाद किया। (देखें–भारतीय संविधान सभा की कार्यवाही, भाग दो, पृ. 267)
ब्रिटिश शासक व्यावहारिक रूप से मुसलमानों के पक्षपाती थे। लार्ड वेवल और लार्ड माउन्टबेटन के व्यवहार में भारत के हिन्दुओं से कोई लगाव या सहानुभूति नहीं दिखी। माउन्टबेटन ने एक बार कहा था, 'तुम देखते हो मैं मुस्लिम लीग के लोगों को चाहता हूं। मैं व्यक्तिगत रूप से किसी का समर्थक नहीं, परन्तु वास्तव में मैं मुसलमानों को चाहता हूं।' तत्कालीन भारतीय सेना के मुख्य सेनापति सर क्लोड ओचीनीक भी अपने को पंजाबी समर्थक मुसलमान मानता था।
जहां तक तत्कालीन भारतीय नेताओं का प्रश्न है, तो स्वयं पंडित नेहरू ने अपने को हिन्दू के रूप में पैदा होने को मात्र 'संयोग' ही बताया था। वे पाश्चात्य जीवन से प्रभावित तथा भारत में मिश्रित संस्कृति के पोषक थे। प्रारम्भ में वे भारत का संविधान भी ब्रिटिश संविधान विशेषज्ञ सर आइवर जेनिंग्ज द्वारा बनवाना चाहते थे। इसी भांति 'भारत डोमिनियन' के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने लार्ड माइन्टबेटन को स्वीकार किया, जबकि मोहम्मद अली जिन्ना ने उसे अस्वीकार कर दिया था। वे भारत के मुख्य सेनापति के रूप में भी सर क्लोड ओचीनीक को बनाए रखना चाहते थे। माउन्टबेटन के कहने पर उन्होंने महानिदेशक लेखा परीक्षक (एकाउटेंट जनरल) एक अंग्रेज को ही बना रहने दिया था। संविधान के सन्दर्भ में पंडित नेहरू तथा महात्मा गांधी के विचारों में तालमेल नहीं था। गांधी जी ने देश के लिए एक अलग संविधान बनाया था जो उनकी हत्या के पश्चात 15 फरवरी, 1948 को 'हरिजन' में प्रकाशित हुआ, जिसमें वे भारत में ग्राम स्वराज्य को सर्वोच्च स्थान देना चाहते थे।
पाश्चात्य संविधानों की नकल
यह कहना गलत न होगा कि भारतीय संविधान में ऐसा कुछ भी नहीं है जो भारतीय संस्कृति तथा परम्परा के अनुकूल हो। उपरोक्त कथन देश-विदेश के अनेक चिंतकों के विचारों से स्पष्ट हो जाता है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री बी.पी. सिन्हा ने दिल्ली में आयोजित एक गोष्ठी में स्वीकार किया कि संविधान का अधिकतर भाग अंग्रेजी के सन् 1935 के 'भारत एक्ट' पर आधारित है। इसी भांति पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री मेहरचन्द महाजन ने 15 अगस्त, 1966 को अपने एक लेख में 1935 के एक्ट पर आधारित संविधान को एक 'दासत्व प्रति' बतलाया। एक प्रसिद्ध विद्वान कस्तूर चन्द लालवाणी ने इसकी उद्देशिका, मूल अधिकारों, नीति-निर्देशक तत्वों आदि तमाम बडे-बड़े शब्दों के पीछे 1935 के एक्ट की छाप ही माना है। उसके अनुसार पुराने ढांचे को भारतीय राज शिल्पियों ने एक नए पलस्तर सामग्री से जोड़कर बनाया है। परन्तु इसका एक सतत्-समग्र रूप नहीं बन पाया (इंडिया स्ट्रगल एण्ड इंडियन कांस्टीट्यूशन, कोलकाता, 1950) संविधान सभा के प्रमुख सदस्य श्री ए.एस. आयंगर ने इसे पश्चिम के कुछ पुराने संविधानों का पैचवर्क (पावंद) बतलाया।
ब्रिटेन के प्रसिद्ध इतिहाकार माइकल ब्रीचर ने भारतीय संविधान को तत्कालीन ब्रिटिश-भारतीय व्यवहार पर आधारित बतलाया। उसने इसकी दो बातें बतायीं। प्रथम इसमें 1935 एक्ट के 235 अनुच्छेदों को ज्यों का त्यों या मामूली परिवर्तन के साथ अपना लिया गया तथा सैद्धान्तिक रूप से कोई परिवर्तन नहीं किया गया। दूसरे, इसमें भारतीय चिंतन का पूर्णत: अभाव है।
भारतीय संविधान सभा में ही संविधान के स्वरूप की कटु आलोचना हुई। उदाहरणत: श्री एच.वी. कामथ ने कहा कि हमने अन्य देशों के संविधान से बहुत कुछ लिया, साथ ही प्रश्न किया क्या हमने अपने अतीत से भी कुछ लिया है? क्या भारत की राजनीतिक तथा आध्यात्मिक प्रतिभाओं से भी कुछ लिया है? उन्होंने पुन: कहा कि श्रीमती विजयलक्ष्मी यू.एन.ओ. में बड़ी गर्मजोशी से कहती हैं कि हमने पेरिस से स्वतंत्रता, समानता तथा भ्रातृत्व लिया है, पर यह नहीं बताया कि भारत से क्या लिया है।' डा. सम्पूर्णानन्द ने चेन्नै में एक भाषण में कहा कि 'भारतीय संविधान में कुछ भी भारतीय नहीं है।'
कार्यवाही के कुछ प्रमुख मुद्दे
भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़ा संविधान है जिसकी कार्यवाही 12 खण्डों, 6440 पृष्ठों तथा लगभग 90,000 शब्दों में लिपिबद्ध है। संविधान सभा की पहली वास्तविक बैठक 23 दिसम्बर, 1946 को हुई। इसमें पं. नेहरू ने संविधान के उद्देश्यों सम्बन्धी ऐतिहासिक प्रस्ताव रखा तथा भारत के संविधान को एक स्वतंत्र प्रभुतायुक्त प्रजातांत्रिक गणराज्य बताया। परन्तु संविधान सभा की ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष डा. भीमराव अम्बेडकर ने पहले ही भाषण में उद्देश्यों के प्रस्ताव को अत्यधिक निराशापूर्ण कहा। यदि संविधान के कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर विचार करें तो सर्वप्रथम इसकी उद्देशिका आती है। यद्यपि यह संविधान का भाग नहीं है, पर इससे इसके निर्माताओं की मनोभावना का पता चलता है। पं. नेहरू ने अपने उद्देश्यों के प्रस्ताव में 'स्वतंत्र' शब्द का प्रयोग किया था, परन्तु 'ड्राफ्ट कमेटी' को यह हटाना पड़ा। उद्देशिका के सन्दर्भ में सात प्रस्ताव आये, जो सभी अस्वीकृत कर दिए गए। एच.वी. कामथ इसमें 'ईश्वर' का नाम जोड़ना चाहते थे, एक-दूसरे सदस्य इसमें 'ईश्वर का आशीर्वाद जोड़ना' चाहते थे। डा. शिव्वन लाल सक्सेना इसमें महात्मा गांधी का नाम जोड़ना चाहते थे, पर इनमें से कोई भी स्वीकार न हुआ।
संविधान सभा में पहले अनुच्छेद का प्रथम भाग भी विवाद का विषय बना रहा। भारतीय संविधान में इस देश का नाम 'इंडिया दैट इज भारत' बताया गया। श्री ए.एस. आयंगर ने इंडिया के स्थान पर इसका नाम' 'भारत', 'भारतवर्ष' 'हिन्दुस्थान' प्रस्तावित किया। एक विचारक ने कहा कि देश का नाम 'इंडिया' तो क्या हम आपस में 'ऐ इंडियन' कहकर सम्बोधन करें? इसी भांति इसे 'यूनियन आफ स्टेट्स' कहने पर भी विवाद हुआ।
संविधान के अनुच्छेद 5 से 11 तक पर, जो नागरिकता से सम्बंधित थे, ज्यादा विवाद न हुआ। डा. वी. आर. अम्बेडकर ने प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दिया कि भारत के लिए एक ही नागरिकता होगी, किसी रियासत अथवा राज्य की अलग से नागरिकता नहीं होगी। परन्तु व्यावहारिक रूप से कोई भी भारतीय ब्रिटिशराज का नागरिक भी बना रह सकता था। इसके लिए 'ब्रिटिश नेशनिलिटी एक्ट, 1948 बना रहा। अत: 1955 में भारतीय नागरिकता कानून भी बना।
भारतीयता का अभाव
कई सदस्यों ने गऊ हत्या पर प्रतिबन्ध की मांग की। एक सदस्य ने पूछा कि क्या कृषि प्रधान देश में गऊ हत्या अपराध न माना जाए? भारतीय संविधान सभा में सर्वाधिक विवाद का विषय ग्राम पंचायत तथा ग्रामीण समुदायों की स्थिति रहा। इस सन्दर्भ में समूचा सदन दो भागों में बंटा दिखा। एक वे थे जो गांधी जी के विचारों के समर्थक थे। इसकी चर्चा गांधी जी ने 1909 में अपनी पुस्तक 'हिन्द स्वराज्य' में भी की थी। महावीर त्यागी ने कहा कि संविधान में केवल गांवों को वोट का अधिकार दिया जाए। गोकुल सहाय दौलतराम भट्ट ने कहा, यदि गांव को छोड़ दिया गया है तो संविधान को भी छोड़ दिया जाना चाहिए। इसके विपरीत कुछ दूसरे सदस्य गांवों को पिछड़ेपन, अज्ञानता का अड्डा, संकुचित तथा साम्प्रदायिकता से भरपूर मानते थे। इनका कहना था कि भारत पर अनेक शासक आए परन्तु ग्रामीणों में कोई अंतर नहीं आया।
इसी भांति भारत के राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गीत तथा राष्ट्रीय भाषा जैसे अत्यन्त महत्वपूर्ण विषयों पर संक्षिप्त चर्चा ही हुई। राष्ट्रीय ध्वज के सन्दर्भ में एक सदस्य ने ध्वज के बीच भारतीय चिंतन के प्रतीक 'स्वास्तिक' को लिखने तथा 'सत्यं शिवम् सुन्दरम्' भी जोड़ने का प्रस्ताव किया। एक-दूसरे सदस्य ने भगवा ध्वज की बात की। राष्ट्रीय गीत के सन्दर्भ में जन-गण-मन गीत की आलोचना की गई। कवि रवीन्द्र नाथ के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए इसे 1911 में जार्ज पंचम के भारत आने पर उनका स्वागत गान बतलाया। राष्ट्र भाषा के प्रश्न पर अनेक प्रश्न किए गए। मांग की गई कि संविधान मूलत: भारतीय भाषा में हो। अंग्रेजी से उसका अनुवाद कर देने को 'अपमानजनक' भी कहा गया। एक सदस्य ने कहा, 'लगता है हम 'ब्रिटिश पार्लियामेन्ट' में बैठे हैं।' एक ने कहा, 'प्रश्न केवल भाषा का नहीं बल्कि राष्ट्र की तथा देश की भाषा का।' अनेक ने राष्ट्र भाषा हिन्दी तथा उसकी देवनागरी लिपि का समर्थन किया। इस सन्दर्भ में संविधान सभा के अध्यक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद ने 26 नवम्बर, 1949 को अपना अवसाद भी प्रकट किया कि भारत के संविधान की मूल प्रति अंग्रेजी में है। इसी भांति देश में मिश्रित संस्कृति के स्थान पर केवल एक संस्कृति की बात कही गई।
इस विश्लेषण के बाद अब एक सीधा-सा प्रश्न है कि भारत जैसे विशालकाय संविधान तथा इन पेचीदे दस्तावेजों से भारतीय नागरिक आज भी क्यों अवगत नहीं हैं? पिछले 63 वर्षों में संविधान में 100 से अधिक संशोधन हुए, इसमें पं. नेहरू ने 16, श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 32 तथा राजीव गांधी तथा नरसिंह राव ने 10-10 संशोधन किए। अत: आवश्यकता है भारतीय संविधान में राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानते हुए व्यापक संशोधन हों। वह भारतीय जनजीवन, देश की संस्कृति तथा परम्परा के अनुकूल हो। आवश्यकता है कि राष्ट्र का प्रत्येक राजनीतिक दल अपने-अपने चुनावी एजेण्डे में संविधान में भावी संशोधनों की सूची भी प्रकाशित करे, ताकि देश में संविधान के प्रति अधिक आस्था, अधिक जागरूकता तथा अधिक क्रियाशीलता बढ़े तथा राष्ट्रोत्थान हो।
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